रविवार, 27 नवंबर 2011

कसाब सरकारी दामाद कब तक

26-11 की घटना को तीन साल पूरे हो चुके हैं. आतंकियों से निबटने की बात का क्या हुआ, सरकार ने क्या किया, जो घोषणाएं हुर्इं, उनका क्या हुआ इन सब बातों में मैंहमेशा की तरह नहीं जाना चाहता हूं. शायद इसलिए कि पत्रकारिता के चार वर्षों के अनुभव से मैं यह जान गया हूं कि हमारा सिस्टम बीती ताहि बिसार दे का मुरीद है और यह अपनी ही समस्याओं में इस कदर डूबा हुआ है कि आतंकवाद से निबटना इसकी प्राथमिकता सूची में सबसे नीचे है. शायद यही वजह है कि कारगिल, मुंबर्इ, दिल्ली में धमाके झेलनेके बाद यह भावशून्य है. दरअसल, हजारों वर्षों की सांस्क्रतिक गुलाामी के बाद हममें विरोध नाम की कोर्इ चीज नहीं बची है. लेकिन मैं भी आदत से मजबूर हूं-जैसे ही खबर पढी कि माननीय कसाब पर अबतक 16 करोड रूपये खर्च हो चुके हैं, मन व्यथित हो गया, सोचने लगा कि क्या हमारे मेहनत की कमार्इटैक्स यही इज्जत होनी चाहिए. एक ऐसा आदमी जिसने हमारे देशवासियों को मारने में कोर्इ कोताही नहीं बरती, उसे हम दामाद की तरह तीन साल से बैठा कर उस जनता की कमार्इ खिला रहे हैं जो साल भर मेहनत-मजदूरी कर , समस्याओं में रह कर इस उम्मीद में सरकार को अपनी कमार्इ का हिस्सा देती है कि वह उसकी रक्षा करेगी. लेकिन हमारे हुक्मरान संविधान के प्रति लिये गये शपथ को भूल कर देश के दुश्मनों को पाल रहे हैं. यह बंद होना चाहिए. यह निशिचत ही बंद होना चाहिए.

रविवार, 30 अक्तूबर 2011

आप सभी को छठ की शुभकामनाएं

बिग हिंदू की ओर से सभी शुभचिंतकों को छठ की शुभकामनाएं व बधार्इ

सोमवार, 10 अक्तूबर 2011

कार्टून का मतलब बताओ तो जानें


यह बिहार के एक युवा काटूनिस्ट की रचना है . उन्होंने इससे क्या संदेश देने की कोशिश की है, यह जगजाहिर है. मेरा मानना है कि अभिव्यकित की स्वतंत्रता के तहत उन्हें भी अपनी बात रखने का मौका मिलना चाहिए , जिस तरह से देश के नेताओं को अपनी बात रखने का अधिकार है.

रविवार, 25 सितंबर 2011

7600 हिटस के लिए धन्यवाद

बिग हिंदू की ओर से 7600 हिटस के लिए सभी शुभचिंतकों को बधार्इ. आशा है आप अपना सहयोग इसी तरह बनाये रखेंगे.

आभार सहित

रोहित कुमार सिंह

बिग हिंदू

सोमवार, 19 सितंबर 2011

नरेंद्र मोदी ने ठीक किया

रोहित कुमार सिंह

भारत की सियासत में कुछ भी संभव है. नरेंद्र मोदी की सदभावना उपवास कार्यक्रम के अंतिम दिन सोमवार को टोपी विवाद को जिस तरह से हवा देकर इसे सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की गयी , उससे तो यही लगता है कि कांग्रेस एंड कंपनी किसी सूरत में मोदी को बरदाश्त नहीं करना चाहती है.

पहले टोपी विवाद का पूरा वाकया पढें. मंच पर एक मौलवी साहब आते हैं, मोदी पूरी शिददत के साथ उनसे मिलते हैं, दोनों के बीच बातचीत होती है. अचानक मौलवी साहब अपनी जेब से एक इबादती टोपी निकालते हैंऔर मोदी को पहनाने की ख्वाहिश जाहिर करते हैं. मोदी आग्रहपूर्वक टोपी पहनने से इनकार कर देते हैं और एक चादर को स्वीकार कर मौलवी साहब को सम्मानपूर्वक विदा कर दिया.

जब मामले को कांग्रेस व सत्ता के सेकुलर दलालों द्वारा तूल दिया जाने लगा तो भाजपा की ओर से कहा गया कि टोपी इबादत के लिए होती है, लिहाजा टोपी पहनना अथवा न पहनना की भी रूप से राजनीति का अंग नहीं हो सकता है. मेरा भी व्यकितगत रूप से मानना है कि अपना धर्म किसी पर थोपना नहीं चाहिए, हर धर्म की अपनी मर्यादा व सीमा होती है, इसका उल्लंघन किसी भी सूरत में नहीं किया जाना चाहिए. पर इस देश में कांग्रेस की जो यूपीए है वह इन बातों से इत्तफाक नहीं रखती है. मेरा सवाल हो -हल्ला मचा रही कांग्रेस से है- क्या अगर मोदी टोपी स्वीकार कर लेते तो वह सेकुलर हो जाते, क्या बिना टोपी पहने मोदी ने जो आज तक गुजरात पर शासन किया है उसमें मुसलमानों का भला नहीं हुआ है, मोदी ने धर्म के नाम पर नाटक नहीं किया जो अमूमन सभी नेता करते हैं . पवित्र रमजान के समय हमारे नेता टोपी, पायजामा-कुरता, लाल या काली गमछी पहन-ओढ कर नमाजियों के संग एकता जताने के लिए जुट जाते हैं व उनके पवित्र रोजा खोलने को इफतार पार्टी बना डालते हैं. रमजान में नमाजी अल्लाह की इबादत में जुटे रहते हैं व एक शाम भोजन कर रोजा खोलते हैं , पर क्या हमारे नेता ऐसा करते हैं. वे तो दिन भर कम-कुकर्म कर शाम को भांड की तरह जाकर झूटी एकता जताने लगते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि ऐसा करने से मुसलमान खुश होंगे व उन्हें वोट देंगे. अगर मोदी ने आग्रहपूर्वक टोपी लौटा दी तो कौन सा पहाड टूट पडा. कम से कम एक बात के लिए मोदी को शाबासी मिलनी चाहिए कि उन्होंने किसी के धर्म का अनादर नहीं किया.

बुधवार, 7 सितंबर 2011

माफ कर दें मनमोहन

एक ही बात बार-बार देश पूछते-पूछते थक गया है कि भर्इया मनमोहन आपकी आतंकवाद से लडार्इ कब शुरू होगी. जनाब आज के बम विस्फोट के बाद भी टीवी पर देशवासियों को अपने हिट बयान सुनाते दिखे. कितनी अजीब बात है कि जिस मुंबर्इ हमले मामले में बयानबाजी करने पर होम मिनिस्टर की कुर्सी चली गयी, उसी हमले के मुजरिम को देशवासियों के टैक्स के पैसों से ऐश कराया जा रहा है. बेशर्मी की हद यह है कि जिस संसद में ये भार्इ लोग देश को प्रवचन सुनाते हैं , उस पर हमले के आरोपित को ये लोग पाल-पोस रहे हैं. अगर कांग्रेस का आतंकवाद से लडने का तरीका यही है तो मनमोहन एंड कंपनी को देश को माफ कर देना चाहिए. उसकी आतंकवादियों से दरियादिली अब देश को भारी पड रही है. माना कि हमारे देश की आबादी 113 करोड के करीब है, लेकिन इसका यह मतलब कतर्इ नहीं है कि हम अपने कर्णधार को अपनी बलि चढाने के लिए खुद को सौंप दें. हमारे होम मिनिस्टर के साहस की बानगी देखिए-बाबा रामदेव के आंदोलन को दबाने के लिए जनाब को 12 बजे रात में पुलिस दमन कराने का दमखम आ जाता है, अन्ना हजारे को अनशन करने से रोकने के लिए स्वतंत्रता दिवस के एक दिन बाद गिरफतार कर लिया जाता है, पर उनकी सारी वीरता आतंकवादियों के आगे काफूर हो जाती है.

कांग्रेस के नरम रवैये का नतीजा है आतंकी हमला

राष्ट की सुरक्षा हर देश की सबसे बडी जिम्मेवारी होती है, पर लगता है कि आज कांग्रेस सरकार अपनी जिम्मेवारियों को भूल कर देश पर हमले के दोषियों-आतंकवादियों को ही सुरक्षा देने में लगी है, तभी तो अफजल गुरू व अजमल कसाब जैसे देश पर हमले के दोषियों को फांसी देने के बजाय अतिथि बना कर रखा गया है.

इकबाल इमाम

एक बार फिर देश की राजधानी आतंकी हमले से दहल गयी. दर्जन भर बेकसूर लोगों की जान गयी, 70 से अधिक लोग जख्मी हुए. आज सबसे बडा सवाल यह है कि बार-बार देश की सुरक्षा में सेंध क्यों लग जाती है़, आतंकी अपने मंसूबों में क्यों सफल हो जाते हैं, हमारा सुरक्षा तंत्र व खुफिया महकमा हर बार आतंकी हमले के बाद ही क्यों जागता है. इस बार अदालत को निशाना बनाया गया है. आतंकवादियों की मंशा साफ है. इससे तीन माह पूर्व भी वहीं हमला किया गया था. संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरू व मुंबर्इ हमले के दोषी अजमल कसाब सहित दर्जनों आतंकवादियों को सजा सुनाये जाने के बाद भी अब तक फांसी नहीं दी गयी है. फांसी पर लटकाने के बजाय केंद्र की कांग्रेसनीत यूपीए सरकार ने इन आतंकवादियों को अतिथि बना कर रखा है. इस हमले की जितनी भत्र्सना की जाये, कम होगी. लेकिन इससे बढ कर उस कांग्रेस सरकार की भत्र्सना होनी चाहिए, जो देश की सुरक्षा के साथ खिलवाड कर रही है. सभी जानते हैं कि अजहर मसूद के साथ क्या हुआ. एक यात्री विमान को हाइजैक कर अजहर सहित कर्इ आतंकवादियों को छुडा लिया गया. सवाल यह है कि क्या उस घटना से हमने कोर्इ सबक लिया, अगर नहीं लिया तो आखिर क्यों नहीं. क्या केंद्र की कांग्रेस सरकार , उसके मुखिया मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी चाहते हैं कि एक बार फिर आतंकवादी कोर्इ विमान हाइजैक करें और बदले में कसाब, अफजल व अन्य आतंकवादियों को सुरक्षित पाकिस्तान ले जाकर छोड दिया जाये, अगर ऐसा नहीं है तो केंद्र सरकार कडा रूख क्यों नहीं अपना रही है, क्यों देश की सुरक्षा के साथ आपराधिक लापरवाही बरती जा रही है, क्यों फांसी की सजा सुनाये जाने के बावजूद आतंकवादियों को दामाद की तरह रखा जा रहा है. जिस पाकिस्तान में वहां सरकार, सेना व आइएसआइ की मदद से भारत पर हमले के लिए आतंकी संगठनों को प्रशिक्षित किया जाता है , उसी पाकिस्तानी सरकार से बार-बार वार्ता करने, उस पर भरोसा करने, मुंबर्इ हमले में उसकी स्पष्ट भूमिका उजागर होने के बाद भी वहां आतंकवादियों के प्रशिक्षण केंद्रों को घ्वस्त नहीं करने और वहां की सरकार पर भरोसा करने की नादानी की गयी. दरअसल, यह नादानी नहीं, आपराधिक लापरवाही है . बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलनों को बर्बरता से कुचलनेवाली कांग्रेस सरकार आतंकवादियों के प्रति नरम रूख अपना रही है. यह देशवासियों के साथ विश्वासघात है, जो शर्मनाक है.

---लेखक बिहार से छपनेवाले एक दैनिक में हैं.

