रविवार, 18 जुलाई 2010

ठंडी राख में चिंगारी की तलाश

देखते ही देखते राम मंदिर आंदोलन को दो दशक बीत गए। इस बीच अयोध्या की सरयू नदी में काफी पानी बह चुका है। आंदोलन के समय कई नेता, साध्वी और संत खूब सुर्खियों में रहे। धुआंधार और आग उगलने वाले भाषणों ने उन्हें जमकर लोकप्रियता दिलाई।जिनकी एक आवाज पर लाखों की भीड़ मैदानों में उमड़ती थी, वे वक्त के साथ जाने कहां खो गए। छह दिसंबर 1992 के बाद आंदोलन की आग ठंडी होती गई। अगली कतार के नेताओं में से कुछ तो मंदिर को पीछे छोड़कर भाजपा की राजनीति के सहारे आगे बढ़ गए, लेकिन ज्यादातर खुद को आज तक ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। सत्ता में आकर मंदिर को भूल बैठी भाजपा से उन्हें ढेरों शिकायतें रही हैं। उनका कहना है कि भाजपा ने यह मुद्दा हथियाकर सियासी फायदा बटोरा। आंदोलन के इन किरदारों में से अब कोई भागवत कथाओं में व्यस्त है तो कोई पिछड़े इलाकों में शिक्षा के प्रसार में जुटा है। कुछ शीर्ष बुजुर्ग नेताओं का जोश उम्र और सेहत के चलते ढलान पर है। वे इस समय मंदिर मुद्दे की ठंडी पड़ चुकी राख से चिंगारी की तलाश में अयोध्या में हैं। विश्व हिंदू परिषद व भाजपा के इन झंडाबरदारों से बातचीत-अब जो होगा, उसकी आप कल्पना नहीं कर सकते-अशोक सिंघलइलाहाबाद. विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष अशोक सिंघल इन दिनों स्वास्थ्य लाभ ले रहे हैं। वे 84 साल के हैं। जून में उनकी एंजियोप्लास्टी हुई है। दूसरों को मंदिर का मसला भले ही एक भूला-बिसरा अध्याय लगे, लेकिन सिंघल ऐसा मानने को कतई राजी नहीं हैं। उन्हें भरोसा है कि माहौल भले ही नजर न आए, लेकिन मंदिर को लेकर अंडर करेंट है और करोड़ों लोग सही वक्त का इंतजार कर रहे हैं। वे कहते हैं-‘अभी आप सोच नहीं सकते कि अयोध्या को लेकर अब क्या होने वाला है?’आंदोलन के इतने अरसे बाद मंदिर मुद्दे की प्रासंगिकता के सवाल पर वे कड़क अंदाज में जवाब देते हैं-‘देखिए, राम मंदिर के संदर्भ में प्रासंगिकता शब्द ही गलत है। राम समयातीत हैं और मंदिर का मुद्दा लोगों के दिलों में सदियों से ताजा है। एक संकल्प के बाद ढांचे को ढहते दुनिया ने देखा, दूसरे संकल्प के बाद मंदिर बनता हुआ देखेंगे और यह जल्दी ही होने वाला है। इस भूल में मत रहिए कि मुद्दा भुलाया जा चुका है।’ जिला अदालत में 40 साल लगे, हाईकोर्ट में 20 साल बीत गए, इसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट में अटका तो? सिंघल का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट तक मामला जा नहीं पाएगा। हम संसद में फैसले के लिए सरकार को मजबूर कर देंगे। जब शाहबानो के लिए कानून बदल सकता है तो यह करोड़ों लोगों की आस्था का प्रश्न है। देश में ताकत का ऐतिहासिक प्रदर्शन होगा।अबकी दफा भाजपा की भूमिका क्या होगी? हंसते हुए वे कहते हैं कि भाजपा वहां होगी, जहां ताकत होगी। सिर्फ भाजपा ही नहीं आप कांग्रेस के लोगों को भी हमारे साथ खड़ा देखेंगे। भाजपा से हमें कोई शिकायत नहीं है। उसने केंद्र में सरकार बनाई लेकिन 180 सांसदों के साथ करती क्या, वह तो ताकतहीन थी। लेकिन इस समय आप कल्पना नहीं कर सकते, जो अब होने वाला है। थोड़ा धर्य रखिए। शक्ति की पहचान नहीं है आपको। इसलिए ऐसे सवाल करते हैं।मंदिर आंदोलन के अपने संगियों आचार्य धर्मेद्र और ऋतंभरा से मेल-मुलाकातें होती हैं? सिंघल का जवाब है-‘हम लगातार मिलते रहे हैं और यह सब एक बार फिर देश के सामने आने वाले हैं।’ आखिर क्या होने वाला है? वे शांत स्वर में बताते हैं कि अगस्त से चार महीने तक एक व्यापक अभियान शुरू होने वाला है। लोग संकल्प लेंगे और सरकार को मजबूर कर देंगे। भारत में इससे पहले ऐसा कभी देखा नहीं गया होगा। यह सब राम ही कराएंगे। किसी राजनीतिक दल की क्या कूवत है?