बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

...अब ये राबर्ट वाड्रा कौन हैं भाई

अगर सवाल किया जाये कि राबर्ट वाड्रा कौन हैं तो जवाब आयेगा कि बेचारे की पहचान यही है कि वे राजीव-सोनिया गांधी की बेटी प्रियंका गांधी के पति हैं. यही उनकी पहली और आखिरी पहचान हैं. आज (बुधवार) को इस बेचारे महाशय ने फरमाया है कि अगर वे राजनीति में आये तो देश में कहीं से भी चुनाव जीत सकते हैं. उनके इस बयान के बाद यह पूरी तरह से स्पस्ट हो गया है कि देश के लोकतंत्र के प्रति कांग्रेस खानदान का क्‌या विचार है. कांग्रेस को भी स्पस्ट करना चाहिए कि क्‌या यह अली बाग से आये व्‌यक्ति का विचार है, यह फिर कांग्रेस भी यही सोचती है. दरअसल कांग्रेस देश में लोक तंत्र के नाम राजतंत्र चला रही है. यहां कोई युवराज है तो कोई मैडम. हद तो यह है कि देश के सभी रजवाड़ों के प्रतिनिधि कांग्रेस में ही शामिल हैं. ऐसी पार्टी से देश को सावधान रहने की जरूŸरत है. हां, एक बात और मुझे राबर्ट वाड्रा के बारे में उपरोक्त जानकारी ही है. क्‌या आप इनके बारे कुछ और जानते हैं.

शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

बचाओ, बचाओ...बिहार को बचाओ

गुरुवार, सात अक्तूबर, 2010 को मैंने लिखा था-इस नकली गांधी से देश को बचाएं. यारों माफ करना, मैं गलत था. देश बाद में पहले उनसे बिहार को बचाने की जरूरत है. साहबजादे बिहार में चुनाव प्रचार करने आये थे. मुंह उठा कर कह गये-बिहार का भविष्‌य कांग्रेस है, यहां अब तक जात-पांत पर वोट पड़ते रहे हैं. कांग्रेस को वोट दें ताकि बिहार देश के साथ कदम से कदम मिला कर चल सके. महोदय कुछ इस तरह फरमा रहे थे मानो कांग्रेस का अवतार हुआ है और वे उसके दूत बन कर आये हैं हमारा उद्धार करने. अब जरा इस गांधी बाबू की कांग्रेस ने बिहार के साथ कब-कब दुष्‌कर्म किया, इसकी एक झलक देखे ।1। जब तक लालू प्रसाद की सरकार अल्‌पमत में रही, इसी कांग्रेस पार्टी ने उसे आक्‌सीजन (अपने विधायकों का समर्थन) देकर जिंदा रखा। 2. 1990 से 2005 तक अपराधियों व भ्रटाचारियों की तूती रही, उस दरम्यान कांग्रेस ने पूरी तरह न सिर्फ सरकार को संरक्षण दिया बल्कि वह सरकार में भी शामिल रही. 3. इन वर्षों में हुई हत्याओं, दुष्‌कर्म, व्‌यापारियों के पलायन के लिए वह जिम्मेवार है क्‌योंकि पापी से ज्‌यादा पापी को बचानेवाला गुनाहनागर होता है. 4. यूपीए पार्ट 1 वन में कांग्रेस ने लालू की क्‌या भूमिका तय की थी, बताने की जरूरत नहीं है. 5. जंगल राज के प्रमुख नायकों को अपनी पार्टी में शामिल कराया है।अब बताएं, ऐसे उद्धारकों का क्‌या किया जाना चाहिए. एक बार मायावती ने कहा था-तिलक, तराजू .....खींच के मारो जूते चार. ऐसे उद्धारकों के लिए यही करना होगा. तभी बिहार बचेगा और जब बिहार बचेगा, तभी देश बचेगा.