कॉमन मैन की कार्रवाई

रोहित कुमार सिंह
देश का हॉल इन दिनों बहुत बुरा है. आतंकवादी-दर-आतंकवादी जेल में जमा होते जा रहे हैं और सरकार है कि उन्हें फांसी देने की सोच भी नहीं रही है. अब देखिये न सुना है दिल्ली हाइकोर्ट के बाहर कुछ धमाका-वमाका हुआ है. इसके आलावा नामुराद आतंकवादियों का जहां मन होता है, घुस आते हैं और तबाही मचा कर लौट जाते हैं. इधर, सरकार ऐसे "बिहेव' करने लगती है, मानो कुछ हुआ ही न हो. सरकार के मंत्री कहते हैं कि बड़े-बड़े शहरों में छोटी-छोटी घटनाएं हो जाती हैं. बताइए साहब, आदमी की जान की कीमत है कि नहीं. जब मंत्री महोदयों के साथ ऐसी "छोटी-मोटी' घटनाएं होंगी तो समझ में आयेगा कि जान की कीमत क्‌या होती है. इन्हीं सब बातों को लेकर मैं दिल्ली की सड़कों पर "चिंता' करते हुए घूम रहा था. सोच रहा था कि भगवान इस देश का क्‌या होगा. कैसे चेलगा खटोला . इतने में मुझे लगा कि कोई मुझे चिल्ला चिल्ला कर रुकने को कह रहा है. मुझे लगा कि इस "हस्तिनापुर' में मुझे जाननेवाला कौन हो सकता है. इतने मे मैंने देखा कि मुझे बुलानेवाला कोई और नहीं स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हैं. मुझे शंका हुई तो मैंने उन्हें इशारा कर पूछा कि कौन मैं? उधर से आवाज आयी-ओ हां यार तुम ही, रुको तो. मैं रुक गया. अब सामने मनमोहन सिंह थे. जब मैंने उन्हें प्रणाम किया तो उन्होंने कहा कि-अरे मैं कांग्रेस का कॉमन मैन हूं. कॉमन मैन मतलब आम आदमी. और जब मैं आम आदमी हूं तो ताकुल्ल्फ़ कैसी. मैं भारत की पदयात्रा पर अकेले निकला हूं. मुझे जानना है कि देशवासियों का दिन इन दिनों कैसे गुजर रहा है. मैंने सोचा कि अब मेरे सामने प्रधानमंत्री नहीं कॉमन मैन है, सो मौका बढ़िया है, दिल की भड़ास निकल ली जाये. तक ताकुल्ल्फ़छोड़ते हुए मैंने भी शुरू किया क्‌या कॉमन मैन की बात करते हैं. आज देश में जो कॉमन मैन की गत है, उससे तो ज्‌यादा मजे में सड़कों पर रहनेवाले आवारा कुत्ते हैं. कम-से-कम वे आतंक व महंगाई जैसी चीजों से बचे हुए हैं. आपके कॉमन मैन की हालत यह है कि घर के बाहर उसे आतंक का खौफ है तो घर के अंदर महंगाई का. बेचारा न जी रहा है, न मर रहा है. बीच में टोकते हुए मनमोहन सिंह ने कहा-यह आप क्‌या और कैसे कह रहे हैं. आतंक को रोकने के लिए हम लगातार लगातार लगातार पाकिस्तान के संपर्क में हैं, हमने आतंकियों की लिस्ट उसे सौंपी है. रही बात महंगाई की तो आप लगता है अपडेट नहीं हैं. महंगाई दर ऐसे गिर रही है, जैसे वह पहाड़ से फिशल गयी हो. मैंने भी उनकी बात काटते हुए कहा-लिस्ट सौंप दी तो कौन-सा बड़ा तीर मार लिया। लिस्ट को उसने बाथरूम पेपर के रूप में इस्तेमाल करफेेंक दिया. सभी जानते हैं कि आप 60 वर्षों से आतंकवाद-आतंकवाद चिल्ला रहे हैं, पर हो क्‌या रहा है-यह पूरा देश नंगी आंखों से देख रहा है. आतंकवादी हमें घर में घुस कर मार रहे हैं और आप अफजल व कसाब जैसों को जेल में पाल -पोस कर बड़ा कर रहे हैं. जहां तक महंगाई दर की बात है तो महंगाई दर तो गिर रही है, पर दाम जस-के-तस हैं. ऐसे में दर कैसे गिर रही है, इसकी तो सीबीआइ जांच करायी जानी चाहिए. मनमोहन सिंह ने छूटते ही कहा-देखो भाई युद्ध-वुद्ध से कुŸछ हासिल नहीं होगा. तुम जिस भाजपा की बोली बोल कर मेरे कानों में शीशा घोल रहे हो, उसी भाजपा से क्‌यों नहीं पूछते हो कि जब संसद पर हमले हुए तो उसने पाकिस्तान से भीड़ कर हिसाब बराबर क्‌यों नहीं कर लिया था. मैंने कहा-किसने क्‌या किया. इससे मुझे मतलैब नहीं है. आप अभी कुर्सी पर हैं, सो आप बतायें कि आप पाकिस्तान का क्‌या करनेवाले हैं. मनमोहन सिंह ने सफाई देनी शुरू कि मैंने गृहमंत्री को बदल दिया क्‌योंकि वे ज्‌यादा कपड़े बदला करते थे. पाकिस्तान को आतंकवादियों की सूची सौंप उसकी हमने पावती रसीद ली है ताकि बाद में हमें कोई यह न कहे कि हमने सूची सौंपी ही नहीं है. इसके अलावा हम पूरे विश्व को बता रहे हैं कि पाकिस्तान गंदा बच्चा है. बताइये यह कम है क्‌या. मनमोहन bole जा रहे थे, पर मुझे लगा कि भाई साहब सब बात करेंगे पर मुद्दे पर नहीं आयेंगे. उनसे विदा लेकर अपने प्रश्न पर सोचता आगे निकल गया।
(यह मेरी अप्रकाशित रचना है जो कुछ कारणों से अखबार या किसी पत्रिका में प्रकाशित नहीं हो सकी).....रोहित

शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

आखिरकार युवराज ने मुंह खोला

रोहित कुमार सिंह

राहुल ने संसद में मुंह खोला तो कांग्रेस की आधिकारिक टिप्पणी देश को मिल गयी. जिस लच्छेदार तरीके सेराहुल ने लोकपाल के मुददे को किनारा करने की कोशिश की, उससे साफ है कि कल प्रधानमंत्री ने देश की संसद में झूठा बयान देकर देश को गुमराह किया था. राहुल का यह कहना कि लोकपाल से भी भ्रष्टाचार नहीं रूकेगा, यह स्पष्ट करता है कि कांग्रेस की समय लेकर बडे से बडे मुददे को रसातल में डालने की नीति खत्म नहीं होनेवाली है.

राहुल का पूरा बयान देखें
लोकपाल बिल के मुद्दे पर कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी ने शुक्रवार को पहली बार अपनी राय सार्वजनिक तौर पर जाहिर की। लोकसभा में शून्‍य काल में इस मुद्दे पर बोलते हुए राहुल ने अन्‍ना के आंदोलन पर निशाना साधा। राहुल ने कहा, भ्रष्टाचार से लड़ना आसान नहीं है। प्रभावी लोकपाल भ्रष्टाचार से निपटने के लिए सिर्फ एक हथियार भर है। सिर्फ इसी कानून से भ्रष्टाचार नहीं मिटेगा। मैं चाहता हूं कि चुनाव आयोग की तरह लोकपाल को संवैधानिक संस्था बनाया जाए। मेरे खयाल से लोकपाल भी भ्रष्ट हो सकता है।मैं चाहता हूं कि भ्रष्टाचार पर बहस का स्तर और ऊपर उठा दिया जाए।'

अन्ना के आंदोलन परकहा कि इस तरह के विरोध प्रदर्शन से खतरनाक परंपरा की शुरुआत होगी जो हमारी संसदीय प्रणाली को कमजोर करेगा। भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए नियम कानून जरूरी हैं। लोकसभा से निकलने के बाद संसद परिसर में जब राहुल गांधी से पूछा गया कि आप इतने दिन इस मुद्दे पर क्यों चुप थे? तो उन्होंने जवाब दिया कि मैं सोच समझकर बोलता हूं।

अगर यह राहुल की सोच -समझ कर कही गयी बात है तो यह अंदाजा लगाने लायक है कि राहुल की सोच का स्तर क्या है. राहुल को यह मानना होगा कि कम से कम कांग्रेस या स्वयं उनका जो स्टैंड है उससे भ्रष्टाचार का बाल भी बांका नहीं होगा.

गुरुवार, 25 अगस्त 2011

एक र्इमानदार पीएम को यह करना चाहिए

रोहित कुमार सिंह

आज, गुरूवार को मैं प्रधानमंत्री को सुन रहा था. वे लोकपाल बनाम जनलोकपाल बिल पर अपना वक्तव्य दे रहे थे. पीएम मनमोहन सिंह शुरू हुए -मैं र्इमानदार हूं. मेरी संपतित की जांच करा ली जाये. मुझे मुरली मनोहर जोशी के भ्रष्टाचार की गंगोत्री बतायेजाने के आरोप से दुख हुआ है. मैंने देश को 20 वर्षों के राजनीतिक जीवन मेंजो भी हुआ , बेहतरी के साथ सेवा की. कुल मिला कर उन्होंने अपनी मजबूरी गिनायी, बेचारगी जतायी. माननीय प्रधानमंत्री जी ने सबकुछ बताया पर यह बताने से परहेज किया कि घोटाले दर घोटाले होते रहे, इस दौरान उनकी क्या भूमिका रही.

क्या पीएम साहब को इस बात से इनकार है कि ए राजा के खिलाफ सरकार तभी कार्रवार्इ के लिए आगे बढी, जब मामला कोर्ट-कचहरी में पहुंच गया. जबकि राजा के खिलाफ आवेदन सबूत के साथ दोवर्षों सेउनके पीएमओमें लावारिस पडा था.

इसमें कोर्इ दो राय नहीं है कि वे र्इमानदार हैंपर एक बात यह भी है कि उन्होंने राजधर्म का पालन नहीं किया. जिस देश में 300 करोड में बननेवाला स्टेडियम 3000 करोड बना, कौडियों के भाव टू जी स्पेक्ट्रम के लाइसेंस बांट कर ए राजा ने करोडों बनाये ,अरबों का आदर्श सोसाइटी घोटाला हुआ, उस देश के प्रधानमंत्री इस्तीफा देकर संसद से बाहर क्यों नहीं है, यह सबसे बडे आश्चर्य की बात है. प्रधानमंत्री ने अपनी सब बातें बतायीं पर प्रधानमंत्री बने रहने की मजबूरी नहीं बतायी. मैं क्या पूरा भारत उसे नंबर वन र्इमानदार मानता है पर ऐसी र्इमानदारी किस काम की, जो देश के लिए किसी काम की नहीं हो. यह एक दिन की बात नहीं है. यूपीए 1 की सरकार में वोट फार नोट कांड हुआ, र्इमानदारी का तकाजा तो यही बनता था कि पीएम मामला आते ही इस्तीफा देकर किनारे हो जाते. क्या प्रधानमंत्री ऐसा करेंगे, अगर पीएम ऐसा करते हैं तो जिस उच्च लोकतांत्रिक की बात हमारे देश में होती है अथवा कांग्रेसी करते हैं वह एक बार फिर स्थापित होगी.

वंदे मातरम, भारत माता की जय

सोमवार, 22 अगस्त 2011

सही में राहुल गांधी कहां हैं

रोहित कुमार सिंह

अन्ना के आंदोलन का आज छठा दिन है. तिहाड जेल से लेकर रामलीला मैदान तक देशभकित नारों की धूम इन दिनों देखने को मिली. इन्हीं नारों में एक सवाल पूछा जा रहा है कि देश का युवा यहां है, राहुल गांधी कहां है. 70 साल के अन्ना हजारे के एक आहवान पर देश का युवा वर्ग सडकों पर है, ऐसे में यह सवाल तो जायज ही है कि स्वयं को युवाओं का कर्णधार बतानेवाले राहुल गांधी कहां हैं. शनिवार को इस युवा राहुल गांधी से प्रेस ने पूछने यह पूछने की कोशिश की कि अन्ना के आंदोलन के बारे में आपकी क्या राय है. इस पर इस कथित युवा तुर्क ने अपने होंठ सिल लिये. ऐसा नहीं है कि राहुल गांधी संकट के पहले मौके पर चुप रहे हैं. इससे पहले भी कर्इ मौके पर वे अपनी चुप्पी दिखा चुके हैं. चाहे कालाधन का मुददा हो या फिर भ्रष्टाचार से निबटने का मामला या फिर लोकतांत्रिक आंदोलन को दबाये जाने का मामला. राहुल ने अपनी चुप्पी से दिखा दिया कि देश की जनता की समस्याओंसे उन्हें कोर्इ मतलब नहीं है.

दरअसल राहुल की राजनीति की इंटर्नशिप चल रही है. वे कभी से राजनेता नहीं हैं. उन्हें गरीबों के घर नाइट हाल्ट करने व उनके नंगे -भूखे बच्चों के साथ फोटो खिांचाने में ही बहादुरी दिखती है. क्या राहुल ने कांग्रेस से पूछने की कोशिश की है कि 60 साल के आजाद भारत में उसने कैसे शासन किया कि देश की यह हालत हो गयी. किसानों की बात करनेवाले राहुल उनके मुददों के साथ मेडिकल इंटर्न स्टूडेंट की तरह ही बिहेव कर रहे हैं. अन्ना का आंदोलन राहुल गांधी के लिए यह मौका है कि वह अंगरेजों की नाजायज औलाद कांग्रेस से पिंड छुडा कर या कहें तो अपना मोह त्याग कर देश की आवाज के कार्यकर्ता बनें व युवाओं के इस आंदोलन से जुडें अगर वे ऐसा करते हैं तो देश की जनता उन्हें माफ कर देगी . क्या राहुल ऐसा कर सकते हैं़?????

रविवार, 21 अगस्त 2011

लोकतंत्र की दुश्मन है कांग्रेस

रोहित कुमार सिंह

सरकार कह रही है कि 30 अगस्त तक लोकपाल बिल पास कराना संभव नहीं है, वहीं टीम अन्ना कह रही है कि अगर सरकार इच्छाशकित दिखाये तो यह संभव है. प्रधानमंत्री भी दुहार्इदे रहे हैं कि लोकतांत्रिक मूल्यों पर आंच नहीं आनी चाहिए. संसदीय मर्यादा का उल्लंधन नहीं होना चाहिए. मेरा सवाल कांग्रेस एंड कंपनी से है कि आपलोग लोकतंत्र के कब से पैरोकार हो गये. ज्यादा पीछे जाने की जरूरत नहीं है. बात तब की है जब सोनिया गांधी को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया जाना था. उन दिनों कांग्रेस गाढेसमय में थी. बेचारे कर्मठता से कांग्रेसी पार्टी को ढो रहे थे. बेआबरू कर उन्हें अध्यक्ष पद से हटा दिया गया. बेचारे इसी शोक में दुनिया से चले गये. 2003 में सत्ता में आने के बाद के कांग्रेस के लोकतांत्रिक चरित्र को देखें. पार्टी में वैसे नेताआों को तरजीह दी गयी जो चुनाव हारने के लिए जाने जाते रहे थे. मनमोहन सिंह का पीएम बनना इसी की एक कडी थी. मंत्रिमंडल में बेजान व बेगैरत लोगों को जगह दी गयी, जो सुप्रीमो की एक आवाज पर कुछ भी कर गुजरने को तैयार थे. पता नहींकांग्रेसी किस मुंह से लोकतांत्रिक मूल्यों की बात करते हैं. लोगों को याद होगा , जब सरकार के जमूरे ने पोर्ट ब्लेयर में सिथत एक स्मारक से वीर सावरकर की पटिटका तक नुचवा दी. किताब बदलो अभियान में देशभक्तों को आतंकवादी तक करार दिया गया. आम आदमी की बात करनेवाली इस पार्टी ने आतंकवाद को धार्मिक आधार पर बैलेंस करने की भी कोशिश की. देश में पहली बार तिरंगा फहराने पर गिरफतारी हुर्इ. याद करें तिरंगा यात्रा. अपने स्वार्थ में इस पार्टी ने बिहार को डेढ दशक तक ऐसे व्यकित के हवाले कर दिया जिसकी डिक्शनरी में विकास व विधि-व्यवस्था नाम की कोर्इ चीज नहीं थी.