हंस बनकर दिखाते, उल्लू तो पहले ही कम नहीं थे-आचार्य धर्मेद्रजयपुर. आचार्य धर्मेद्र वह नाम है, जिसने आंदोलन के दिनों में देश भर में जबर्दस्त हवा बनाई। भरी सभाओं में उनकी बुलंद आवाज और साफगोई का अपना ही अंदाज रहा है। बेखौफ ढंग से वे इतिहास की कड़वी सच्चइयों को पेश करते रहे हैं। अब यह सब यादों में बाकी है।वे मंचों पर तो अब भी आते हैं और धारदार भाषण भी देते हैं, लेकिन भीड़भाड़ और सुर्खियों की वह चमक नदारद है। ये मंच आमतौर पर विश्व हिंदू परिषद के होते हैं, जहां वे सबसे बाद में भाषण के लिए बुलाए जाते हैं। उन्हें सुनने वाले आखिर तक उनका इंतजार करते हैं। इनमें ज्यादातर विहिप के कार्यकर्ता या संत होते हैं। यह बात और है कि इन श्रोताओं के लिए आचार्य के भाषणों में नया कुछ नहीं होता। वे मानते हैं कि हिंदू समाज के एक महान् मकसद को राजनीतिक मुद्दा बना दिया, फिसलन तभी शुरू हो गई। जनता खुद को ठगाया हुआ महसूस करती है। अयोध्या में बाबरी ढांचा धराशायी होते ही अधिकतर लोग पश्चाताप की मुद्रा में आ गए। भाजपा को ऐसे समय हंस बनना चाहिए था, राजनीति की शाखों पर उल्लू पहले ही कम नहीं थे। लेकिन एक भाजपा नेता ने यह तक कह दिया कि मंदिर एक चेक था, जो एक बार कैश हो चुका है। दूसरे नेता ने कहा कि ऐतिहासिक साक्ष्य के रूप में ढांचे को बचाकर रखना था। मंदिर बगल में बन जाता। ऐसी सोच निकली इनकी। यह अपमानजनक है। आचार्य कहते हैं कि भाजपा को सोचना चाहिए कि उसने जनता की विश्वसनीयता क्यों खोई? अगर फिर से विश्वास हासिल करना चाहते हैं तो वह जेठमलानी और जसवंत के बूते पर हासिल नहीं होगा, सबसे पहले जनता से खुली माफी मांगनी होगी। उसे सेकुलर होने की होड़ में नहीं पड़ना चाहिए। असली सेकुलर तो सोनिया गांधी हैं। वे मानते हैं कि हिंदुत्व हाशिए पर नहीं है। जमीनी कार्यकर्ता आज भी हाहाकार कर रहा है। वह अपने सौदेबाज और मौकापरस्त नेताओं से निराश है, जो सत्ता की सियासत के हम्माम में सबके साथ निर्वस्त्र नजर आ रहे हैं। अपनी मौजूदा गतिविधियों के बारे में आचार्य बताते हैं कि उनके पिता स्व. रामचंद्रजी महाराज ने उन्हें एक रास्ता दिया, जिस पर वे अपनी चाल से चलते रहे हैं। यह है-अखंड भारत और निर्भय गोवंश का रास्ता। वे याद करते हैं कि उनके पिता अपने समय के ऐसे राष्ट्रवादी थे, जिन पर रवींद्रनाथ टैगोर ने वंदना गीत रचा था। सौ साल की उम्र में जब उनका देहावसान हुआ तो आचार्य से उनके अंतिम शब्द थे-‘पाकिस्तान मिटा कि नहीं?’ जाहिर है, आचार्य की बोली-वाणी में जो आग है, वह उन्हें विरासत में मिली। हनुमान की पूंछ में आग एक बार ही लगती है-विनय कटियारनई दिल्ली. संघ परिवार में उत्साही नौजवानों के लिए बजरंग दल का गठन हुआ। इसके संस्थापक अध्यक्ष बने विनय कटियार। मंदिर आंदोलन के नेतृत्वकर्ताओं में यह एक ऐसा नाम है, जो आंदोलन के समय राजनीति के क्षितिज पर चमका।बाद के वर्षो में आंदोलन भले ही शांत होता गया हो लेकिन आंदोलन से मिली ऊर्जा पाकर विनय कटियार का राजनीतिक रथ बेधड़क चल पड़ा। बीते दो दशकों में वे तीन बार लोकसभा के लिए चुने गए, फिलहाल राज्यसभा में हैं। संगठन में भी उन्हें ऊंचे ओहदे मिले। वे भाजपा की उत्तरप्रदेश इकाई के अध्यक्ष बनाए गए और फिर राष्ट्रीय महासचिव भी। अपने गृह प्रदेश में वे पार्टी का जीर्णोद्धार भले ही न कर पाए हों, लेकिन उनका अपना राजनीतिक सफर कामयाब रहा है। कटियार विहिप के इस आरोप से सहमत नहीं हैं कि भाजपा ने मंदिर को भुला दिया। उनकी दलील है कि मंदिर भाजपा के नियमित चिंतन का विषय कभी था ही नहीं। यह विहिप और राम मंदिर निर्माण समिति का विषय था। कटियार पार्टी की निगाह से इस मसले को देखते हैं। वे यह नहीं मानते कि मंदिर एक बार कैश होने वाला चेक था। वे कहते हैं कि कैश करने की कोशिश ने ही झमेला खड़ा कर दिया। भाजपा की कोशिशें सही दिशा में थीं, हम मंदिर निर्माण के बिल्कुल करीब आ गए