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

जीत मुबारक हो हिंदू सम्राट

गुजरात. भारतीय राजनीति का थर्मामीटर. आज इस गुजरात से बड़ी खबर आ रही है. भाजपा ने निकाय चुनावों में पुन: बड़ी सफलता नरेंद्र भाई मोदी के नेतृत्व में हासिल की है. इस जीत से यह धारणा पुष्ट हुई है कि सत्य हमेशा जीतता है. मोदी को मौत का सौदागर बतानेवाली सोनिया गांधी को गुजरात की जनता ने करारा जवाब दिया है. गुजरात देश के लिए संदेश है कि सच को सच कहें और बुलंदी के साथ आगे बढ़े. गुजरात इसी फॉमूले पर आगे बढ़ रहा है, हमारे संघ के अन्य राज्‌यों को भी उसका अनुकरण करना चाहिए. एक बात और वामपंथी भाई व सेकुलर बंधुओं का इस जीत के संबंध में अब क्‌या कहना है.

गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

इस नकली गांधी से देश को बचाएं

वे युवराज कहे जाते हैं. उनका घूमना खबर है. हद यह है कि उनका कहीं खाना-नहाना भी खबर है. पिछले 10 वर्षों से राजनीति में इंटर्नशिप कर रहे हैं. (आम कार्यकर्ता को 10 दिन का भी समय नहीं मिलता है). कहीं दौरे पर गये और संयोग से वह सीट निकल गयी तो " मैजिक' कहलाता है, किंतु जब उनकी वंशवादी पार्टी हार जाती है तो कहा जाता है पार्टी का संगठन कमजोर रहने की वजह से ऐसा हुआ. उनका अराजकता, जंगल राज आदि को लेकर अलग-अलग मानक रहता है. जब तक वामपंथियों के सहयोग से केद्र में उनकी पार्टी की दुकानदारी चल रही थी, बाबू साहब को सबकुछ हरा-हरा नजर आ रहा था, लेकिन अब उन्हें बंगाल सबसे रद्दी लग रहा है. इनकी एक और आदत है वे राजनीति में बिना सोचे समझे बयान जारी करते हैं. हाल में साहब ने कह दिया, संघ और सिमी एक जैसे हैं. अब ऐसे लोग बयान देंगे तो भांग की बू आनी स्वभाविक है. देश को उनकी इस बात पर उतना ही आश्चर्य है, जितना कि उनका गांधी होना. नकली गांधी नकली बयान ही देंगे. साहबजादे से भारत की चौहद्दी पूछी जायेगी तो मुंह बना कर खड़े हो जायेंगे. इतिहास-भूगोल का पता नहीं, संघ पर डिक्‌टेशन दे रहे हैं. मुझे तो लगता है वे हमारे उदार संविधान द्वारा दिये गये बोलने की स्वतंत्रता के अधिकार का दुरुपयोग कर रहे हैं. मुझे अगर ऐसा दुरुपयोग करने का अवसर मिला तो मैं भी कह सकता हूं कि सिमी और भाई साहब का परिवार एक समान है, जो देश को दिनोंदिन रसातल (ठेठ बिहारी शब्‌दों में तेल हंडा) में ले जा रहा हैं. हलाकि मैं मानसिक दिवालियापन का शिकार नहीं हूं सो मैं अपने अधिकार का दुरुपयोग नहीं करूंगा. एक बात और चुभती है. भाई साहब हमारे देश की मीडिया भी ऐसी है जो घंटी-अगरबत्ती, लड्डू लेकर हर समय उनकी वंदना करती रहती है, जबकि उसे इस नकली गांधी से बचाने के लिए आगे आना चाहिए. (पाठक स्वयं इस नकली गांधी का नाम तय कर ले )

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

मंदिर की मान्यता की पुष्टि



यह श्री सुभाष कश्यप का आलेख है । जो उन्होंने दैनिक जागरण के लिए लिखा है । यह फैसले पर विशेष प्रकाश डालता है। हम इसे साभार प्रकाशित कर रहे है।