कांग्रेस के पास इसका क्या जवाब है

बाबा रामदेव के अनशन स्थल पर ऐसी क्या आफत आ पडी कि दो बजे रात में आंसू गैस के गोलों के बीच लोगों को मारपीट कर खदेड दिया गया.

आतंकवादियों पर अरबों रूपये खर्च कर उन्हें सुरक्षित रखनेवाली केंद सरकार अचानक बाबा रामदेव व उनके सहयोगी पर सत्तू -पानी बांध कर पड गयी.

ए राजा का क्यों बचाव किया गया व प्रधानमंत्री ने उन्हें क्यों क्लीन चिट दी.

कामनवेल्थ घोटाला व व आदर्श सोसाइटी घोटालो में प्रधानमंत्री की हैसियत से उन्होंने क्या कार्रवार्इ की.

अन्ना को अनशन से पहले ही क्यों गिरफतार किया गया.

गुरुवार, 18 अगस्त 2011

वंदे मातरम


रोहित कुमार सिंह
आप वंदे मातरम नारे को जानते हैं. इसी नारे को गा-गाकर देश के दीवानों ने हमें आजादी दिलायी थी. हालांकि आजादी के बाद सांप्रदायिक रंग देकर इसे उपेक्षित कर दिया गया, पर देश पर जैसे ही दूसरे आपातकाल के बादल मंडराने लगे, यह अचूक औजार बन कर सामने आया. पूरा देश वंदे मातरम के नारे व तिरंगे से शकित अर्जित कर रहा है और कांग्रेस की कब्र खोद रहा है. इसके बारे में एक जानकारी यह भी है. सही ही कहा गया है-सच कभी टोकरी के नीचे छिपाया नहीं जा सकता है. सत्य की सदा जीत होती हैऔर जिसका जो हक होता है वह उसे समय आने पर खुद ही मिल जाता है. वंदे मातरम के साथ आज की पीढी सही न्याय कर रही है. देश के तथाकथित बुद्धिजीवियोंको यह मान लेना चाहिए कि वंदे मातरम ही देश की आवाज है, क्रांति की सू़त्रधार है. एक बात यह भी है कि कांग्रेस ने ही उसका उसका हक अपने फायदे के लिए नहीं लेने दिया. उसी कांग्रेस की बात हो रही है जिसके व्याभिचार से त्रस्त होकर देश आज अन्ना हजारे के साथ उसके विरोध में खडा है.

२००३ में बीबीसी वर्ल्ड सर्विस द्वारा आयोजित एक अन्तरराष्ट्रीय सर्वेक्षण , जिसमें अब तक के दस सबसे मशहूर गीतों का चयन करने के लिये दुनिया भर से लगभग ७,००० गीतों को चुना गया था, और बी०बी०सी० के अनुसार, १५५ देशों/द्वीप के लोगों ने इसमें मतदान किया था, वन्दे मातरम् शीर्ष के १० गीतों में दूसरे स्थान पर था।
इस गीत की मूल रचना निम्नलिखित है.

(संस्कृत मूल गीत)

वन्दे मातरम्।
सुजलां सुफलां मलय़जशीतलाम्,
शस्यश्यामलां मातरम्। वन्दे मातरम् ।।१।।

शुभ्रज्योत्स्ना पुलकितयामिनीम्,
फुल्लकुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्,
सुहासिनीं सुमधुरभाषिणीम्,
सुखदां वरदां मातरम् । वन्दे मातरम् ।।२।।

कोटि-कोटि (सप्तकोटि) कण्ठ कल-कल निनाद कराले,
कोटि-कोटि (द्विसप्तकोटि) भुजैर्धृत खरकरवाले,
अबला केनो माँ एतो बॉले (के बॉले माँ तुमि अबले),
बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीम्,
रिपुदलवारिणीं मातरम्। वन्दे मातरम् ।।३।।

तुमि विद्या तुमि धर्म,
तुमि हृदि तुमि मर्म,
त्वं हि प्राणाः शरीरे,
बाहुते तुमि माँ शक्ति,
हृदय़े तुमि माँ भक्ति,
तोमारेई प्रतिमा गड़ि मन्दिरे-मन्दिरे। वन्दे मातरम् ।।४।।

त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी,
कमला कमलदलविहारिणी,
वाणी विद्यादायिनी, नमामि त्वाम्,
नमामि कमलां अमलां अतुलाम्,
सुजलां सुफलां मातरम्। वन्दे मातरम् ।।५।।

श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषिताम्,
धरणीं भरणीं मातरम्। वन्दे मातरम् ।।६।।>

यह भी जानें.

स्वाधीनता संग्राम में निर्णायक भागीदारी के बावजूद जब राष्ट्र-गान के चयन की बात आयी तो

वंदे मातरम

के स्थान पर सन् १९११ में इंग्लैण्ड से भारत आये जार्ज पंचम् की प्रशस्ति में रवीन्द्र नाथ ठाकुर द्वारा लिखे व गाये गये गीत जण-गण-मण अधिनायक जय हे को वरीयता दी गयी। इसकी वजह यही थी कि कुछ मुसलमानों को ‘वन्दे मातरम्’ गाने पर आपत्ति थी, क्योंकि इस गाने में देवी दुर्गा को राष्ट्र के रूप में देखा गया है। इसके अलावा उनका यह भी मानना था कि यह गीत जिस ‘आनन्द मठ’ उपन्यास से लिया गया है वह मुसलमानों के खिलाफ लिखा गया है। इन आपत्तियों के मद्देनजर सन् १९३७ में कांग्रेस ने इस विवाद पर गहरा चिन्तन किया। जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में गठित समिति जिसमें मौलाना अब्दुल कलाम आजाद भी शामिल थे, ने पाया कि इस गीत के शुरूआती दो पद तो मातृभूमि की प्रशंसा में कहे गए हैं, लेकिन बाद के पदों में हिन्दू देवी-देवताओं का जिक्र होने लगता है; इसलिये यह निर्णय लिया गया कि इस गीत के शुरुआती दो पदों को ही राष्ट्र-गीत के रूप में प्रयुक्त किया जायेगा। इस तरह गुरुदेव रवीन्द्र नाथ ठाकुर के जन-गण-मन अधिनायक जय हे को यथावत राष्ट्रगान ही रहने दिया गया और मोहम्मद अल्लामा इकबाल के कौमी तराने सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा के साथ बंकिम चन्द्र चटर्जी द्वारा रचित प्रारम्भिक दो पदों का गीत वन्दे मातरम् राष्ट्रगीत स्वीकृत हुआ।


भारत माता की जय. वंदे मातरम

बुधवार, 17 अगस्त 2011

यह सरकार और तीन साल नहीं...


नीरेंद्र नागर
आज सुबह वही हुआ जिसका कल से अंदेशा था। सरकार ने अन्ना हजारे को जेपी पार्क में अनशन करने की इजाज़त नहीं दी। आज जेपी यानी जयप्रकाश नारायण ज़िंदा होते तो व्यथित होकर यही कहते – कांग्रेस पार्टी 36 साल में भी नहीं बदली।

तब इंदिरा गांधी सत्ता में थीं, आज सोनिया गांधी हैं। इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं और सोनिया गांधी प्रधानमंत्री की बॉस हैं यानी सुपर प्रधानमंत्री। आप और हम पीएम का मतलब प्राइम मिनिस्टर समझते हैं। लेकिन सोनिया गांधी के लिए पीएम का मतलब है पर्सनल मैनेजर। पुराने ज़माने में होता था कि जब तक बाबा बड़ा न हो जाए तब तक राजपाट की हिफाज़त एक वफादार नौकर करता था। अब भी कोशिश यही है कि बाबा राहुल गांधी के बाल थोड़े पक जाएं और वह वोटरों के सामने अगले प्रधानमंत्री के तौर पर पेश किए जाने लायक हो जाएं, तब तक मनमोहन सिंह पीएम पद पर बने रहें।

आज अन्ना हज़ारे के अनशन के दिन मैं यह मनमोहन पुराण लेकर क्यों बैठा हूं? इसलिए कि मन में बहुत गुस्सा है। पहले भी कई दफे इस तरह गुस्सा आया था। 1975 में जब इमर्जेंसी लगाकर सारे देश को बंदी बना दिया गया था, 1984 में जब आंध्र प्रदेश में एन. टी. रामाराव की बहुमत वाली सरकार को बर्खास्त कर दिया गया था, फिर उसी साल जब इंदिरा गांधी के हत्या के बाद सिखों को चुन-चुनकर मारा गया था, 1992 में जब सुप्रीम कोर्ट के आदेश को ठेंगा दिखाते हुए बाबरी मस्जिद गिरा दी गई थी, 2002 में जब गुजरात के गोधरा स्टेशन में ट्रेन जलाई गई और उसके बाद राज्य सरकार की देखरेख में हज़ारों लोग दंगों में मारे गए थे।

आज फिर गुस्सा आ रहा है। गुस्सा मनमोहन सिंह पर नहीं है। (कठपुतली पर गुस्सा करके क्या कर लोगे!) गुस्सा मुझे पूरी कांग्रेस पार्टी पर आ रहा है जिसने तय कर रखा है कि वह करप्ट लोगों को फटाफट सज़ा दिलवानेवाला लोकपाल बिल कभी नहीं लाएगी। उसकी पूरी कोशिश है कि एक ढीलाढाला-सा बिल आ जाए जिसमें न प्रधानमंत्री फंसें न सांसद और न ही निचले स्तर के सरकारी कर्मचारी। इस पिलपिले बिल को लाने से उसकी मंशा साफ हो जाती है और आज अन्ना हजारे को अनशन से पहले गिरफ्तार करने से भी स्पष्ट हो जाता है कि कांग्रेसियों की वफादारी किसके साथ है – भ्रष्टाचारियों के साथ।

कांग्रेस भ्रष्टाचारियों के साथ और जनता अन्ना हज़ारे के साथ। सबको नज़र आ रहा है लेकिन कांग्रेस को नहीं दिख रहा है। उसके नेता चिदंबरम, कपिल सिब्बल और अंबिका सोनी ने आज एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में इस सारे मामले को ऐसा रूप देने की कोशिश की कि यह बस एक आदमी की ज़िद है जो कह रहा है कि मेरा वाला बिल पास करो वरना मैं अनशन करता हूं। मेरी समझ में यह मामले को उलझाने की बहुत बड़ी चाल है। आखिर अन्ना किसी बात की जिद कर रहे हैं? क्या वह जिस बिल की मांग कर रहे हैं, उससे उनको कोई राजगद्दी मिल जाएगी? अगर अन्ना के बिल में कोई कमी है तो आज तक सरकार के किसी भी मंत्री ने क्यों नहीं कहा कि इस बिल में यह कमी है। और जब कमी नहीं है तो उसको पास करने में क्या दिक्कत है?

ऐसा नहीं कि सरकार और कांग्रेस पार्टी को आज करप्शन के खिलाफ उमड़ा जनाक्रोश नहीं दिख रहा। उन्हें सब दिख रहा है लेकिन उनको यह भी पता है कि चुनाव अभी तीन साल दूर हैं। लेकिन जैसा कि लोहिया ने कहा था – ज़िंदा कौमें पांच साल तक इंतज़ार नहीं करतीं।

आज के दिन मेरे मन में यही विचार आ रहा है – यह सरकार और तीन साल नहीं चलनी चाहिए। यह दादागीरी और तीन साल नहीं चलनी चाहिए। यह तानाशाही और नहीं चलनी चाहिए.