थे। लेकिन सरकार में रहते समय से पहले लोकसभा के चुनाव कराने की राजनीतिक भूल का खामियाजा भुगतना पड़ा। अगर चुनाव वक्त से पहले न होते तो भाजपा का दूसरी बार दिल्ली में सरकार बनना तय था। तब मंदिर का काम शुरू होने से कोई रोक नहीं सकता था। वे दूसरे पार्टी नेताओं की तरह यह भी दोहराते हैं कि मंदिर तो छह दिसंबर 1992 को बन चुका है। बस उसे भव्य रूप देना बाकी है। सत्ता हासिल करने के बाद अब अयोध्या में कोई काम नहीं है? इस सवाल पर वे कहते हैं-‘ऐसा नहीं है। भाजपा की बुनियाद ही हिंदुत्व है, वह कभी इससे मुक्त नहीं हो सकती।’ आंदोलन का उफान शांत हुए सालों बीत गए। क्या मंदिर एक सियासी बुखार था, जो उतर गया? बयानों के कारण ही चर्चा में बने रहने वाले विनय कटियार कहते हैं-‘लंका को जलाने के लिए हर समय हनुमान की पूंछ में आग नहीं लगती न। ऐसा एक ही बार होता है।’ अपनी घटी लोकप्रियता पर उनका जवाब है कि राम के जीवन में युद्ध का समय बहुत छोटा सा है। लेकिन ऐसा नहीं उन्होंने बाकी जीवन में कुछ नहीं किया। जब कोई महत्वपूर्ण विषय होता है तो लोकप्रियता बढ़ जाती है। ऐसा हमेशा नहीं हो सकता। इसलिए यह मत कहिए कि लोकप्रियता घटी।मुद्दा भाजपा ने हथियाया फायदा बटोरकर भूल गई-आचार्य गिरिराज किशोरनई दिल्ली. साधू की तरह लंबी सफेद दाढ़ी। चमकदार आंखें। माथे पर चंदन का तिलक। हिंदुत्व के इस प्रबल पैरोकार का नाम आचार्य गिरिराज किशोर है। वे अब 90 पार हैं राम मंदिर का जिक्र आते ही वे एकदम करंट में आ जाते हैं और फिर भाजपा पर बरसने की बारी उनकी होती है। भाजपा केंद्र में सत्ता में आई, क्या किया? इस सवाल पर आचार्य दो टूक शब्दों में कहते हैं-‘कुछ नहीं किया।’ वे कहते हैं कि मंदिर आंदोलन की राजनीतिक योजना भाजपा की थी। हमने कभी मंदिर को नहीं भुलाया। भुलाया उन्होंने है, जिन्होंने इसे राजनीतिक मुद्दा बनाया। दोष उनका है। आंदोलन को भाजपा ने हथिया था और इसका फायदा ले लिया। आचार्य ज्यादातर समय दिल्ली में ही रहते हैं। सेहत पहले की तरह देश भर के तूफानी दौरे की इजाजत नहीं देती। रात ढाई बजे सोकर उठ जाते हैं और भोर होने तक पूजा-पाठ से भी निवृत्त हो जाते हैं। फिर मालिश कराते हैं, अखबार पढ़ते हैं और देश भर से अपने मित्रों व सहयोगी कार्यकर्ताओं से मुलाकात व फोन पर बात हालचाल का सिलसिला शुरू हो जाता है।जब कभी जयपुर जाते हैं तो आचार्य धर्मेद्र से मिलते हैं और कभी-कभार साध्वी ऋतंभरा उनके पास चली आतीं हैं। ऐसे मौकों पर वे अपने इन संगियों के साथ मंदिर आंदोलन के दिनों की यादें ताजा करते हैं। उनका कहना है कि हम तो आज भी मंदिर निर्माण की तैयारियों में लगे हैं। मंदिर की पहली मंजिल के लिए तराशे हुए पत्थर तैयार हैं। दुनिया भर से इकट्ठे हुए सवा आठ करोड़ करोड़ रुपए इस काम में खर्च हुए हैं। इसी साल निर्माण शुरू करने वाले हैं।’ आंदोलन को हुए दो दशक बीत गए। आर्थिक उदारीकरण के बाद देश और समाज बड़े बदलावों से गुजरा है। इस बीच एक ऐसी पीढ़ी तैयार हुई है, जिससे मंदिर मुद्दे का कोई पता नहीं है। क्या हिंदुत्व का ज्वार उतर गया? आचार्य इससे सहमत नहीं हैं। वे कहते हैं ‘आप शहरों से हटकर जरा देहात में जाइए। राम मंदिर अब भी करोड़ों भारतीयों की आंखों में एक सपने की तरह झिलमिला रहा है। भाजपा भले ही अपनी ही दृष्टि से मंदिर को देखती हो, लेकिन यह आम आदमी का मुद्दा अब भी उतना ही है, जितना पहले था।’ वे कहते हैं कि इसी साल अगस्त से विहिप एक आंदोलन शुरू कर रही है। इसके जरिए नई पीढ़ी को भी पता चलेगा कि अयोध्या में राम मंदिर के मायने क्या हैं और सदियों का यह संघर्ष क्यों वाजिब है? हालांकि वे यह भी स्पष्ट कर देते हैं कि अब यह आंदोलन आक्रामक नहीं होगा, बल्कि जनजागरूकता की तर्ज पर चलेगा। मंदिर आंदोलन समाज का था, भाजपा का नहीं-डॉ. प्रवीण तोगड़ियाअहमदाबाद. विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय महासचिव डॉ. प्रवीण तोगड़िया कभी मध्यप्रदेश में झाबुआ, कभी राजस्थान के बाड़मेर तो कभी हरियाणा के अंबाला इलाके में गांवों के रास्तों पर घूमते और स्थानीय लोगों की बैठकें लेते नजर आते हैं। इन दिनों उनका ज्यादा वक्त पिछड़े गांवों की खाक छानने में भी बीतता है, जहां वे विभिन्न जाति-समुदायों की बैठकों में शिक्षा के प्रसार में लगे हैं।