अयोध्या में विवादित ढांचे पर इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा दिया गया फैसला एक ऐतिहासिक निर्णय है। भारत के इतिहास में पिछले 500-600 साल से यह मसला विवादों में रहा था और करीब 60 वर्ष से यह मामला अदालत में चल रहा था। अदालत द्वारा जो निर्णय दिया गया है वह बहुत लंबा-चौड़ा है, जिसे अच्छी तरह समझने की आवश्यकता है और इस काम में वक्त लगेगा। फिर भी मोटा-मोटा जो निष्कर्ष अभी सामने है वह यही है कि अयोध्या में हिंदुओं के आराध्य रामलला का मंदिर होने का दावा सही है और इस स्थल पर मुसलमानों द्वारा जो दावा किया जा रहा है वह साक्ष्य की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। इस आधार पर अब यह साफ है कि हिंदुओं द्वारा वर्षो से किया जा रहा दावा सही है और यह बात अब न्यायालय में भी साबित हो गई है। यहां एक बात और महत्वपूर्ण है कि जिन आधारों पर सुन्नी वक्फ बोर्ड ने अपना दावा जताया था उसे न्यायालय ने 2-1 के निर्णय से खारिज कर दिया। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि न्यायालय के सामने सुनवाई के लिए तकरीबन 100 बिंदु विचारार्थ रखे गए थे, जिनमें से तकरीबन 27-28 मुद्दे महत्वपूर्ण थे। न्यायालय ने सभी बिंदुओं की सूक्ष्म विवेचना दिए गए साक्ष्यों और अदालत में रखे गए तर्को के आधार पर की। अदालत में रखे गए प्रमुख बिंदुओं में तीन सवाल अत्यधिक महत्वपूर्ण थे। इनमें पहला सवाल यह था कि क्या भगवान राम का जन्म विवादित ढांचे से संबंधित उसी स्थान पर हुआ था, जिस बारे में हिंदू वर्षो से दावा करते आ रहे हैं? इस सर्वाधिक महत्वपूर्ण सवाल के उत्तर में तीन जजों वाली पीठ ने एक मत से यह स्वीकार किया कि हां, सही है कि भगवान राम का जन्म उसी स्थान पर हुआ था जिस पर अभी तक हिंदू समाज द्वारा दावा किया जाता रहा है। इसी तरह दूसरा एक और महत्वपूर्ण सवाल यह था कि जिस स्थान पर लगभग पांच सौ साल पहले बाबरी मस्जिद बनाई गई, क्या उससे पहले वहां राम मंदिर बना हुआ था? इस प्रश्न के उत्तर के लिए अदालत भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) की रिपोर्ट में दिए गए सबूत और वहां बाबरी मस्जिद से पहले बने हुए मंदिर के ढांचे के हिस्सों को देख-समझकर इस निष्कर्ष पर पहुंची कि वहां सबसे पहले मंदिर बना हुआ था और बाद में मस्जिद के ढांचे का निर्माण किया गया। इस आधार पर अदालत ने राम मंदिर के दावे को सही माना और मस्जिद होने के तर्क को खारिज कर दिया। यह निर्णय सभी जजों ने एक मत से लिया और इस बात पर किसी को मतभेद भी नहीं था। इसी तरह तीसरा सवाल यह था कि जहां बाबरी मस्जिद या मंदिर है, क्या वहां नमाज अथवा पूजा आदि होती आ रही थी? इस बिंदु के उत्तर में भी यही निष्कर्ष निकल कर आया कि वहां