नहीं बदल सकता है कांग्रेस का चरित्र

रोहित कुमार सिंह

अन्ना हजारे को अनशन करने से पहले गिरफतार कर कांग्रेस ने दिखा दिया है कि लोकतंत्र उसके लिए पैर की चप्पल से ज्यादा कुछ भी नहीं है. जिस तरह का बरताव उनके 100 प्रतिशत शुद्ध लोकतांत्रिक आंदोलन के साथ हुआ वह यह बताने के लिए काफी है कि कांग्रेस का चाल,चरित्र व चिंतन कभी नहीं बदल सकता है. इसका इमरजेंसीवाला चेहरा कभी नहीं बदल सकता है. इसके चरित्र की तुलना किसी बदनाम गली की वेश्या से की जा सकती है. हद तो यह है कि बेशर्मी से लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री कानून की दुहार्इ दे रहे है. जनाब कह रहे हैं कि कुछ भी पूर्वाग्रह से नहीं हो रहा है, कानून अपना काम कर रहा है लेकिन देखने की बात यह है कि कानून कैसा काम कर रहा है. ए राजा, कामनवेल्थ घोटाला , शीला दीक्षित प्रकरण में देखा जा चुका है कि मनमोहन का कानून कैसा काम करता है. कांग्रेस क्या है, इसकी एक और नजीर देखें, भटठा पसरौल में धारा 144 का उल्लंघन करनेवाले किसानों पर जब पुलिस ने लाठीचार्ज किया तो राहुल गांधी ने स्वयं को भारतीय कहे जाने पर शर्म आने की बात कही थी, वहीं आज दिल्ली में जब अन्ना हजारे की गिरफतारी होती है , जहां संयोग से धारा 144 का उल्लंघन भी नहीं होता है तो राहुल गांधी शर्म में डूब कर मरने के बजाय मौन धारण कर महान बनने की कोशिश करने लगते हैं. अगर कांग्रेस सोचती है कि वह फिर से देश में इमरजेंसी लागू कर देगी तो वह भ्रम में है.

बुधवार, 27 जुलाई 2011

पाकिस्तान क हिना "बम'



भारत से आज तक वार्ता के नाम पर पाकिस्तान ने क्‌या किया है, बताने क जरूरत नहीं है. अब हिना क भेजा है, जो वार्ता कम दूसरी वजह से ज्‌यादा चर्चा में है. नेताओं क प्रतिक्रिया से ..... है कि वे कश्मीर.....

शनिवार, 9 जुलाई 2011

राहुल गांधी की किसान महापंचायत-1

रोहित कुमार सिंह
राहुल गांधी ने यूपी में तीन दिनों तक पदयात्रा की. किसानों से मिले, उनकी समस्याएं सुनीं, उनके सवालों पर गौर फरमाया-इन उपक्रमों के बाद कहा, हम आपके साथ हैं. चौथे दिन किसान महापंचायत बुलायी जाती है, चार मंच बनाये जाते हैं, जनाब किसानों से मुखातिब होते हैं. तरह-तरह के आश्वासन दिये जाते हैं. मीडिया कहती है कि "" आजादी के 60 वर्षों में पहली बार किसी नेता ने शिद्दत के साथ किसानों के लिए सोची है, लकिन वह (मीडिया) इस बात को नहीं बताती है कि इन 60 वर्षों में 45 साल से भी ज्‌यादा इसी कांग्रेस का राज रहा है. यह तो है कि किसानों की सोची जा रही है, पर उसका मकसद किसान कतई नहीं हैं. राहुल को मंच पर जब किसान हल भेंट करते हैं तो वह इशारों से पूछते हैं-इसे पकड़ा कैसे जाता है. यानी इतिहास-भूगोल जाने बिना किसानों का उद्धार किये जाने की तैयारी है. इस हल प्रकरण ने बिहार में 70-80 के दशक में घटित घटना की याद दिला दी. तब हुआ यों था कि एक बड़े नेता (अब दिवंगत हो चुके हैं और देश के प्रधानमंत्री भी रह चुके हैं) बिहार के दौरे पर आये. किसानों से मिलने उनके खेतों में गये. मिर्च की फसल का समय था. वहां उन्होंने हरी व लाल मिर्च देखी. पूछा इसमें महंगी कौन है. किसानों ने कहा-लाल मिर्च. इस पर महोदय का जवाब था-तब आप केवल लाल मिर्च की ही खेती क्‌यों नहीं करते हैं. कहने का मतलब कि कांग्रेस से किसी भी तरह की बेहतरी की उम्मीद करना अलकायदा का जेहाद न करने जैसा ही है. इस महापंचायत के बहाने एक और चीज हुई. पूरे उत्तर प्रदेश के सांसदों व दिग्गज नेताओं को एक साथ लया गया व अगले साल होनेवाले विधानसभा चुनाव के लिए अनौपचारिक अभियान की शुरुआत कर दी गयी. सो यह कहना कि पूरी कवायद किसानों के लिए है, आशाओं के अंधेरे कुएं में कूदने जैसा ही है. यह पूरी तरह से युवराज वाया कांग्रेस की राजनीतिक वासना है.
(दूसरी किस्त में कल पढ़ें -देश के किसानों का हाल व यूपीए का रवैया)

मंगलवार, 28 जून 2011

सोनिया गांधी की यात्रा का खर्च 1850 करोड़

इतना खर्चा तो प्रधानमंत्री का भी नहीं है : पिछले तीन साल में सोनिया की सरकारी ऐश का सुबूत, सोनिया गाँधी के उपर सरकार ने पिछले तीन साल में जीतनी रकम उनकी निजी बिदेश यात्राओ पर की है उतना खर्च तो प्रधानमंत्री ने भी नहीं किया है ..एक सुचना के अनुसार पिछले तीन साल में सरकार ने करीब एक हज़ार आठ सौ अस्सी करोड रूपये सोनिया के विदेश दौरे के उपर खर्च किये है ..कैग ने इस पर आपति भी जताई तो दो अधिकारियो का तबादला कर दिया गया ।अब इस पर एक पत्रकार रमेश वर्मा ने सरकार से आर टी आई के तहत निम्न जानकारी मांगी है : सोनिया के उपर पिछले तीन साल में कुल कितने रूपये सरकार ने उनकी विदेश यात्रा के लिए खर्च की है ?क्या ये यात्राये सरकारी थी ?अगर सरकारी थी तो फिर उन यात्राओ से इस देश को क्या फायदा हुआ ?भारत के संबिधान में सोनिया की हैसियत एक सांसद की है तो फिर उनको प्रोटोकॉल में एक राष्ट्रअध्यछ का दर्जा कैसे मिला है ?सोनिया गाँधी आठ बार अपनी बीमार माँ को देखने न्यूयॉर्क के एक अस्पताल में गयी जो की उनकी एक निजी यात्रा थी फिर हर बार हिल्टन होटल में चार महगे सुइट भारतीय दूतावास ने क्यों सरकारी पैसे से बुक करवाए ?इस देश के प्रोटोकॉल के अनुसार सिर्फ प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति ही विशेष विमान से अपने लाव लश्कर के साथ विदेश यात्रा कर सकते है तो फिर एक सांसद को विशेष सरकारी विमान लेकर विदेश यात्रा की अनुमति क्यों दी गयी ?सोनिया गाँधी ने पिछले तीन साल में कितनी बार इटली और वेटिकेन की यात्राये की है ?मित्रों कई बार कोशिश करने के बावजूद भी जब सरकार की ओर से कोई जबाब नहीं मिला तो थक हारकर केंद्रीय सुचना आयोग में अपील करनी पड़ी. केन्द्रीय सूचना आयोग प्रधानमंत्री और उनके कार्यालय के गलत रवैये से हैरान हो गया .और उसने प्रधानमंत्री के उपर बहुत ही सख्त टिप्पडी की केन्द्रीय सूचना आयोग ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के विदेशी दौरों पर उस पर खर्च हुए पैसे को सार्वजनिक करने को कहा है। सीआईसी ने प्रधानमंत्री कार्यालय को इसके निर्देश भी दिए हैं। हिसार के एक आरटीआई कार्यकर्ता रमेश वर्मा ने प्रधानमंत्री कार्यालय से सोनिया गांधी के विदेशी दौरों, उन पर खर्च, विदेशी दौरों के मकसद और दौरों से हुए फायदे के बारे में जानकारी मांगी है।26 फरवरी 2010 को प्रधानमंत्री कार्यालय को वर्मा की याचिका मिली, जिसे पीएमओ ने 16 मार्च 2010 को विदेश मंत्रालय को भेज दिया। 26 मार्च 2010 को विदेश मंत्रालय ने याचिका को संसदीय कार्य मंत्रालय के पास भेज दिया। प्रधानमंत्री कार्यालय के इस ढ़ीले रवैए पर नाराजगी जताते हुए मुख्य सूचना आयुक्त सत्येन्द्र मिश्रा ने निर्देश दिया कि भविष्य में याचिका की संबंधित मंत्रालय ही भेजा जाए। वर्मा ने पीएमओ के सीपीआईओ को याचिका दी थी। सीपीआईओ को यह याचिका संबंधित मंत्रालय को भेजनी चाहिए थी।आखिर सोनिया की विदेश यात्राओ में वो कौन सा राज छुपा है जो इस देश के " संत " प्रधानमंत्री इस देश की जनता को बताना नहीं चाहते ? !
यूथ अगेंस्ट कŸरप्‌शन के मेल पर आधारित जानकारी । अपनी टिपण्णी निचे के मेल पर भी भेजे ।
info@youthagainstcorruption.net

सोमवार, 13 जून 2011

इन सवालो के जवाब दें

1. क्‌या कांग्रेस को देश पर राज करने का हक रह गया है
२। आज चुनाव हुए तो कांग्रेस को आप वोट देना चाहेंगे ।३। अगर मनमोहन ईमानदार हैं, सोनिया ईमानदार हैं, राहु ल ईमानदार हैं तो बेईमान कौन है।4। कांग्रेस नीत यूपीए सरकार के मंत्री एक-एक कर जेल जा रहे हैं। ऐसे में सरकार पर विश्वास करना चाहिए।5. कांग्रेस व भाजपा में भरोसेमंद कौन है।इन सवालो के जवाब देश को चाहिए. क्‌या पाठक इन सवालो का उत्तर देकर देश का मूड बताने की कृपा करेंगे. आपके उत्तर का इंतजार है.

रविवार, 12 जून 2011

बाबा रामदेव मामले में बुद्धिजीवियों से सवाल

रोहित कुमार सिंह
भारत में एक बात है जो सदियों से इसका पीछा नहीं छोड़ रही है। आप निर्जीव पड़े रहें, आपके सामने दुनिया के कुकर्म होते रहें और आप कुछ न करें तो कोई आपसे यह पूछने नहीं आयेगा कि आपने ऐसा क्‌यों किया, लेकिन जैसे ही आप मुख्‌यधारा में आकर समाज के लिए कुछ बेहतर करने की सोचेंगे तो लोग आलोचनाओं की तलवार लेकर पीछे पड़ जायेंगे. यह क्‌यों किया, यह आपको नहीं करना चाहिए था आदि-आदि. हद तो यह है कि इसमें कांग्रेस व इसकी पिछलग्गू पार्टियों के साथ इसके पोसे-पाले पत्रकार तक शामिल हो जाते हैं. ताजा उदाहरण बाबा रामदेव का है. बाबा ने नौवें दिन अपना अनशन तोड़ दिया. उनका अनशन काला धन वापस लेन व भ्रïटाचार के विरोध में था. देश के स्व कथित बुद्धिजीवी संविधान द्वारा दिये गये वाक स्वतंत्रता के अधिकार का दुरुपयोग करते हुए बाबा से पूछ रहे हैं-आप आंदोलन छोड़ कर भागे क्‌यों.-आपने महिलाओं ने कपड़े पहन कर पुलिस से अपनी जान क्‌यों बचायी.-अनशन क्‌यों तोड़ा. ऐसे सवाल करनेवालो से एक सवाल -क्‌या आपको ऐसे सवाल पूछने का नैतिक हक है. बाबा रामदेव तो नौ दिनों तक अनशन पर रहे पर एसी कमरों में बैठ कर पांच टाइम नाश्ता-भोजन करनेवाले अन्न के दुश्मन ऐसे पाखंडी बुद्धिजीवियों ने देश के लिए क्‌या किया है. क्‌या उन्होंने देश के लिए पांच मिनट का भी समय दिया है. खुद पांच मिनट समय नहीं दे सकते और दूसरों से उम्मीद करते हैं कि वह उनकी ज्ञान वासना के लिए शहीद हो जाये. यह कौन-सी बात हुई. वर्तमान में काला धन व भ्रटाचार के मुद्दे पर प्रधानमंत्री कह चुके हैं कि उनसे कुछ भी नहीं होनेवाला है (संक्षेप में समझें की सोनिया की कांग्रेस कंपनी उन्हें कुछ करने नहीं देगी.) ऐसे में बाबा अगर काला धन व भ्रटाचार के मामले में कोई आंदोलन या विचार देश तक पहुंचाना चाहते हैं तो उनकी प्रशंसा होनी चाहिए या आलोचना. देश में इन दोनों मसलो का हाल पत्रकारिता जगत के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर सुरेंद्र किशोर ने प्रभात खबर के 30 मई, 2011 के अंक अपने कॉलम कानोंकान में लिखा है-(आज इस देश मे¨ कितना कड़ा लोकपाल विधेयक बनाने की जरूरत है, यह बात इसी से साबित होती है कि टू जी स्पेक्‌ट­म घोटाले मे¨ ए राजा तभी जेल जा सके, जब सुप्रीम कोर्ट ने उन्हे¨ ऐसा करने के लिए बाध्य कर दिया. ए राजा के खिलाफ डॉ सुब्रहमण्यम स्वामी का शिकायत पत्र उससे पहले दो साल तक प्रधानम¨त्री सचिवालय मे¨ पड़ा रहा था.)ऐसी सरकार से क्‌या यह उम्मीद की जा सकती है कि वह देश के लिए बेहतर सोचेगी. कांग्रेस में बड़ी-बड़ी चर्चा होती है-इंटर्नशिप कर रहे युवराज सबकुछ ठीक कर देंगे. लोग पूछ रहे हैं-इस संजीदा मामले में वे कहां हैं. कहां है उनका देश के प्रति जज्‌बा. बाबा व अन्ना हजारे के आंदोल नों ने एक बात तो की है-देश जाग गया है और इसका रिजल्‌ट आनेवाले समय में दिखेगा.