इन दिनों क्या चल रहा है? इस सवाल पर वे बताते हैं-हमने 23 हजार गांवों में प्राथमिक शिक्षा के केंद्र खड़े कर दिए हैं। इसके अलावा अनुसूचित जाति-जनजाति बहुल गांवों में तीस हजार सेवा कार्य जारी हैं। डॉ. तोगड़िया नहीं मानते कि भाजपा ने मंदिर आंदोलन के जरिए सत्ता हासिल की और मुंह फेर लिया। उनका कहना है कि असल शक्ति तो हिंदू समाज ने हासिल की है। क्योंकि यह भाजपा का नहीं, समाज का आंदोलन था। पेश से कैंसर सर्जन 53 वर्षीय डॉ. तोगड़िया ने मंदिर आंदोलन के बाद के दौर में त्रिशूल दीक्षा कार्यक्रमों के जरिए अपनी आक्रामक पहचान बनाई। वे खूब सुर्खियों में रहे, लेकिन अब नहीं हैं। मंदिर मुद्दे से बेखबर पढ़ी-लिखी नई पीढ़ी के बारे में डॉ. तोगड़िया कहते हैं कि आधुनिकता और वैश्वीकरण के बावजूद भारत के शिक्षित युवाओं में धर्म के प्रति निष्ठा बढ़ी है। आप वैष्णोदेवी, अमरनाथ और तिरुपति जाकर देखिए। वहां ज्यादातर जींस-टी शर्ट पहनने वाले आधुनिक युवा ही दिखाई देंगे। उनके नए मोबाइल में रामचरित मानस, हनुमान चालीसा और गणोश वंदना सुनाई देती है। मंदिर आंदोलन के वक्त बजरंग दल की पांच हजार इकाइयां थीं, अब ये 54 हजार हैं। हमारा अनुभव है कि ये युवा अपने धर्म और देश के इतिहास के प्रति कहीं ज्यादा सजग हैं। राम मंदिर से लेकर भोजशाला तक आंदोलन तो किए, लेकिन किसी नतीजे तक कहां पहुंचे? डॉ. तोगड़िया का जवाब है कि रामसेतु और अमरनाथ की जमीन का मामला परिणति तक गया और अयोध्या को लेकर संघर्ष थमा नहीं है। अपनी घटी लोकप्रियता पर उनका कहना है कि लोकप्रियता मुद्दे के संदर्भ में होती है। रामसेतु और अमरनाथ के मुद्दे उठे तो विहिप का असर दिखा। यह हमेशा मुमकिन नहीं है। हम हिंदुत्व के कामकाज में तो लगे ही हैं। वे मंदिर को ऐसा मुद्दा नहीं मानते, जिसे दो दशक पुराने राजनीतिक आंदोलन से जोड़कर देखा जाए। उनका कहना है कि यह 450 साल पुराना मुद्दा है, जिसे लेकर हुई 78 लड़ाइयां इतिहास में दर्ज हैं। भाजपा भले ही भूली देश के दिल में जिंदा है-साध्वी ऋतंभरावृंदावन. तेजाबी भाषणों से मशहूर हुईं साध्वी ऋतंभरा मंचों पर तो अब भी नजर आती हैं, लेकिन ये मंच न तो राम मंदिर के लिए सजते, न धारा 370 और न कॉमन सिविल कोड की पैरवी के लिए। धुआंधार लोकप्रियता का वह दौर बीत चुका है। ऋतंभरा अब भागवत कथा के लिए मंचों पर प्रकट होती हैं, जहां कार्यकर्ता कम और भक्त ज्यादा होते हैं। साल में देश में 10-12 आयोजन और पांच-छह कथाएं विदेश में। आंदोलन से हासिल लोकप्रियता को भुनाने के लिए उनके सामने भाजपा में दाखिल होने का मौका था, लेकिन उनके गुरु स्वामी परमानंद ने उस रास्ते पर जाने से रोका।मंदिर आंदोलन का ज्वार उतरने के बाद उन्होंने खुद को अपनी वात्सल्य योजना में व्यस्त किया है। यह अनाथ बच्चों को एक छत के नीचे पारिवारिक माहौल में रखने का कार्यक्रम है। वृंदावन में करीब पांच सौ बच्चों को दूसरे बच्चों की तरह जिंदगी बसर करने का मौका उन्होंने दिया है, जो परिवारों में रहते हैं। इसके साथ ही वे 22 राज्यों में वात्सल्य ग्राम भी बनाने जा रही हैं। वे ब्रह्मचर्य धारण करने वाली बेटियों को नक्सलवाद से ग्रस्त उन इलाकों में सक्रिय करना चाहती हैं, जहां सरकारें भी बेअसर हैं। वे मध्यप्रदेश के ओंकारेश्वर में सौ वनवासी बालिकाओं के लिए संविद गुरुकुल की स्थापना कर रही हैं। उन्हें वे दिन याद आते हैं, जब मंदिर के निर्माण की अलख जगाने वालों