नमाज नहीं हो सकती, क्योंकि इस्लामिक मान्यताओं के मुताबिक पूर्व में स्थित किसी ढांचे के खंडहर पर पवित्र मस्जिद का निर्माण ही नहीं किया जा सकता और ऐसे स्थान पर नमाज अदा करना शरीयत के खिलाफ जाता है। इसी आधार पर तीन जजों वाली हाईकोर्ट की पीठ ने विवादित धार्मिक स्थल को तीन हिस्सों में बांटने का निर्णय लिया ताकि भविष्य में हमेशा के लिए इस मामले का समाधान हो जाए। रामजन्मभूमि के तीन हिस्से में एक तिहाई हिस्सा भगवान रामलला जिन्हें स्वयं वादकार बनाया गया था, को दिया गया है और तिहाई हिस्सा निर्मोही अखाड़ा को देने का निर्णय हुआ और एक तिहाई हिस्सा मुसलमानों को देने की बात कही गई है। निर्णय के तहत परिसर का आंतरिक हिस्सा हिंदुओं को मिलेगा और सीता रसोई तथा राम चबूतरा का हिस्सा निर्मोही अखाड़े को मिलना है तथा शेष हिस्सा मुसलमानों को दिया जाएगा, जिसमें वह मस्जिद बना सकते हैं अथवा नमाज अदा कर सकते हैं। इस फैसले के मुताबिक दोनों पक्षों को तीन महीने का समय दिया गया है ताकि वह अपने-अपने पक्ष को दोबारा अदालत में रख सकें, तब तक इस स्थान पर कोई निर्माण कार्य नहीं किया जा सकता। कुल मिलाकर आस्था से जुड़े हुए इस सबसे बड़े अदालती निर्णय में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस तरह अंगे्रज भारत को आजाद करते समय इसे भारत और पाकिस्तान नामक दो हिस्सों में बांट गए थे, कुछ वैसा ही इलाहाबाद हाईकोर्ट का निर्णय रहा। जब सभी साक्ष्य, सबूत और तर्क वहां मंदिर होने के पक्ष में थे तो फिर क्यों परिसर का एक तिहाई हिस्सा मुसलमानों को देने का निर्णय क्यों हुआ? यदि साक्ष्य मस्जिद के पक्ष में होते तो क्या तब भी ऐसा ही निर्णय आता? अब इसी आधार पर दोनों पक्ष एक बार फिर से सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाएंगे और दूसरे पक्ष को गलत साबित करने और अपने पक्ष को सही मानने के लिए तर्क पेश करेंगे। इस कार्य में पुन: एक साल, दो साल या फिर कई साल लगेंगे। इस फैसले से जुड़ा हुए एक और मुद्दा यह है कि अब जबकि अदालत का फैसला आ चुका है तो किसी भी तरह का राजनीतिकरण इन मसलों को लेकर नहीं किया जाना चाहिए और अदालत के फैसले का सम्मान सभी को करना चाहिए। इस समय मूल बात यही है कि जो भी पक्ष निर्णय को जिस हद तक स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं उनके आधार पर उन्हें सुप्रीम कोर्ट जाना चाहिए। जो तथाकथित सेकुलर लोग हैं उन्हें इस फैसले का सांप्रदायीकरण करने से बचना चाहिए। यह मामला अब कानून के दायरे में है और इस संदर्भ में अदालत जो भी फैसला करे वह सभी के लिए स्वीकार्य होना चाहिए। उच्च न्यायालय के फैसले के गुण-दोष का निर्धारण सुप्रीम कोर्ट को करना है। (लेखक संविधान मामलों के विशेषज्ञ हैं)