गुरुवार, 9 जून 2011

कांग्रेस का असली चेहरा




रामलीला मैदान की कार्रवाई को केंद्र के दमनकारी रवैये की बानगी मान रहे हैं ए. सूर्यप्रकाश



कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार यदि यह सोच रही है कि रामलीला मैदान से बाबा रामदेव और उनके समर्थकों को आधी रात गद्दाफी की शैली में बलपूर्वक बाहर निकाल देने से वह देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता के आंदोलन को कुचल देगी तो यह उसकी भारी भूल है। आपातकाल के दिनों की याद दिलाने वाली केंद्र सरकार की यह कार्रवाई केवल यही प्रदर्शित करती है कि कांग्रेस पार्टी के भीतर कुछ नहीं बदला है। यह अभी भी एक परिवार विशेष के स्वामित्व वाली प्राइवेट कंपनी की तरह चलाई जा रही है, जिसके प्रमोटरों में न केवल फासीवादी प्रवृत्तियां विद्यमान हैं, बल्कि वे भ्रष्टाचार के आरोपों को तनिक भी सहन नहीं कर पाते। राजधानी के रामलीला मैदान में बाबा रामदेव और उनके समर्थकों को बलपूर्वक निकालने के अलावा कांग्रेस ने योग गुरु के खिलाफ विषवमन का अभियान भी छेड़ दिया है। उन्हें ठग, धोखेबाज जैसी संज्ञाएं दी जा रही हैं और उनके ट्रस्ट के हिसाब-किताब पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। इस सबमें कुछ भी नया नहीं है। ठीक यही हथकंडे अन्ना हजारे और उनकी टीम के खिलाफ भी अपनाए गए थे, जब उन्होंने सख्त लोकपाल बिल के लिए जंतर-मंतर पर अनशन किया था। अब ऐसा ही अभियान कहीं अधिक भद्दे रूप में रामदेव के खिलाफ छेड़ दिया गया है। कांग्रेस का रामदेव के खिलाफ छेड़ा गया दुष्प्रचार किसी काम नहीं आने वाला, क्योंकि यह समय बाबा रामदेव की संपत्तियों की जांच का नहीं है, बल्कि यह जांच करने का है कि काले धन का Fोत क्या है और क्यों मनमोहन सिंह सरकार विदेशी बैंकों में अवैध तरीके से धन जमा कराने वाले लोगों के खिलाफ कार्रवाई नहीं करना चाहती है? नि:संदेह संप्रग सरकार रामदेव के आंदोलन से हिल गई है, क्योंकि उन्होंने भ्रष्टाचार की जड़ पर प्रहार किया है। अन्ना हजारे के आंदोलन का उद्देश्य अपेक्षाकृत सीमित था। उनकी टीम केवल सशक्त लोकपाल संस्था के गठन पर जोर दे रही थी। उच्च पदस्थ लोगों के भ्रष्ट आचरण की निगरानी के लिए लोकपाल संस्था का गठन भ्रष्टाचार के खिलाफ व्यापक लड़ाई का एक हिस्सा भर है। चूंकि भ्रष्टाचार कई सिर वाले एक दैत्य के समान है जिसने राजनीति, शासन और सामान्य जीवन के विभिन्न पहलुओं पर दुष्प्रभाव डाला है इसलिए यह आवश्यक है कि एक व्यापक एजेंडे के साथ भ्रष्टाचार का सामना किया जाए। उदाहरण के लिए धन शक्ति ने निर्वाचन प्रक्रिया को बुरी तरह प्रभावित किया है। विधानसभा और लोकसभा के चुनावों में किए जाने वाले खर्च ने कुल मिलाकर खर्च की सीमा के निर्वाचन आयोग के प्रावधानों का उपहास ही उड़ाया है। अब काफी समय बाद निर्वाचन आयोग ने लोकसभा और विधानसभा चुनाव के लिए खर्च की सीमा को बढ़ाकर क्रमश: 40 और 16 लाख कर दिया है, लेकिन जो लोग भारतीय राजनीति से परिचित हैं वे जानते हैं कि औसत खर्च इससे कहीं अधिक 3 से 5 करोड़ के आसपास है। यह सारा खर्च काले धन के जरिए किया जाता है। इसमें से कुछ तो देश में ही कमाया जाता है और कुछ स्विट्जरलैंड सरीखे टैक्स चोरी के गढ़ से मंगाया जाता है। लिहाजा स्पष्ट है कि भ्रष्टाचार विरोधी किसी भी मुहिम की शुरुआत काले धन की समस्या से निपटने के साथ होनी चाहिए। हमें इस ससस्या को ऊंची प्राथमिकता देने की जरूरत है। भ्रष्टाचार का दूसरा महत्वपूर्ण Fोत है सरकारी सौदे। यह किसी से छिपा नहीं कि सरकार चलाने वाले लोगों और सत्ताधारी दल से जुड़े लोगों को प्रत्येक सरकारी सौदे में दलाली मिलती है। आजादी के बाद शुरुआती दशकों में रिश्वत, दलाली और कमीशन का भुगतान रुपये में किया जाता है, लेकिन इंदिरा गांधी के 1980 में सत्ता में वापस आने के बाद कांग्रेस पार्टी ने अंतरराष्ट्रीय सौदों में दलाली की रकम को चंदे के रूप में स्विट्जरलैंड सरीखे स्थानों में जमा कराने का नया रास्ता खोज लिया। प्रधानमंत्री के रूप में राजीव गांधी के कार्यकाल में कैबिनेट सचिव का पद संभालने वाले बीजी देशमुख सरीखे वरिष्ठ नौकरशाह ने बताया है कि 1980 के बाद से कांग्रेस पार्टी को भारतीय उद्योगपतियों-व्यवसायियों की तुलना में अंतरराष्ट्रीय सौदों में विदेशी कंपनियों से कमीशन लेना अधिक सुविधाजनक लगा। ऐसा करने से कांग्रेस को अपने देश में किसी उद्योगपति अथवा व्यवसायी को लाभान्वित करने के आरोपों से बचने की सहूलियत मिली। इससे कांग्रेस देश में भ्रष्टाचार की चर्चा के आरोपों से भी बच गई। कांग्रेस की यह शानदार योजना हालांकि तब तार-तार हो गई जब स्वीडन के ऑडिट ब्यूरो ने खबर दी कि हथियार निर्माता कंपनी बोफोर्स ने 1986 में भारत को तोप बेचने के सौदे में कुछ लोगों को दलाली दी थी। इस खुलासे से कांग्रेस न केवल शर्मसार हुई, बल्कि उसे चुनावों में पराजय भी झेलनी पड़ी, लेकिन इसके बावजूद कांग्रेस के रवैये में कोई परिवर्तन नहीं आया है। यही कारण है कि वह विदेशी बैंकों में काला धन जमा कराने वाले लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए तनिक भी तैयार नहीं। काले धन के मसले पर जब उच्चतम न्यायालय का दबाव बहुत बढ़ गया तो केंद्र सरकार ने बड़ी चतुराई से एक उच्च अधिकार प्राप्त समिति बना दी। समिति के संदर्भ में कहा गया है कि यह समस्या का परीक्षण करेगी और काले धन को वापस लाने की कार्ययोजना के संदर्भ में अपने सुझाव देगी। सरकार ने ऐसा ही झुनझुना बाबा रामदेव को भी थमाने की कोशिश की थी। उसने काले धन को वापस लाने के लिए कानून का मसौदा तैयार करने के लिए एक समिति बनाने का प्रस्ताव दिया था। इस समिति के गठन का प्रस्ताव करने के बाद सरकार ने दावा किया कि उसने बाबा रामदेव की सभी मांगें पूरी कर दी हैं और अब उन्हें अनशन समाप्त कर देना चाहिए। जब योग गुरु ने ऐसा करने से मना कर दिया तो केंद्र सरकार अत्यंत निर्ममता से बाबा रामदेव और उनके समर्थकों पर टूट पड़ी। ठीक यही इंदिरा गांधी ने जयप्रकाश नारायण के अभियान के खिलाफ 36 वर्ष पहले किया था। आपातकाल लगाने के पहले की परिस्थितियों और आज के हालात में अनेक समानताएं हैं। जेपी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ अपना आंदोलन एक राज्य से शुरू किया था। बाद में इसने व्यापक रूप लिया। तब भी सरकार ने उसे कुचलने की कोशिश की थी। रामलीला मैदान की कार्रवाई से यह साबित हो गया कि मनमोहन सिंह सरकार भी उसी राह पर है। संयोग यह भी है कि इंदिरा गांधी ने आपातकाल रामलीला मैदान में ही विपक्ष की विशाल रैली के बाद लगाया था और तब भी जून का ही महीना था। साफ है, चीजें चाहे जितनी बदल जाएं, कांग्रेस का रवैया नहीं बदलता है। जिन्हें भी लोकतंत्र की चिंता है उन्हें मनमोहन सिंह सरकार की कार्रवाई से सचेत हो जाना चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

यह लेख दैनिक जागरण के नौ जून २०११ के अंक से साभार लिया गया है।

रविवार, 5 जून 2011

बाबा रामदेव प्रकरण से उठते सवाल

रोहित कुमार सिंह
बाबा रामदेव को रामलीला मैदान से हटा कर केद्र की कांग्रेस सरकार ने अपनी मानसिकता व मंशा स्पस्त कर दी है। अन्ना हजारे को लोली पॉप दिखा कर आंदोलन के रास्ते से हटाने के बाद कांग्रेस को महसूस हुआ कि बाबा रामदेव का आंदोलन ज्‌यादा सशक्त है, सो उसने अपनी रंगत दिखा दी. इधर, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ईमानदार बता कर उनकी शान में कसीदे पढ़ रहे बाबा रामदेव को भी “दिव्‌य ज्ञान‘ की प्राप्ति हो गयी कि कांग्रेस, कांग्रेस क्‌यों है. अब बाबा कह रहे हैं कि उन्हें जान से मारने की साजिश थी. दरअसल , 60 से अधिक वर्षों से सत्ता का सुख भोग रहे नेहरू परिवार को आंदोलन को कुचलने व भ्रटाचार को बढ़ाने की आदत-सी पड़ गयी है. (वर्तमान में नेहरू की तीसरी पीढ़ी की सोनिया गांधी-मूल नाम सोनिया माइनो के हाथों में इस सरकार की कमान है). इस मुद्दे पर कुछ लिखने अथवा विशलेषण से पहले देख ले कि बाबा की मुख्‌य मांगें क्‌या थीं।
काला धन को देश की संपत्ति घोषित किया जाये।
विदेशों में जमा बेहिसाब काला धन वापस लाया जाये।
ऐसे लोगों के लिए मृत्युदंड की सजा हो।
लोगों को उनकी भाषा में पढ़ाया जाये ।
उनकी मांगों पर सरकार (कांग्रेस) ने क्‌या किया।
सब मांगों में हां-में-हां मिलायी।
आश्वासन-पर-आश्वासन दिया पर कब तक क्‌या करेंगे, बताने से परहेज किया।
रात के 2.30 बजे घुसपैठियों की भांति शिविर पर हमला कर बाबा को भक्तों सहित वहां से हटा दिया. यह सब तब हुआ, जब देश गहरी निद्रा में सो रहा था।
सोनिया-मनमोहन ने यह नहीं बताया कि दिन के उजाले में यह सब क्‌यों नहीं हुआ.अब जरा कांग्रेस का चरित्र व चिंतन देखें : टू जी स्पेक्‌ट­म, कॉमनवेल्‌थ, आदर्श सोसाइटी, सांसद रिश्वत कांड सहित घोटालो की सीरीज चला कर देश का खरबों रुपये लूटने के बाद भी इसके नेता शान से कहते हैं कि हमारे प्रधानमंत्री मिस्टर क्लीन हैं. सूप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद इसके मंत्री गिरफ्‌तार हो रहे हैं. प्रधानमंत्री चुनावों के पहले तो कहते हैं कि हम काला धन वापस लायेंगे-ऐसे लोगो के नाम उजागर करेंगे, लेकिन जीतने के बाद सुर बदलते देर नहीं लगती-अब इन महोदय का कहना है कि यह संभव नहीं है. असल में वे कुछ कहने की स्थिति में ही नहीं हैं. देश में सबसे अधिक समय तक कांग्रेस का राज रहा है. देश में जीप घोटाले (यह नेहरू के राज में हुआ था और भारत का यह पहला घोटाला माना जाता है) से अब तक हुए घोटालो में कांग्रेस या इसके सहयोगियों की ही भूमिका रही है. ऐसे में उनसे उनके भाई-बंधुओं का नाम उजागर होने से रहा. कुल मिला कर मामला यही है कि जनता के हित की शपथ लेकर चोर-उचक्‌कों की चौकीदारी की जा रही है. फिर भी इस देश की मीडिया को पता नहीं किस चश्मे से मनमोहन सिंह मिस्टर क्लीन दिखते हैं. इससे शर्मनाक क्‌या हो सकता है कि देश की जनता त्राहि-त्राहि कर रही है और कांग्रेस महंगाई को कोई मुद्दा ही नहीं मान रही है. तिस पर से पेटोल की कीमतें सुरसा की तरह बढ़ती जा रही है. अनाज के बिना जनता दुबली हो रही है, अनाज में सट्टा-जुआ हो रहा है, महंगाई के कारण जीना मुहाल हो गया है, 10 प्रतिशत लोग पूरी अर्थव्‌यवस्था को बंदर की माफिक नचा रहे हैं और कांग्रेस “...हो रहा भारत निर्माण‘ के गीत गा रही है. भाजपा तो लगता है कि मुख्‌य विपक्षी पार्टी बन कर अपने आदर्शों तक को दफना चुकी है, देश बरबादी के कगार पर है और उसके नेता घरों व मीडिया कांफ्रेंस रूम की शोभा बढ़ा रहे हैं. कभी सड़कों पर आंदोलन कर अपनी पहचान बनानेवाली भाजपा आज सड़क से संसद तक गायब है. देश में उसके रहने व न रहने का कोई मतलब ही नहीं रह गया है. यह सही है कि अन्ना हजारे व बाबा रामदेव के आंदोलनों को जनता का पूरा समर्थन मिल रहा है, पर यह भी सही है कि अंगरेजों की बनायी व्‌यवस्था में उनके आंदोलन देर-सबेर दम तोड़ देंगे क्‌योंकि यहां की राजनीति कांग्रेस ने काफी गंदी कर दी है. अंतिम विकल्‌प यही है कि नेपथ्य से राजनीति को दिशा देनेवाले ये दोनों नेता मुख्‌यधारा में आयें व देश की बागडोर संभाले । देश इसका बेसब्री से इंतजार कर रहा है. ...... क्‌या उन तक एक अरब 20 करोड़ लोगों की आवाज पहुंच रही है.