में वे भी आगे की कतार में सक्रिय थीं। क्या मंदिर, धारा-370 और कॉमन सिविल कोड अब कोई मुद्दे नहीं हैं? इस सवाल पर वे कहती हैं कि वे मुद्दे किसी राजनीतिक दल के नहीं, देश के हैं। हालात बदले हैं, इसलिए वैसी चर्चा भले न हो, लेकिन मुद्दे देश की पहचान से जुड़े हैं। भावुक होकर 45 वर्षीय साध्वी कहती हैं कि मंदिर का मसला देश के दिल में वेदना की तरह पक रहा है। आम लोगों में अब भी बेचैनी है। हिंदुत्व के सवाल पर उनका मानना है कि हिंदुत्व कभी हाशिए पर नहीं हो सकता। मंदिर आंदोलन की गरमाहट भले ही शांत हो गई हो, लेकिन आंदोलन पुनर्जागरण के मकसद में कामयाब हुआ। आंदोलन से ऊर्जा हासिल कर भाजपा केंद्र की सत्ता में आई, लेकिन मंदिर के नाम पर उसने कुछ नहीं किया। यह मलाल ऋतंभरा को है। वे कहती हैं-‘भाजपा को एक मौका था। वह ये अहम काम कर सकती थी, लेकिन चूक गई। लेकिन इसके बावजूद मंदिर का मुद्दा गुजरा हुआ कल नहीं है।’तब क्या किया और अब क्या करने वाले हैंविश्व हिंदू परिषद ने 1984 में अयोध्या में राम जन्म भूमि स्थल पर मंदिर निर्माण के लिए आंदोलन की शुरूआत की, जिसे बाद में भाजपा ने 1989 में लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में एक बड़ा मुद्दा बनाया। 25 सितंबर 1990 को आडवाणी की बहुचर्चित रथयात्रा निकली। यह रथयात्रा सोमनाथ से शुरू हुई और दस हजार किमी की दूरी तय करके इसे अयोध्या पहुंचना था। लेकिन समस्तीपुर, बिहार में यात्रा को रोका दिया गया। भाजपा को इससे नई ताकत मिली और वह 1984 में संसद में अपनी दो सीटों को बढ़ाकर 1989 में 84 और 1991 में 120 तक ले जाने में कामयाब हुई। ये वो दिन थे तब देश भर में पार्टी की बैठकों और सभाओं में जय-जयश्रीराम के नारे गूंजा करते थे।जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी तो न्यूनतम साझा कार्यक्रम के तहत मंदिर, धारा 370 और कॉमन सिविल कोड जैसे मूल मुद्दों से मुंह फेर लिया। संघ परिवार के बाकी संगठनों को यह बेहद नागवार गुजरा। हाईकोर्ट में राम जन्मभूमि मामले की सुनवाई जारी है। इस महीने आखिरी सुनवाई होनी है और उम्मीद की जा रही है कि सितंबर-अक्टूबर में अदालत का फैसला आ जाएगा। विहिप के सारे शीर्ष अयोध्या में एक साथ इकट्ठे हुए हैं। यहां परिषद की केंद्रीय प्रबंध समिति की दो दिन की बैठक में मंदिर निर्माण का मुद्दा ही अहम होगा। परिषद की प्रांतीय इकाइयों के पदाधिकारी भी यहां आए हैं।परिषद अगस्त में चार लाख गांवों में अभियान शुरू करने जा रही है। इसके जरिए दस करोड़ युवाओं से संपर्क करने का मकसद तय किया गया है। गांव-कस्बों में स्थानीय स्तर पर राम मंदिर निर्माण को लेकर दो-दो घंटे के कार्यक्रम होंगे।

बुधवार, 14 जुलाई 2010

कुछ इनसे भी सीखे भारत के मौलवी

यह लेख सहारा समय से साभार लिया गया है । आप पढ़ कर स्वयं फैसला करें की भारत के मुसलमानों को यहाँ के मुल्ला मौलवी कहा ले जा रहे है ।

यूरोप के देशों में इन दिनों बुर्क़े के विरोध की लहर सी चल रही है। अप्रेल में फ़्रांस के पड़ोसी बेल्जियम की संसद ने भारी बहुमत के साथ बुर्क़े पर इसी तरह की पाबंदी लगाने वाला विधेयक पास किया था। उसके बाद जून में स्पेन की सेनेट ने बुर्क़ा पाबंदी विधेयक पास किया। लेकिन फ़्रांस यूरोप की सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाला देश है।