आस्था पर अदालती मुहर


यह श्री रविशंकर प्रसाद का आलेख है । जो उन्होंने दैनिक जागरण के लिए लिखा है । यह फैसले पर विशेष प्रकाश डालता है। हम इसे साभार प्रकाशित कर रहे है।

इससे अधिक बेहतर और कुछ नहीं हो सकता कि अयोध्या में विवादित स्थल को लेकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की पीठ ने एक मत से यह विचार व्यक्त किया कि करोड़ों हिंदू जिस स्थान को श्रीराम के जन्मस्थान के रूप में मान्यता देते हैं वह वास्तव में वही स्थान है जहां उनका जन्म हुआ। इतना ही महत्वपूर्ण अदालत का यह फैसला भी है कि जिस ढांचे को बाबरी मस्जिद बताया जा रहा है उसके संदर्भ में यह साबित नहीं होता कि उसका निर्माण बाबर अथवा उसके सेनापति मीर बकी ने कराया था। अयोध्या मामले में उच्च न्यायालय की पीठ के तीनों न्यायाधीशों ने मूल रूप से अलग-अलग फैसला दिया है, लेकिन जिन सवालों पर उन्होंने एक राय से उत्तर दिया है वे कुल मिलाकर यह स्पष्ट करते हैं कि रामजन्मभूमि परिसर ही भगवान श्रीराम का जन्मस्थल है। इस मामले में यह ध्यान रखना जरूरी है कि मुसलमान कभी भी इस तथ्य को विवादित नहीं मानते थे कि अयोध्या में भगवान श्रीराम का जन्म हुआ और न ही उन्हें इस पर आपत्ति रही है कि अयोध्या हिंदुओं के लिए पवित्र स्थल है। उनके लिए विवादित तथ्य यह रहा है कि जिस स्थान को हिंदुओं की ओर से भगवान श्रीराम का जन्मस्थान बताया जा रहा है वहां उनका जन्म नहीं हुआ और वह वास्तव में एक मस्जिद है। इसी बिंदु पर न्यायाधीशों ने एक मत से यह फैसला दिया है। हमने जिस मुख्य बिंदु पर अदालत में बहस की थी वह यह कि हिंदू दर्शन में देव की कल्पना है और वह साक्षात ईश्वर का स्वरूप होता है। ईश्वर ही आदि है, अनंत है। हिंदू समाज वायु और अग्नि की पूजा करता है। जिस प्रकार ये दोनों निराकार हैं उसी प्रकार ईश्वर भी निराकार हैं। आस्था में स्थान का महत्व होता है। गंगा पूरे देश में पूजनीय हैं, लेकिन गंगा का जो महत्व हरिद्वार में है वह अन्य स्थानों पर नहीं हो सकता। हमारा प्रश्न यह है कि हिंदू चिंतन में मंदिर क्यों होता है? मंदिर का अर्थ ईश्वर की उपस्थिति है, ईश्वर की अनुभूति है। मंदिर का अर्थ ईश्वर के आशीर्वाद की आंकाक्षा है। रामजन्म स्थान हिंदुओं के लिए आराध्य स्थल है-इसलिए है, क्योंकि वहां भगवान श्रीराम का जन्म हुआ। यह हमारी मान्यता भी है, श्रद्धा भी है और आस्था भी। यह करोड़ों हिंदुओं का विश्वास है। उच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों ने यह पाया है कि हिंदुओं का यह विश्वास पूरी तरह सही है। जिस स्थल के स्वामित्व का फैसला होना है वह वही स्थान है जहां भगवान श्रीराम का जन्म हुआ। इसलिए यह स्थान हिंदुओं के लिए देवतुल्य है, पूजनीय है, पवित्र है। इस संदर्भ में वैसे तीनों न्यायाधीशों की राय एक है, लेकिन जस्टिस एसयू खान ने इसे एकदम स्पष्ट नहीं किया है। न्यायमूर्ति शर्मा ने समूचे विवादित स्थल के मालिक भगवान राम को बताया है। न्यायमूर्ति खान और