सोमवार, 18 अप्रैल 2011

भरोसेमंद नेतृत्व की तलाश

राजनीति में अन्ना हजारे सरीखे विश्वसनीय नेतृत्व की जरूरत महसूस कर रहे हैं डॉ. विजय अग्रवाल यदि हम राजनीति का अन्ना हजारे तलाशें तो निगाह किसकी तरफ उठेगी? यहां अन्ना हजारे का मतलब है भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम छेड़ने वाला ऐसा राष्ट्रीय व्यक्तित्व, जिसका अपना दामन भी पाक-साफ हो। इस खोज की जरूरत आज इसलिए पहले से कहीं ज्यादा महसूस हो रही है, क्योंकि भारतीय जनता का साबका इससे पूर्व कभी भी भ्रष्टाचार की इस तरह के अनवरत सिलसिले से नहीं हुआ। भ्रष्टाचार पहले भी था। उसकी चर्चा हुई और विरोध भी। राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने बोफोर्स कांड के कारण ही सत्ता खोई थी, लेकिन आज तो कुछ ऐसा लग रहा है मानो कि हमारी कॉलोनी कभी कब्रिस्तान रही भूमि पर बनी हो। अब जहां कहीं भी थोड़ी सी खुदाई करते हैं, हड्डी का एक टुकड़ा हाथ में आ जाता है। उस देश की जनता की असहायता का अंदाजा लगाया जा सकता है जिसकी सर्वोच्च कार्यकारी शक्ति यानी कि प्रधानमंत्री स्वयं में इतने लाचार और दयनीय दिखाई दे रहे हों। सामूहिक ईमानदारी को सुनिश्चित किए बिना क्या व्यक्तिगत ईमानदारी को ही पर्याप्त माना जा सकता है? पब्लिक जानती है कि सत्ता की बागडोर किसके हाथ में है। इस बारे में किसी तरह का भ्रम पालना खुद को धोखा देने से कम नहीं है। एक समय था, जब सोनिया गांधी ने हाथ आई हुई सत्ता की बागडोर मनमोहन सिंह को थमाकर हिंदुस्तान के लोगों के दिलों पर फतह हासिल कर ली थी। उसके बाद के इन छह सालों के दौरान लोगों को जो भी देखने और सुनने को मिला, उससे उनकी तब की वह छवि बुरी तरह खंडित हुई है। लोगों को आज यह विश्वास हो चला है कि वह तात्कालिक त्याग भविष्य के किसी बड़े लाभ के लिए उठाया गया कदम था। पिछले कुछ सालों में राहुल गांधी को जिस तरह सामने लाने की कोशिशें की गईं वह इसका एक छोटा सा प्रमाण है, लेकिन आज स्थिति यह है कि राहुल गांधी को कांग्रेस की ओर से भारत का भावी प्रधानमंत्री घोषित करने से पहले कांग्रेस के छत्रपों को थोड़ा रुककर विचार करना पड़ेगा। हां, युवाओं का नेतृत्व कर रहे राहुल गांधी प्रधानमंत्री की इस दौड़ में आगे निकल गए होते, यदि उन्होंने अन्ना हजारे की तरह भ्रष्टाचार का विरोध करने का बीड़ा उठा लिया होता, लेकिन उनके सामने धर्मसंकट यह था कि ऐसा करना अपने ही सरकार के विरुद्ध झंडा उठाना मान लिया गया होता। इसलिए राज्यों की छोटी-छोटी असफलताओं और अव्यवस्थाओं पर वक्तव्य देने वाले राहुल को इस राष्ट्रव्यापी संकट के लिए कोई स्टेटमेंट नहीं सूझा। निश्चित रूप से राहुल गांधी ने आंदोलन खड़ा करने का एक ऐसा सुनहरा मौका खो दिया है, जो संयोग से उनकी ही पार्टी ने उन्हें उपलब्ध कराया था। अभी तो ठीक है, लेकिन भविष्य में जनता उनसे अपने इस सवाल का जवाब जरूर मांगेगी, क्योंकि इसका संतोषजनक उत्तर पाए बिना लोग राहुल को अपनी आशंका के घेरे से मुक्त नहीं कर सकेंगे। आदर्श सोसायटी घोटाले में राज्य के मुखिया से इस्तीफा मांगकर नाप-तौल बराबर कर लिया गया, क्योंकि विकल्प मौजूद था। इसी नियम को दिल्ली के तख्त पर यदि लागू नहीं किया गया तो सोचिए कि क्यों? इसलिए, क्योंकि फिलहाल कांग्रेस के पास मनमोहन सिंह का कोई विकल्प नहीं है और मनमोहन सिंह की एकमात्र राजनीतिक योग्यता यह है कि इस काजल की कोठरी में अभी तक मि. क्लीन दिखाई पड़ रहे हैं। यदि खुदा न खास्ता सरकार गिर जाए और नए चुनाव कराए जाएं, हालांकि ऐसा होगा नहीं, क्योंकि ऐसा कोई नहीं चाहेगा तो मनमोहन सिंह में भी वह क्षमता नहीं है कि अपनी पार्टी की नैया को पार लगा देंगे। इस कड़वे सच को कांग्रेस को स्वीकार करना ही चाहिए कि उसकी विश्वसनीयता उसके अब तक के सवा सौ साल के इतिहास में निम्नतम तल पर है। तो यहां सवाल यह उठता है कि यदि कांग्रेस नहीं तो फिर कौन? यदि हम इसका उत्तर राजनीतिक दलों के आधार पर देना चाहें तो विकल्प के रूप में सिर्फ एक ही पार्टी का नाम बचता है और वह है भारतीय जनता पार्टी। कुछ लोग तीसरे मोर्चे का नाम ले सकते हैं, लेकिन पिछले लगभग दो दशकों में इस मोर्चे ने अपनी वैचारिक निष्ठा के प्रति जो ढुलमुल रवैया दिखाया है, उसने उसकी विश्वसनीयता को काफी धक्का पहुंचाया है। क्या बीजेपी के लिए भी दस, रेसकोर्स रोड की मंजिल इतनी आसान है? इसका उत्तर पाने के लिए हमें अपने पहले वाले प्रश्न के उत्तर की नए सिरे से तलाश करनी पड़ेगी और यह नया छोर हमें भारतीय राजनीति में पिछले कुछ सालों से आए सूक्ष्म परिवर्तनों और वर्तमान की सबसे सघन आवश्यकता में मिलेगा। धीरे-धीरे राजनीतिक दलों की वैचारिक धाराएं अस्पष्ट सी होकर एक-दूसरे से घुलने-मिलने लगी हैं। उनकी स्पष्टताएं और निष्ठाएं कम हुई हैं। इनका रुख अवसरवादिता की ओर हो गया है। इस कारण दलों की प्रतिष्ठा कम हुई है और उसके स्थान पर व्यक्ति प्रबल होता जा रहा है। हालांकि राष्ट्रीय नेतृत्व के मामले में पं. नेहरू और इंदिरा गांधी के साथ भी यही बात थी। अब वह पुन: प्रबल हो रही है और राष्ट्रीय नेतृत्व के संदर्भ में तो और भी अधिक। अब हम आते हैं कि कैसा व्यक्तित्व? भारत के सामने आज जो सबसे बड़ी चुनौती है वह भ्रष्टाचार की है। गरीबी और सांप्रदायिकता जैसे मुद्दे पुराने पड़ गए हैं। बिहार में नीतीश कुमार का पुनरागमन इसका स्पष्ट संकेत है कि यदि जनता को कोई ईमानदार विकल्प उपलब्ध कराया जाए तो वह उसे लपक लेगी। इसे कमोवेश एक अच्छी स्थिति कहा जा सकता है कि कर्नाटक जैसे राज्यों के छुटपुट मामले तथा ट्रस्टों को जमीन देने जैसी अनियमिताओं के अलावा बीजेपी के ऊपर बहुत बड़े घोटालों के आरोप नहीं लगे हैं। यह केवल एक तुलनात्मक वक्तव्य है। यदि हम जमीनी राजनीति की बात करें तो फिलहाल ईमानदारी एवं भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल बजाने के प्रश्न पर राष्ट्र के सामने दो राजनीतिक व्यक्तित्व उपस्थित हैं, नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार। भले ही मोदी अभी तक अपनी पंथनिरपेक्षता वाली छवि को राष्ट्रीय स्तर पर पूरी तरह से स्थापित नहीं कर पाए हैं, किंतु पहले वाली कट्टर छवि में काफी सुधार आया है। साथ ही पिछले एक दशक के शासन के दौरान उन्होंने स्वयं को जिस तरह से एक विकास पुरुष एवं ईमानदार कार्यकारी के रूप में स्थापित किया है उसमें विवाद की गुंजाइश अब नहीं रह गई है। इस प्रकार राष्ट्रीय नेतृत्व के प्रश्न पर जब जनता के सोचने की बात आती है तो उसकी चेतना में जो व्यक्तित्व उभरता है वह होता है नरेंद्र मोदी। समय की अपनी मांग होती है। कभी नेता पैदा होते हैं तो कभी समय नेता को पैदा करता है। अभी के समय की मांग एक ऐसे नेता की है जो जनता को विश्वास दिला सके कि वह भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग छेड़ेगा। अन्ना हजारे को मिले जन समर्थन ने इसका प्रमाण भी दे दिया है। (लेखक पूर्व प्रशासनिक अधिकारी हैं) लेख दैनिक जागरण से साभार

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

क्‌या अन्ना ने गलती कर दी

72 साल का व्‌यक्ति भी क्रांति कर सकता है, यह देखना बहुत प्रेरणादायक रहा. हलाकि अन्ना हजारे चार दिनों के अनशन के बाद 9 अप्रैल को अनशन तोड़ने जा रहे हैं लेकिन इन चार दिनों में वह हुआ, उसकी केवल फिल्‌मों में कल्‌पना की जाती है. भारत; जहां भ्रटाचार एक संस्कृति का रूप ले चुकी है, वहां की 1.21 करोड़ आबादी बस इसी इंतजार में थी कि कोई एक खड़ा हो, जिसके पीछे वह जा कर अपनी बात कह सके. अन्ना के अनशन स्थल से नेताओं का भगाया जाना, देश के लोगों का स्वत: इस आंदोलन से जुड़ना, हमारे देश के नवसामंत, जिन्हें हम मजबूरी में जनप्रतिनिधि कहते हैं; उनका स्क्रीन आफ हो जाना एक सुखद सपने की तरह था. अन्ना उठे और चार दिनों में दशकों से लटके लोक पाल बिल के बारे में फैसले करा दिया. यह सही मायनों में लोकतंत्र की जीत की तरह ही थी. इन चार दिनों में लगा कि सदियों से तरह-तरह की दासता झेल रही देश की कौम भी कुछ कर सकती है. क्रिकेट के बाद यह पहला मुद्दा दिखा जिसके पीछे लोग अपनी मर्जी से जुड़ते गये. लेकिन एक गलती अन्ना हजारे ने भी कर दी. उनकी गलती भी कुछ वैसी ही रही, जैसी महात्मा गांधी ने की थी.1920 में महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन शुरू किया था, आंदोलन के एक वर्ष बीतते-बीतते यह पूरे उफान पर आ गया. अंगरेजी हुकूमत हिल गयी थी. 1922 में चौरीचौरा कांड हुआ और महात्मा ने अपनी ही जलाई आग पर कई घड़े पानी डाल दिया. यानी आंदोलन वापस लेकर देश की आवाम को सकते में डाल दिया. आजादी की लड़ाई एकाएक रोक दी गयी. कुछ ऐसा अन्ना हजारे भी कर गुजरे. माना कि उनका अनशन जिस मांग के लिए था, वह पूरा हो गया लेकिन भ्रटाचार के खिलाफŸ सुलगी चिनगारी को शोला बनाने के लिए उनका नेतृत्व तो आज के समय की मांग है. अन्ना अनशन से वापस हो जायेंगे, देश फिर पुराने ढर्रे पर आ जायेगा. फिर हमारे मिस्टर क्‌लींन प्रधानमंत्री यह कहते फिरेंगे कि मैं 100 प्रतिशत साफ हूं भले ही मेरी कैबिनेट व मेरी सरकार घोटालो की कब्र के ऊपर बनी है. फिर वही होगा, जो इस देश में आजादी के बाद से आज तक होता आया है. मेरी इस विचारधारा के लिए मेरे दोस्तों ने खूब आलो चना की, उनका कहना था कि इस बार देश जाग गया है। लेकिन अब तक इतिहास-भूगोल देखते हुए लगता है कि गांधी वाली गल ती तो हो ही चुकी है. अन्ना हजारे देश का सचमुच भला चाहते हैं तो उन्हें देश की कमान संभालने के आगे आना चाहिए. क्‌या ऐसा वे करेंगे, देश की जनता को इस प्रश्न के उत्तर का बेसब्री से इंतजार है.