फ़्रांस की लोकसभा एसेंबली नेत्सियोनाल ने बुर्क़ा पहनने पर पाबंदी लगाने वाला विधेयक भारी बहुमत के साथ पास कर दिया है। लगभग एक सप्ताह की बहस के बाद मंगलवार की शाम को हुए मतदान में एसेंबली नात्सियोनाल के कुल 557 सांसदों में से 335 ने इस विधेयक के पक्ष में और केवल एक सांसद ने विरोध में मत डाला। जैसी कि संभावना थी, विपक्षी समाजवादी पार्टी और ग्रीन पार्टी के सांसदों ने नारीवादियों के दबाव और फ़्रांस के जनमत के रुझान को देखते हुए मतदान का बहिष्कार किया।यह विधेयक फ़्रांस के सार्वजनिक स्थलों और सड़कों पर बुर्क़ा पहनने पर पाबंदी लगाता है। फ़्रांस की एसंबली नेत्सियोनाल में पारित हो जाने के बाद अब यह फ़्रांसीसी संसद के उच्च सदन सेनेट के पास भेजा जाएगा जहाँ इसका सितंबर तक अनुमोदन हो जाने की संभावना है। सेनेट से अनुमोदन मिलने के बाद इसे कानून का दर्जा मिल जाएगा। लेकिन इसे लागू करने से पहले छह महीने तक बुर्क़ा पहनने के ख़िलाफ़ एक जागरूकता अभियान चलाया जाएगा। इसलिए बुर्क़े पर वास्तविक पाबंदी अगले मार्च से पहले लागू नहीं हो सकेगी। बुर्क़ा पाबंदी कानून के लागू हो जाने के बाद सार्वजनिक स्थानों पर चेहरा ढाँपने वाला बुर्क़ा या नक़ाब पहनने वाली महिला पर लगभग दस हज़ार रुपए का जुर्माना किया जा सकेगा। यही नहीं, किसी महिला या लड़की को बुर्क़ा पहनने पर मजबूर करने वाले व्यक्ति को एक साल तक की जेल की सज़ा और बीस लाख रुपए तक का जुर्माना भुगतना पड़ेगा।यूरोप के देशों में इन दिनों बुर्क़े के विरोध की लहर सी चल रही है। अप्रेल में फ़्रांस के पड़ोसी बेल्जियम की संसद ने भारी बहुमत के साथ बुर्क़े पर इसी तरह की पाबंदी लगाने वाला विधेयक पास किया था। उसके बाद जून में स्पेन की सेनेट ने बुर्क़ा पाबंदी विधेयक पास किया। लेकिन फ़्रांस यूरोप की सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाला देश है। फ़्रांस में बसने वाले लगभग पचास लाख मुसलमान उसके अल्जीरिया और मोरोक्को जैसे उपनिवेशों से आए हैं और कई पीढ़ियों से फ़्रांस में हैं। इनमें कट्टरपंथियों की संख्या बहुत कम रही है इसलिए बुर्क़ा पहनने वाली महिलाओं की संख्या पिछले साल तक कुछ सौ से अधिक नहीं थी। लेकिन विडंबना की बात यह है कि पिछले कुछ महीनों के दौरान उनकी संख्या बढ़कर दो हज़ार के लगभग हो गई है जो कट्टरपंथ की लहर होने की बजाए बुर्क़े के ख़िलाफ़ शुरू हुए अभियान की प्रतिक्रिया अधिक लगती है।इसलिए फ़्रांस का मुस्लिम समाज बुर्क़े पर पाबंदी लगाने वाले विधेयक का विरोध कर रहा है। फ़्रांस की मुस्लिम परिषद के अध्यक्ष मोहम्मद मुसावी ने कहा है, “हमारे विचार में बुर्क़े पर इस तरह की आम पाबंदी लगाना कोई समाधान नहीं है।” एमनेस्टी इंटरनेशनल ने यूरोप के सांसदों से बुर्क़े पर पाबंदी लगाने वाले कानूनों का विरोध करने की अपील की है। एमनेस्टी का कहना है कि ये कानून बुर्क़ा पहनने वाली महिलाओं के अधिकारों का हनन करते हैं और उनको समाज से और अलग-थलग करेंगे।मानवाधिकारों के मामले पर फ़्रांस के बुर्क़ा विरोधी कानून को यूरोपीय संघ की स्ट्रासबर्ग स्थित मानवाधिकार अदालत में चुनौती दी जा सकती है और अगर यूरोपीय अदालत इस कानून के ख़िलाफ़ फ़ैसला सुनाती है तो फ़्रांसीसी सरकार को उसे मानना होगा। लेकिन उस से पहले इस कानून पर फ़्रांस की ही सर्वोच्च वैधानिक संस्था राष्ट्रीय परिषद विचार करेगी। यह परिषद पहले ही इस कानून के ग़ैर-संवैधानिक होने की संभावना व्यक्त कर चुकी है।इन सारी संभावित अड़चनों के बावजूद भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से जूझ रही राष्ट्रपति निकला सार्कोज़ी की दक्षिणपंथी यूएमपी सरकार बुर्क़ा विरोधी कानून लागू करने पर तुली हुई है। विधेयक के एसेंबली नेत्सियोनाल में पारित होने के बाद फ़्रांस की कानून मंत्री मिशेल एलियट-मरी ने कहा, “यह उन फ़्रांसीसी मूल्यों की जीत है जो लोगों नीचा दिखाने वाले हर तरह के दमन से मुक्ति की और पुरुषों और महिलाओं के बीच बराबरी का पक्ष लेते हैं, जो असमानता और अन्याय को बढ़ावा देने वालों का विरोध करते हैं।” वैसे यह पहली बार नहीं है कि फ़्रांस में सार्वजिनक स्थलों पर धार्मिक वेषभूषा को लेकर विवाद उठा हो। फ़्रांस अपने धर्मनिरपेक्ष मूल्यों का किसी आधुनिक धर्म की तरह पालन करना चाहता है। इसलिए वहाँ के स्कूलों में धार्मिक आस्था का प्रतीक समझी जाने वाली वेषभूषा और प्रतीकों के पहनने पर रोक है। इसी के चलते 2005 में फ़्रांस के स्कूलों में सिख छात्रों की पगड़ी को लेकर विवाद छिड़ा था और एक अदालत के फ़ैसले के बाद पगड़ी पहनने वाले कई सिख छात्रों को स्कूलों से निकाल दिया गया था।