न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने निर्णय दिया है कि विवादित स्थल को तीन बराबर हिस्सों में बांटकर सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़े और रामलला विराजमान को सौंप दिया जाए। न्यायमूर्ति खान ने भी निर्णय दिया है कि वास्तविक बंटवारे के समय बीच वाले गुंबद के नीचे जिस स्थान पर रामलला का अस्थाई मंदिर बना है वह हिंदुओं को ही दिया जाएगा। उन्होंने यह भी कहा कि तीसरा हिस्सा निर्मोही अखाड़े को दिया जाएगा, जिसमें राम चबूतरा और सीता रसोई शामिल रहेंगे। जहां तक बाबर द्वारा मंदिर तोड़कर मस्जिद बनवाए जाने की बात है तो इसको लेकर तीनों जजों की राय अलग-अलग रही। न्यायमूर्ति अग्रवाल ने विचार व्यक्त किया कि विवादित ढांचे का निर्माण एक गैर-इस्लामी इमारत अर्थात मंदिर के विध्वंस के बाद कराया गया था। इसी प्रकार न्यायमूर्ति शर्मा ने निर्णय दिया कि विवादित ढांचे का निर्माण हिंदू धार्मिक इमारत को ढहाकर कराया गया था। उन्होंने आगे लिखा है कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने साबित किया है कि मस्जिद के निर्माण से पहले वहां विशाल हिंदू धार्मिक ढांचा था। दूसरी ओर न्यायमूर्ति खान का विचार है कि मस्जिद बनवाने के लिए किसी मंदिर को नहीं ढहाया गया। उनके अनुसार मस्जिद का निर्माण मंदिर के खंडहर के ऊपर कराया गया था। वह मंदिर बाबरी मस्जिद के निर्माण से काफी पहले खंडहर में तब्दील हो चुका था। अब जब अयोध्या विवाद पर अदालत का फैसला सामने आ गया है तब दूध का दूध और पानी का पानी हो चुका है। उच्च न्यायालय ने राम जन्मभूमि स्थल के पक्ष में अपना फैसला सुनाया है। फिर भी मैं न तो भाजपा नेता के रूप में और न ही वकील के रूप में कुछ कहना चाहूंगा, बल्कि मैं एक भारतीय के रूप में इस फैसले को लेकर यह अपील करना चाहूंगा कि इस फैसले को सही परिप्रेक्ष्य में देखा जाए। विवाद का जो मुख्य बिंदु था कि संबंधित स्थल राम के जन्म का स्थान है या नहीं उस पर अदालत ने अपना अभिमत स्पष्ट रूप से सुना दिया है। इस फैसले को सभी पक्षों को विनम्रता से स्वीकार करना चाहिए। अगर हम ऐसा करने में सफल रहे तो इस देश में एक नई मिसाल कामय कर सकते हैं। वस्तुत: यही वह तरीका है जिससे हम शांति-सद्भाव के एक नए युग का सूत्रपात कर सकते हैं। अयोध्या का मामला समाधान बिंदु के एकदम करीब आ गया है। उच्च न्यायालय के फैसले से असहमत पक्ष अथवा पक्षों के लिए उच्चतम न्यायालय जाने का विकल्प खुला हुआ है, लेकिन समय ने हमें समाधान का जो अवसर उपलब्ध कराया है उसे व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए। अब यह हमारे ऊपर है कि हम इस विवाद को और अधिक लंबा खींचकर उसे अन्य जटिलताओं में बांध देना चाहते हैं या समाधान के साथ एकता-भाईचारे का नया आयाम स्थापित करना चाहते हैं? दशकों पुराने विवाद को हमेशा के लिए समाप्त करना अब अधिक मुश्किल नहीं रह गया है, लेकिन यह तभी संभव है जब हम सभी समझदारी का परिचय दें। (लेखक भाजपा के वरिष्ठ नेता हैं)