बुधवार, 30 मार्च 2011

पाकिस्तान...एक गलती और

क्‌या आपने देखा है अथवा सुना है कि बराक हुसैन ओबामा ने ओसामा बिन लादेन के साथ बैठ कर डिनर किया है, या उन्हें आमंत्रित कर मैच दिखाया गया है. इस प्रश्न के जवाब में सामान्य-सा उत्तर मिलेगा : नहीं यार. यह मजाक है क्‌या. (जवाब देनेवालो में वामपंथियों को शामिल नहीं किया गया है क्‌योंकि उनके चरित्र की तरह उत्तर भी त्रिअर्थी था), पर मित्रों आम आदमी की रहनुमाई का दावा करनेवाली सरकार ने इससे बड़ा कारनामा कर दिखाया है. हमारे हुक्‌मरानों ने न सिर्फ विश्व के खतरनाक आतंकवादियों के साथ बैठ कर खाना खाया बल्कि छह घंटे से ज्‌यादा समय तक मैच भी देखा. इस पूरे तिकड़म; जिसे क्रिकेट डिप्‌लोमेसी का नाम दिया गया, उसमें न सिर्फ संसद हमले के शहीदों का मजाक उड़ा, बल्कि 9/11 में मारे गये लोगों के परिवारों को बेइ‚जत किया गया. सामान्य-सा सूत्र दिया जाता है कि खेल को खेल भावना से देखा या जाना जाना चाहिए. लेकिन हाइ वोल्‌टेज मैच में सरकार ने क्‌या किया इस पर गौर फरमाएं. पाकिस्तान के पीएम को बुलाने के बारे में कहा गया कि इससे दोनों देशों के बीच संबंध सुधार की पहल होगी. विश्व समुदाय के सामने मैसेज देने की कोशिश की गयी कि भारत बड़ा उदार है, हालाकि इस प्रकार के मैसेज देनेवाले भूल गये कि एक जनाब भरी बुढ़ारी में बस लेकर मित्रता करने चले गये थे लेकिन बदले में देश को कारगिल जैसा युद्ध झेलना पड़ा, जिसमें बेमतलब में मारे जवानों ने अपने ही देश में लड़ाई लड़ी व शहीद हुए. बस इतना भर ही नहीं हुआ. देशवासियों को इस थोपे गये युद्ध का खर्च कुछ वर्षों तक कर (टैक्‌स) के रूप में भुगतना पड़ा. देश आज तक इस बात को नहीं समझ पा रहा है कि गलतियां पर गलतियां हो रही है और कोई कुछ सीखने को तैयार क्‌यों नहीं है. अखबार के पन्ने गवाह हैं कि जब-जब इस देश में आतंकी घटनाएं हुई हैं हमारे हुक्‌मरानों ने 11-11 गज की घोषणाएं की हैं कि पाकिस्तान के साथ तब तक संबंध नहीं, जब तक वह आतंक की राह नहीं छोड़ देता. पर आज तक हुआ क्‌या है, सबको पता है. हम बात करते हैं आतंकवाद से पीड़ित होने की, इससे लड़ने की लेकिन कर क्‌या रहे हैं. दरअसल हम अपने दुश्मन स्वयं बन गये हैं तभी हमारी यह गत बनी है. आतंक से लड़ने का अमेरिकी मॉडल भले ही कई मौकों पर मानवता के विरुद्ध दिखता है लेकिन यह बात उतनी ही सत्य है कि हमारी नीति को विश्व के 196 देशों में शायद ही कोई जानना/सुनना पसंद करता है. पहले पाकिस्तान के साथ हमारा विवाद केवल कश्मीर को लेकर था, पर आज कश्मीर के साथ वाली फेहरिश्त लबी हो चुकी है. इसमें आतंकवाद, जाली मुद्रा, घुसपैठ, जेहाद आदि-आदि कई शाखाएं जुड़ चुकी हैं. ऐसे में सवाल तो मौजूं ही है कि आखिरकार आम नागरिकों की कीमत पर पाकिस्तान के साथ प्रयोग कब तक होता रहेगा. माना कि हमारे यहां अतिथियों को भगवान कह उनका स्वागत करने की परिपाटी है, लेकिन हमारा मेहमान कौन हो, यह तो तय करने का अधिकार हमें उसी परिपाटी ने दिया है. इस तेज भागती दुनिया में भारत में एक्‌सपेरिमेंट करने का समय दशकों पहले बीत चुका है, यह बात हमारे नीति नियंताओं को समझने होगी. हमारे पास अब भी समय है कि हम आतंकवाद विरोधी अमेरिकी मॉडल को भारतीय रूप में अपना ले अन्यथा यह जो पाकिस्तान नाम का कबीला है, वह हमारे लिए भस्मासुर बन जायेगा। अंत में भारत को पाकिस्तान को हरा कर फाइनल में पहुंचने के लिए सवा अरब बधाईयां.

जीत के लिए सुभकामनाए दे

मित्रो टीम इंडिया संकट में है । आप खुल कर उसका समर्थन करे ताकि वह इतिहास बना सके ।

मंगलवार, 29 मार्च 2011

...दे घुमा के, भारत को शुभकामनाएं


सबसे पहले भारतीय जीत को जीत के लिए शुभकामनाएं. दरअसल , आज विश्वकप के सेमीफाइनल का वह मैच है, जिसका विश्व की सबसे बड़ी जनसंख्‌या इंतजार कर रही है. यों तो खेल , केवल खेल होना चाहिए पर भारत-पाकिस्तान के मैच में यह धारणा टूट जाती है. सुनने में आ रहा है कि पाकिस्तान के हुक्‌मरान भी मैच देखने आ रहे हैं. खैर आ रहे हैं तो भारतीय संस्कृति के हिसाब से उनका स्वागत है, लेकिन वे किस मुंह से आ रहे हैं , यह जांच का विषय है। लोगो को पाकिस्तान का ९-११ का तोहफा अब तक याद है । भारतीय टीम से यही आशा है कि वे बिन बुलाये (नियमत:) मेहमानों को जबरदस्त हार का तोहफा दे कर विदा करें. आशा है धोनी एंड कंपनी इसकी तैयारी कर चुकी है. एक बात और छूट रही है. सचिन शतकों का शतक पाकिस्तान के खिलाफ बना दें तो यह इतिहास में महाभारत के किसी अध्याय की तरह दर्ज हो जायेगा.

बुधवार, 23 मार्च 2011

सच से डरे हुए शासक


विकिलीक्स के खुलासे पर प्रधानमंत्री के बयान को देश को गुमराह करने वाला बता रहे हैं तरुण विजय (लेखक राज्यसभा के सदस्य हैं)

विकिलीक्स ने एक बार फिर भारत के भ्रष्ट और झूठे नेताओं के चेहरे बेनकाब कर दिए हैं और सत्ता पक्ष के पास अपनी निर्लज्जता छिपाने के लिए लोकोक्ति के अनुसार सूखे पत्ते तक का सहारा नहीं बचा है। विकिलीक्स के केबल भले ही दुनिया में गलत आचरण करने वाले शासकों के महलों में खलबली मचा रहे हों, लेकिन आज तक किसी ने भी उनकी सत्यता या प्रमाणिकता पर संदेह नहीं किया। केवल भारत के प्रधानमंत्री डॉ। मनमोहन सिंह ने एक हास्यास्पद बयान दिया, जिसमें न केवल उन्होंने विकिलीक्स पर संदेह किया, बल्कि यह तक कह दिया कि सांसदों को रिश्वत देने के मामले की जांच के लिए गठित समिति ने यह निष्कर्ष निकाला था कि सांसदों को रिश्वत देने का कोई प्रमाण नहीं मिला है। उन्होंने यहां तक कह दिया कि यह मामला 14वीं लोकसभा से जुड़ा था। उसके बाद इसी मुद्दे को लेकर जो दल चुनाव में उतरे वे जनादेश प्राप्त नहीं कर सके और कांग्रेस को उनसे ज्यादा सीटें मिलीं। यह एक हारे हुए तथा हताश प्रधानमंत्री का ही बयान हो सकता है क्योंकि यह तर्क कौन स्वीकार करेगा कि यदि कोई अपराधी चुनाव में जीत जाए तो उसकी जीत उसके अपराधों को खत्म कर देती है। प्रधानमंत्री ने सांसदों को रिश्वत देने के मामले की जांच के लिए बिठाई समिति की रपट का निष्कर्ष भी गलत उद्धृत किया। हालांकि इस समिति के चार सदस्य वे थे जिन्होंने सदन में विश्वास मत पर सरकार का समर्थन किया था। इसके बावजूद इस सात सदस्यीय जांच समिति के तीन सदस्यों ने स्पष्ट रूप से कहा था कि कुछ सांसदों को रिश्वत दिए जाने का स्पष्ट मामला सिद्ध होता है। जबकि शेष चार सदस्यों के बहुमत के कारण समिति की रपट में माना गया था कि संजीव सक्सेना चाहे-अनचाहे रिश्वत देने वाले थे इसलिए वह संविधान के अनुच्छेद 105 (2) के अंतर्गत संरक्षण पाने के पात्र नहीं हैं। इसके अलावा रेवती रमन सिंह के व्यवहार पर भी समिति ने संदेह व्यक्त करने वाली स्पष्ट टीका की थी। संसदीय जांच समिति ने कहीं भी यह नहीं कहा कि सांसदों को रिश्वत देने का मामला प्रमाणित नहीं होता है। इसके विरुद्ध उसके निष्कर्ष में लिखा गया कि रिश्वत देने वाले सक्सेना का बयान असंतोषजनक और सत्य से परे है। यानी समिति ने यह स्पष्ट रूप से माना था कि सक्सेना चाहे-अनचाहे रिश्वत देने वाले तो थे ही और इस संदर्भ में पूरी छानबीन की आवश्यकता है। मनमोहन सिंह ने इन तमाम तथ्यों की अनदेखी की। उस देश का क्या होगा जहां का प्रधानमंत्री सांसदों को रिश्वत देकर अपनी सत्ता और सरकार बचाने की कोशिश करे! क्या ऐसा देश अपनी सीमाओं की सुरक्षा कर सकता है? क्या ऐसे देश के परमाणु संयंत्र सुरक्षित रह सकते हैं? क्या ऐसे देश के छात्र और युवा बलिदान देने के लिए तत्पर सैनिक या जनता के हित की रक्षा के लिए सब कुछ दांव पर लगा देने वाले अफसर बनने की प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं? पूर्व संचार मंत्री ए। राजा के विरुद्ध कार्रवाई के लिए समूचे विपक्ष और मीडिया को एकजुट लड़ना पड़ा। ए. राजा के सहयोगी सादिक बाशा की रहस्यमय मृत्यु हो गई, जबकि वह सीबीआई के सामने पेश होने की तैयारी में था। बाशा का पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टर ने इस्तीफा दे दिया। हर दिन एक नए घोटाले का खुलासा हो रहा है। ऐसी स्थिति में भारत के परमाणु संयंत्र और यूरेनियम भंडार माओवादी या तालिबानी आतंकवादियों के हाथों में नहीं जा सकते क्या इसकी कोई गारंटी ले सकता है? विकिलीक्स के सर्जक और संचालक जूलियन असांजे ने एक भारतीय चैनल को इंटरव्यू देते हुए कहा कि भारत के प्रधानमंत्री विकिलीक्स के मामले में जनता को गुमराह कर रहे हैं। विकिलीक्स ने जो केबल भारत के संदर्भ में उद्घााटित किए वे अमेरिकी राजनयिकों द्वारा वाशिंगटन में अपने विदेश विभाग को भेजे गए थे। असंाजे का कहना है कि भारत में अमेरिकी राजदूत या अन्य राजनयिकों को अपने ही विदेश मंत्रालय से झूठ बोलने की क्या जरूरत हो सकती है? अगर ऐसा होता है तो यह अमेरिका में बहुत बड़ा अपराध है। अभी कुछ समय पहले तक भारत सूचना-प्रौद्योगिकी के कीर्तिमान, भारतीय डॉक्टरों, इंजीनियरों तथा विश्वव्यापी औद्योगिक बहुराष्ट्रीय कंपनियों के गौरवशाली उद्योगपतियों के कारण पूरी दुनिया में प्रतिष्ठा और ख्याति अर्जित कर रहा था, वह आज जिंदा भ्रष्ट देश के नाते जाना जा रहा है। दुनिया के हर कोने में भारत के नेताओं के शर्मनाक भ्रष्टाचार, संसद में इन मुद्दों को लेकर चल रहे लगातार गतिरोध तथा सत्ता पक्ष द्वारा विपक्ष को इस प्रकार के विषय उठाए जाने की अनुमति न देने के समाचार उन सभी करोड़ों भारतीयों का सिर शर्म से झुका रहे हैं जो कल तक गौरवशाली भारतीय के नाते रह रहे थे। वे जानते हैं भारत भ्रष्ट देश नहीं है। न ही भारत कायर और ठगों का देश है। सिर्फ कुछ नेता भारत की राजनीति और सुरक्षा के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। उनकी आंखों में भारत है ही नहीं। सत्ता में बैठे लोग एक विदेशी मूल की उस महिला के हाथों में भारत की तकदीर दे बैठे हैं जिनका भारत के चित्त, मर्म और आत्मा के साथ कोई संबंध ही नहीं रहा। इसीलिए क्वात्रोची के खाते खुलवाए, सीबीआई को कांग्रेस की घरेलू शैतानी मशीनरी का पुर्जा बना दिया गया, हिंदुओं को आतंकवाद से जोड़कर पूरे देश की हजारों वर्ष पुरानी सभ्यता को लांछित करने का प्रयास किया गया और अब मध्य प्रदेश से एक ही किस्म और एक ही आस्था से जुड़े मामले एनआइए को सौंपकर मुस्लिम वोट बैंक को रिझाने का प्रयास किया गया है। मानो इस देश के मुसलमान हिंदुओं पर आघात से खुश होकर कांग्रेस को वोट दे देंगे। यह गलत धारणा है। मुस्लिम समाज जिसे भी वोट देता है अपनी बुद्धि से सोच कर देता है, यह बिहार और गुजरात के मुसलमानों ने सिद्ध किया है। लेकिन समाज को जाति और मजहब के आधार पर बांटकर अंग्रेजों को भी लज्जित करने वाले भ्रष्टाचारी यदि सत्ता का संरक्षण पाने लगें तो फिर संसद की लड़ाई सड़क तक ले जाने के सिवाय और कोई विकल्प बचता नहीं।