लेखक - शिवकान्त लंदन से

शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

बैसाखी के सहारे कब तक

बिहार में चुनाव से तीन महीने पहले गठबंधन सरकार के बीच आया राजनीतिक तूफान फिलहाल थम गया है।
दोनों घटक दल अपने राजनीतिक नफा-नुकसान का हिसाब लगाने में जुट गये हैं, क्योंकि उन्हें एहसास है कि वर्तमान राजनीतिक हालात में गठबंधन को जारी रखना ही दोनों दलों के हित में है, इसलिए दोनों दलों के बीच जो कुछ भी हुआ वह प्याले में आये तूफान जैसा ही था। सवाल है कि भाजपा के साथ मिलकर सरकार चलाने वाले दल खुलकर उसकी बगलगीर बनने से क्यों कतराते हैं, भाजपा को इस सवाल पर गंभीरता से सोचना होगा।
अतीत बताता है कि गठबंधन की राजनीति के जरिये भाजपा सत्ता में जरूर रही, पर उसे इस धर्म को निभाने में नुकसान ही हुआ। 1967 में गैर कांग्रेसवाद के नाम पर चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में संघीय सरकार बनी थी। उस समय भी 99 सदस्यों वाले जनसंघ के कुल चार ही लोग मंत्री बने थे। चौधरी के सामने उसकी एक न चली थी। 1977 में भी मोरारजी देसाई के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनी थी, उस दौरान भी अन्य घटक दलों की तुलना में जनसंघ सदस्यों को सरकार और राज्यों में बनी प्रांतीय सरकारों में कम महत्व मिला था। उत्तर प्रदेश में 90 के दशक के बाद भाजपा-बसपा गठबंधन भी कई खट्टे-मीठे अनुभवों के बाद टूटा। एनडीए में उसका ममता की तृणमूल कांग्रेस से तो, उड़ीसा में बीजद से जिस तरह गठबंधन और अलगाव हुआ, उससे यही निष्कर्ष निकलता है कि सभी मध्यमार्गी दल मुस्लिमों के डर से चुनाव के दौरान उससे पल्ला झाड़ लेना चाहते हैं। इन दलों को भी चुनावों में कांग्रेस और कम्युनिस्टों की तरह उसका सांप्रदायिक चेहरा दिखने लगता है। राष्ट्रीय-प्रांतीय राजनीति में अचानक रातोंरात वह ‘अछूत’ हो जाती है। भाजपा के समक्ष आज सबसे जटिल चुनौती यही है कि उसके रणनीतिकार मध्यमार्गी दलों के इस रवैये के प्रति कैसे अपनी दीर्घकालीन रणनीति बनाएं?
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अभी जो कुछ भी किया, वह कोई अप्रत्याशित नहीं है। जिस तरह गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ उनकी तस्वीर आयी, उससे राजनीतिक तूफान अवश्यम्भावी था, क्योंकि उन्हें भाजपा के बगलगीर रहने के कारण मुस्लिम मतों के खिसकने का भय सता रहा है। इसीलिए भाजपा के साथ पांच साल तक सरकार चलाने वाले नीतीश ने उसे सार्वजनिक रूप से अपमानित करने का मौका नहीं गंवाया, लेकिन नीतीश से भी यह सवाल किया जाना चाहिए कि फिर पांच साल से वह भाजपा को बगलगीर क्यों बनाए हुए है? भाजपा भी इस तरह का अपमान सहकर भी सरकार से चिपकी है। ऐसी ही भूल वह तीन बार उत्तर प्रदेश में कर चुकी है। मायावती ने उसका बैसाखी की तरह उपयोग किया और धीरे-धीरे अपनी ताकत बढ़ाकर उसका वोट-बैंक भी चट कर लिया। आज भाजपा उत्तर प्रदेश में काफी कमजोर स्थिति में है। झारखंड में भी उसने यही भूल की। जिस शिबू सोरेन के भ्रष्टाचार को उजागर करने के लिए उसने कई दिनों तक संसद की कार्यवाही नहीं चलने दी, उसके लिए ही वह सत्ता की सीढ़ी बनी। सोरेन ने क्या किया, सरेआम है। भाजपा के अनुरोध को दरकिनार कर संसद में संप्रग के पक्ष में मतदान किया। राजनीतिक नफा-नुकसान का जोड़-घटाव कर बिहार में दोनों दल फिलहाल चुप हैं। संभावना है कि दोनों दलों के बीच कड़वाहट टिकट वितरण के समय नया गुल खिला सकती है।