गुरुवार, 30 सितंबर 2010

हिन्दुओ का कलंक धुला

विजय मुबारक

सत्यमेव जयते
सत्य सदा जीतता है
जीत के लिए भारतवर्ष को बधाई
जय श्री राम

बुधवार, 29 सितंबर 2010

देश के नाम सन्देश

जय श्री राम , जय श्री राम , जय श्री राम
जब तक आप इस पोस्ट को पढ़ रहे होंगे , देश की अस्मिता से जुड़े एक महत्व पूर्ण मामले में फैसला आ चुका होगा । कहा जा रहा है कि फैसला देश के सामाजिक सद्भाव को बिगाड़ सकता है , पर जरा सोचे क्या ऐसा होना चाहिये । फैसला कुछ भी आये देश को राम मंदिर के लिए आगे आना चाहिये , ताकि इस विवाद का सदा के लिए अंत होता सके । मंदिर बनाने में जो भी विरोध है वो हमारे देश के कुछ दोगले नेताओ के दिमाग कि उपज है । तारीफ कि बात यह है कि देश के ९९ परसेंट मुसलमान भी येही चाहते है कि वहा मंदिर बना कर मामले का सदा के लिए निबटा दिया जाये । हिन्दुओ को भी चाहिये कि अयौध्या में मंदिर से २ किलोमीटर दूर मुसलमानों के लिए अपने पैसे से मस्जिद बनबा दे । भारत में भले ही तमाम धर्मो के लोग रहते है , पर या तो उनका मूल हिन्दू धर्म है या वे धरामान्त्रित है ।

गुरुवार, 23 सितंबर 2010

बिहार चुनावों में क्‌या अयोध्या मुद्दा बन जायेगा?


रोहित कुमार सिंह

बिहार में चुनावी बिगुबज चुका है। इसके साथ जदयू, राजद, भाजपा, कांग्रेस व लोजपा स्वयं को चुनावी महासमर में झोंक चुके हं। जाहिर है अब दौर आरोप-प्रत्यारोप का है, जम कर चुनावी तीर च रहे हैं. वैसे मुद्दों की तलाश जारी है, जो हवा का रुख बदल सकें. लिहाजा , हवा में उड़नेवाली हर बात संभावनाएं तलासी जा रही हैं. इस बीच उत्तर प्रदेश से आ रही एक खबर ने बिहार के नेताओं की नींद खराब कर दी है. खबर यह है कि कोर्ट विवादित भूमि के मामले में 28 सितंबर को सुनवाई कर फैसला देगा. सो अब तक नेपथ्य में चल रहा मुस्लिम व हिंदू वोट बैंक का मुद्दा टैक पर बहुत तेजी से बढ़ता दिख रहा है. हलाकि चौकड़ी इस मुद्दों पर मुंह नहीं खोल रही है किंतु अंदरखाने में यह रणनीति जोरों पर बन रही है कि अगर मंदिर के पक्ष में फैसला आया तो क्‌या करना होगा और अगर कोर्ट ने मसजिद के पक्ष में आदेश दिया तो कौन-कौन कदम उठाने होंगे. देखा जाये तो इन नेताओं की चिंता जायज भी है. विवादित भूमि प्रकरण का इतिहास-भूगोल भारत में किसी को बताने की जरूरत नहीं है. 90 के दशक की पूरी राजनीति इसी के इर्द-गिर्द घूमती रही थी. सो यह ऐसा मुद्दा है, जिसे “बकरी के बच्चे की तरह टोकरी के नीचे नहीं छिपाया जा सकता है. इस बात को यहां के राजनेता पूरी तरह समझ रहे हैं. सो अगर अयोध्या यहां मुद्दा बना तो तमाम दल की रणनीति इसकी सूनामी में बह जायेगी, यह बात पक्‌की है. बिहार धार्मिक रूप से ज्‌यादा संवेदनशील नहीं माना रहा है. यहां अब तक मंडल वाद की राजनीति का डंका रहा है. “कमंडल ‘ (मंदिर आन्दोलन ) की आंधी में भी यहां मंडल का किला मजबूत रहा था. लेकिन यह बात भी उतनी ही सत्य है कि अब बिहार की सियासी स्थिति बदल चुकी है. बिहार में भी इन दो दशकों में बांगला देशी घुसपैठ, आतंकवाद, सरकारी तुटी करण आदि मुद्दे बन चुके हैं. 1991 से 2001 के बीच बिहार के 12 जिलो में मुसलमानो की जनसंख्‌या तेजी से बढ़ी है. अररिया, पूर्णिया, बेतिया, सीतामढ़ी, बक्‌सर, नवादा, किशनगंज, कटिहार, शिवहर, पटना, जहानाबाद, जमुई में मुसलिम जनसंख्‌या की वृद्धि दर लगभग 30 प्रतिशत की रही है, जाहिर है वोट बैंक की राजनीति करनेवाले इसकी अनदेखी किसी कीमत पर नहीं कर सकते हैं. इस बदलाव से 243 सदस्यीय विधानसभा की 35-40 सीटें मुसलिम जनसंख्‌या बहुल हो गयीं हैं. सो इस हॉट केक के बीच अयोध्या मसला आयेगा तो राजनीति का ऊंट करवट लेगा ही. इसके साथ राजनीति के पटल पर नरेंद्र मोदी के उदय ने नया समीकरण बना दिया है. विकास के साथ हिंदुत्व का फार्मूला जो अब पूरे देश के युवाओं को आकर्षित कर रहा है. मानें या न मानें मोदी देश के युवाओं के आइकॉन बन कर उभरे हैं. अभी हाल में भाजपा की राजधानी में हुई रैली में उन्हें सुनने के के लिए जो भीड़ जुटी थी, वह बता रही है कि इस बार मंदिर-मसजिद के बयार से बिहार अछूता नहीं रहने जा रहा है. लिहाजा गेम प्लान बदलना राजनीतिक दल की मजबूरी बन सकती है.