यह लेख दैनिक जागरण के २३ मार्च के अंक से साभार लिया गया है ।

मंगलवार, 22 मार्च 2011

अब तो नरेन्द्र मोदी को पहचानो

अंग्रेजी दैनिक ' द हिंदू' की ओर से किए गए विकीलीक्‍स के ताजा खुलासे के मुताबिक 16 नवंबर 2006 को मोदी की मुंबई स्थित अमेरिकी कौंसुल जनरल माइकल एस. ओवन से मुलाकात हुई थी। खुलासे पर प्रतिक्रिया देते हुए मोदी ने मंगलवार को कहा कि अब अमेरिका भी जानता है कि मोदी बिकाऊ नहीं हैं। विकीलीक्‍स ने दो चेहरे दिखाए हैं- एक तो भारत सरकार का और दूसरा, प्रगतिशील गुजरात का। मोदी ने यह भी कहा कि उन्‍हें खुशी है कि अमेरिकी अधिकारियों ने केबल में बातों को तोड़-मरोड़ कर नहीं रखा था। विकीलीक्‍स के खुलासे के मुताबिक अमेरिका की नजर में मोदी की सार्वजनिक और निजी जिंदगी में फर्क है। ओवन ने कहा है कि सार्वजनिक तौर पर मोदी की छवि एक लुभावने और पसंदीदा नेता की है लेकिन निजी जीवन में वह एकाकी और किसी पर भरोसा नहीं करने वाले इंसान हैं। वह एक छोटी-सी सलाहकार मंडली की मदद से राजकाज चलाते हैं। यह मंडली सीएम और उनके कैबिनेट व पार्टी के बीच पुल का काम करती है।
ओवन ने भाजपा और आरएसएस के कई नेताओं से बातचीत के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि मोदी आज नहीं तो कल देश की केंद्रीय राजनीति में आएंगे ही, इसलिए अमेरिका को अभी से उनसे अच्छे रिश्ते बनाना शुरू कर देना चाहिए। उन्होंने कहा कि अमेरिका को मोदी से बातचीत करनी चाहिए और हम इस दौरान उनसे मानवाधिकार हनन और 2002 के दंगों के मुद्दों पर भी अपनी बात रख पाएंगे।ओवन ने 2 नवंबर 2006 की तारीख में लिखे इस गोपनीय संदेश में कहा है, 'हालांकि अमेरिका ने गुजरात दंगों में मोदी की सक्रिय भूमिका के कारण 2005 में उनको वीजा देने से इनकार कर दिया था लेकिन मोदी की लगातार उपेक्षा करना अमेरिकी हितों के खिलाफ होगा क्योंकि अगर आनेवाले सालों में मोदी को देश की राष्ट्रीय राजनीति में प्रमुख भूमिका मिली तो अमेरिका को उनकी जरूरत पड़ेगी। इसलिए बाद में भाजपा के सामने झेंपने से अच्छा है कि हम अभी से नरेंद्र मोदी से अच्छे रिश्ते बनाना शुरू कर दें।'
सोचो , समझो और भाजपा को वोट करो ।

गुरुवार, 17 मार्च 2011

...मन्नू जी अब माफ करिए

विकीलीक्‌स के खुलासे के बाद अब कहने-सुनने को कुछ भी शेष नहीं रह गया है. सोनिया एंड कंपनी का खेल देश-दुनिया के सामने आ चुका है. सत्ता के लिए महारानी से लेकर युवराज तक निलर्जता के साथ भिड़े हुए हैं. हाला कि लोक तंत्र व आम जनता पर लेख लिखने के लिए इन बंधुओं को कहा जाये तो वे किताबों की एक सीरीज तक लिख सकते हैं. देर से ही सही लोग यह भी जान चुके हैं कि हाथ का साथ उन्हें कितना महंगा पड़ा है. सुप्रीम कोर्ट की फटकार, घोटाले -दर-घोटाले , महंगाई, भ्रटा चार आदि के बाद भी यूपीए-2 शान से राज कर रहा है. इसमें आश्चर्य की बात यह है कि देश की बुद्धिजीवी कौम सुसुप्त -सी दिख रही है. रही-सही कसर भाजपा के नेतृत्ववाले लिजलिजे विपक्ष ने पूरी कर दी है. हालाकि आम जनता में छटपटाहट है इस जंजाल से निकल ने की. अब समय आ गया कि आरएसएस अपने चूके हुए योद्धाओं को वापस लेकर मोरचे पर नयी फौज लगाये, नहीं तो धमाकों व खुलासों के बीच यूपीए देश को बरबाद कर देगा. वैसे तो यह होनेवाला नहीं है लेकिन प्रधानमंत्री को तनिक भी शर्म है तो उन्हें न सिर्फ इस्तीफा दे देना चाहिए व राजनीति से संन्यास भी ले लेना चाहिए.

बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

गोधरा....सत्यमेव जयते


कहा जाता है कि सच नंगा व एसिड के समान होता है इसे चाहे लाख परदों में लपेट दो, कुछ समय बाद यह स्वतंत्र रूप से सामने आ जाता है. गोधरा के शहीदों की पुण्यतिथि के कुछ दिन पहले कोर्ट के आये फैसले ने इसकी पुष्टि की है. कोर्ट ने यह साफ कर दिया है कि आग लगी नहीं, लगायी गयी थी और रामसेवकों सहित पूरे ट्रेन को जलाने की साजिश थी. तमाम विविधताओं के बाद भारत की न्याय प्रक्रिया ऐसी है कि तमाम विरोधों के बाद भी सच सूर्य के समान चमकते हुए बाहर आ जाता है. अयोध्या मामले में कोर्ट का फैसला भी इस मत की प्रतिपुष्टि करता है.याद कीजिए 27 फरवरी, 2002 का वह खौफनाक व कायराना दिन, जिस दिन हिजड़ों की नपुंसक फौज ने अपने धर्म के जेहाद के फितूर में निर्दोष कारसेवकों को जला कर मार डाला था. बजाय 59 कारसेवकों के परिवारों के आंसू पोंछने के, बात चल निकली कि आग भाजपावालो ने ही लगवायी है. आग अंदर से लगी थी. यह भाजपा की राजनीति थी. आदि-आदि. मतल ब 59 लोगो की जान की कीमत हमारे देश के चौगले बुद्धिजीवी व हरामी वामपंथी ऐसे लगा रहे थे मानों वे इस देश के मुजरिम हों. (ऐसे ही हरामियों की पैदाइश आजकल कसाब को अपना दामाद बनाने की प्रतियोगिता कर रहे हैं). मतलब साफ था कुछ भी कर के भाजपा व उसके सहयोगियों को बदनाम करो. आजकल हिंदू आतंकवाद का नाम लेकर भी यही खेल खेला जा रहा है. मैं इस 1.10 अरब की आबादीवाले इस देश के लोगों ने जानना चाहता हूं कि इन हरामियों की पैदाइश के लिए कुछ सजा क्‌यों नहीं तय की जा रही है. क्‌या हम सदियों की मुसलिम व ईसाई गुलामी झेलते-झेलते ऐसे हो गये हैं कि जायज चीजों पर भी प्रतिक्रिया न करें. हमें शुरुआत करनी होगी सच को सच व गलत को गलत ठहराने की. इसमें कोई इफ बट की जगह नहीं होनी चाहिए. हां, शुरुआत करने से पहले जयचंदों की औलादों को अपने में चुन कर सामाजिक रूप से बहिष्‌कृत करें. तो बताएं आप कब शुरुआत कर रहे हैं सच को सच कहने की ............ बुरा लगे तो माफ़ करना

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

भाजपा...तूने क्‌या किया

भाई साहब, आडवाणी क्‌या चीज हैं, अब तक मेरी समझ में नहीं आ रही है. बहुत दिन नहीं हुए इस शख्‌स ने कहा था कि मुझे मनमोहन सिंह पर दया आती है. जनाब ने दया करते-करते सोनिया मैडम से माफी भी मांग ली . कहा कि सोनिया बता देतीं कि उनके अथवा उनके पति का स्विस बैंक में एकाउंट नहीं है तो वे ऐसा बयान नहीं देते. आज की तारीख में वह कैसी राजनीति कर रहे हैं, यह लोगो के समझ के परे है. अगर यह उम्र का असर है तो स्वभाविक रूप से मेरी कोई प्रतिक्रिया नहीं है, लेकिन यह अगर राजनीति है तो आडवाणी को पुन: पाकिस्तान जाकर किसी चूल्‌लू भर पानी वाले गड्ढे में डूब मरना चाहिए. आज की तारीख में आडवाणी एंड कंपनी ने भाजपा की जो हालत कर दी है, वह उसके इतिहास में कभी नहीं थी. सामने पाने को विशाल साम्राज्‌य है लेकिन भाजपा की पूरी टीम आपस में लड़ने व सत्ता की चाश्नी चाटने में लगी हुई है. देश में महंगाई बेकाबू है, जनता भ्रष्‌टाचार से त्राहि-त्राहि कर रही है लेकिन वह कान में तेल डाल कर सो रही है. मुझे तो लगता है कि कांग्रेस को कोसते-कोसते वह कांग्रेस की फोटोकॉपी बन गयी है. 1996-2000 के बीच भाजपा की तीन सरकारें महज प्‌याज व टमाटर की कीमतें बढ़ने के कारण चली गयी थीं, लेकिन आज वही भाजपा उससे लाख गुना रद्दी स्थिति होने के बावजूद कुछ नहीं कर पा रही है। यह उसका लिजलिजापन ही दरसाता है।हाल में जम्मू-कश्मीर के लाल चौक पर वह झंडा फहराने का अभियान लेकर निकली थी, लेकिन राजनीति की अवैध संतान (उमर अबदुलला ) के हाथों पूरी पार्टी हार गयी. झंडा नहीं फहराया जा सका. इसके बाद लोगों को लगा कि पार्टी कुछ करेगी लेकिन इस बार भी वही ठंडी प्रतिक्रिया देखने को मिली . यह हाल रहा तो दो से शुरू हुई पार्टी 182 भाया 144 भाया 116 होते हुए -2 हो जायेगी. आज भाजपा को दलालों व व्‌यापारियों से मुक्त कराना जरूरी हो गया है. इसके लिए आरएसएस को पूरी सक्रियता से आगे आना होगा. अगर ऐसा नहीं हुआ तो वह पार्टी इंटरनेट का एक आंकड़ा बन कर रह जायेगी.

मंगलवार, 25 जनवरी 2011

...तो तिरंगा पाकिŸस्तान में फŸहराओगे

सबसे पहले ब्लो ग से तीन माह दूर रहने के लिए मुझे माफ करें. दरअसल , कुछ न टालने योग्य कारणों से मैं दैनिक पत्रकारिता से जुड़े होने के बावजूद कुछ नहीं लिख सका. खैर..अब मुद्दे की बात-सुना है तिरंगा को ले कर भारत में कुछ बवाl मचा है. मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि तिरंगा शायद भारत का ध्वज है और कुछ भाई लोग जो शायद जयचंद की चौगली औलाद की चौथी पीढ़ी हैं, वे कह रहे हैं यहां पाकिस्तानी झंडा फहरा दो कोई बात नहीं है, मगर तिरंगा नहीं फहराना है. तो भाई मैं इसलिए ही कह रहा हूं कि तिरंगा को ले कर भारत में बवाल मचा है क्‌योंकि मुझे महसूस होता है कि मैं पाकिस्तान या अफगानिस्तान में हूं. कहा जा रहा है कि कश्मीर के लाल चौक पर तिरंगा फहराने से देश में तनाव होगा. तो बंधु आप लोग बताएं कि देश में पाकिस्तानी झंडा फहराने से शांति आ जायेगी. भाई साहब यकीन मानिये देश का ऐसा हाल इतिहास में कभी नहीं था, तब भी नहीं जब बाबर के वंशज भारत पर काबिज हो रहे थे. अचरज भी हो रहा है कि देश का शीर्ष नेतृत्व भी देशद्रोहियों सी भाषा बोल रहा है. सेकुलरवाद की नाजायज औलाद , सात हरामियों की पैदाइश ऐसे नेता अपनी मां-बहन को सेकुलर रिजम के नाम पर पाकिस्तानियों को क्‌यों गिफ्‌ट नहीं कर दे रहे हैं. (भाषा में भटकाव के लिए क्षमाप्रार्थी हूं).