यह सच है कि नीतीश के आभामंडल के चलते भाजपा अपनी कोई खास प्रभावी छवि नहीं बना सकी है। उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी पर इसी कमजोरी को लेकर पार्टी के अंदर उंगलियां उठती रही हैं। आज अगड़ी जातियां मुख्यमंत्री से नाराज हैं। इसकी मुखर अभिव्यक्ति भी वे कर चुके हैं, किंतु भाजपा इस वोट बैंक पर अपनी मजबूत पकड़ नहीं बना पा रही है, क्योंकि अगड़ों के सवालों को लेकर वह मुख्यमंत्री के समक्ष चुनौती खड़ा नहीं कर पा रही है। इसलिए राजपूत, भूमिहार, ब्राह्मण और कायस्थ आसन्न विधानसभा चुनाव में रणनीतिक तौर पर मतदान करने की योजना बना रहे हंै। उनके समक्ष बिहार में नीतीश के नेतृत्व में अतिपिछड़ा और महादलित गठबंधन को चुनौती देने की है, ताकि उन्हें उनकी (अगड़ी जातियों) ताकत का एहसास हो सके। इसीलिए इनका झुकाव भाजपा की तरफ है, किंतु अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि के चलते भाजपा के खिलाफ नीतीश ने जो तेवर दिखाये, भाजपा उसे उतनी तेजी से अपने पक्ष में भुना नहीं सकी। गठबंधन चलाने के लिए उसकी लाचारी झारखंड जैसी ही दिखी, जिसके चलते अगड़ी जातियों का उससे भी मोहभंग होता दिख रहा है। उसे यह समझना चाहिए कि परिसीमन के बाद जो नये राजनीतिक समीकरण बने हैं, उसमें अकेले चुनाव लड़कर सफलता पाना नीतीश के लिए आसान नहीं होगा क्योंकि चतुष्कोणीय संघर्ष में सत्ता हासिल कर पाना अकेले किसी के लिए दूर की कौड़ी ही है। ऐसे में, भाजपा को जद-यू के समक्ष अपनी दब्बू छवि को तोड़ना होगा। साथ ही, अपने पक्ष में शीघ्र डैमेज कंट्रोल की रणनीति बनानी होगी, ताकि अगड़ी जातियों का विश्वास उनसे न डिगे। यघपि लालू प्रसाद और रामविलास पासवान भी इस पहलू को भांप चुके हैं और उन्हें रिझाने की कोशिश में कूटनीतिक चालें चलनी शुरू कर दी हैं, किंतु अगड़ी जातियां लालू-राबड़ी राज के पंद्रह साल को अभी भूली नहीं हैं। कांग्रेस के प्रति भी इन जातियों का आकर्षण है, किंतु इस पार्टी में इतनी गुटबंदी है कि वहां हर कोई एक दूसरे को कमजोर करने में लगा है। निचले स्तर तक पार्टी का मजबूत संगठन न होने का भी लाभ इस चुनाव में भाजपा को मिल सकता है। शायद यही लोभ उसे जद-यू से भी जोड़े रखे।
दरअसल, भाजपा को स्वतंत्र ढंग से अपनी ताकत को समझना होगा। स्थापना के तीस साल के भीतर वह तीन बार देश की सत्ता में रही है। अटल-आडवाणी के नेतृत्व में उसने भारतीय राजनीति में गठबंधन राजनीति को नया आधार दिया, पर आज वही भाजपा अपनी ताकत को नहीं पहचान पा रही है। उत्तर प्रदेश, झारखंड और उड़ीसा में गलबहियां कर सरकार चलाने वाली पार्टियां ऐन चुनाव के वक्त सांप्रदायिकता का आरोप लगाकर उससे अलग हो जाती हैं या फिर ऐसी स्थिति पैदा करती हैं कि उसे खुद ही अलग होना पड़ता है, लेकिन सहयोगी दलों को कटघरे में खड़ा करने से पहले खुद भाजपा को भी सोचना होगा कि उसकी दोयम दर्जे की स्थिति क्यों बन जाती है। यूपी- उड़ीसा हो या बिहार-झारखंड, सभी जगह उसने गठबंधन इसीलिए किये कि इन राज्यों में वह स्वतंत्र ढंग से मजबूत नहीं हो सकती थी।
ऐसे में, उसे अपने ही खोल में झांकना होगा कि इसके लिए क्या उसकी नीतियां जिम्मेदार नहीं है? अपने विभिन्न निहित स्वार्थों के लिए ही वह भी मध्यमार्गी दलों से हाथ मिलाती रही है। सत्ता-सुख के स्वाद में उलझती हुई धीरे-धीरे वह अपना स्वतंत्र अस्तित्व खोने लगती है। ऐसी स्थिति में वह विपक्ष की भी आवाज नहीं बन पाती। राज्य में उसके नेता सत्ता लाभ में आकंठ डूब जाते हैं और इसका फायदा गठबंधन का मुख्य दल उठाता है। ऐसे में, इन राज्यों में उसे भी इस नए ढंग से सोचना होगा कि वह कैसे इन राज्यों में एक मजबूत संगठन बने। शायद इसी सोच के साथ ही वह खुद को मुख्यधारा में रख सकेगी। रक्षात्मक कदम उसे यूपी की ही राह पर ले जाएगा।

यह लेख रणविजय सिंह जी ने सहारा समय पर २८ जून को लिखा था । हम इसे कॉपी कर साभार प्रकाशित कर रहे है । ............................... बिग हिन्दू