रविवार, 29 अगस्त 2010

शर्म करो, मत गाओ पाकिस्तान की


एक कहावत है , कुछ लोग जिस थाली में खाते है , उसी में छेद करते है । हमारे कश्मीर में एसे लोगो की जमात खड़ी होता गई है । ये वो लोग है जो जेहाद के नाम पर कांग्रेस के समर्थन से देश को बर्बाद कर रहे है ।

बानगी देखे : २९ अगस्त को श्रीनगर और राज्य के अन्य हिस्सों में अलगाववादी संगठनों ने विरोध प्रदर्शन का आह्वान किया। भारी संख्या में लोग सड़कों पर उतरे और भारत विरोधी नारे लगाए और पाकिस्तान के झंडे फराए ।

अगर आतंक में भगवा है तो तिरंगे में क्या है?

यह श्री तरुण विजय की रचना है , जिसे हम साभार प्रकाशित कर रहे है ।
तरुण विजय
लगातार दूसरे दिन राज्य सभा में गृह मंत्री चिदबंरम द्वारा भगवा आतंकवाद शब्द का उल्लेख किए जाने के विरोध में हंगामा हुआ तथा सदन दो बार स्थगित करना पड़ा। इस संदर्भ में आश्चर्य की बात यह रही कि जो लोग इस बात पर छत पर खड़े होकर चिल्लाते रहे कि आतंकवाद के साथ किसी मज़हब, रंग या विचारधारा को जोड़ना गलत है क्योंकि आतंकवादी चाहे किसी भी मज़हब या संप्रदाय के हों, वे खूनी, निर्मम और अमानुषिक होते हैं। आतंकवादी का न कोई मज़हब होता है, न विचारधारा। जो लोग अब तक यही बात उस आतंकवाद के बारे में कहते रहे जो सीधे-सीधे इस्लाम के फैलाव और हिंदुओं तथा भारतवर्ष से नफरत पर टिका रहा है, वही अब उछल-उछलकर भगवा रंग को आतंकवाद से जोड़कर ऐसी खुशी मना रहे हैं मानो आतंकवाद का भगवाकरण किसी राष्ट्रीय त्यौहार का विषय हो।
संकीर्ण सांप्रदायिकता और अराष्ट्रीय राजनीति का अतिवादी घिनौना स्वरूप इसी प्रकार की त्रासद विडंबनाएं प्रस्तुत करता है। ये राजनेता वे लोग हैं जो अपने संकीर्ण स्वार्थों के लिए देशहित और राष्ट्रीय सभ्यता से खिलवाड़ करने में नहीं चूकते। भगवा रंग भारतवर्ष का रंग है। यह त्याग, तपस्या, बलिदान और वीरता का रंग है। अगर आकाश का रंग नीला और प्रकृति का रंग हरा माना जाता है, उसी प्रकार भारतवर्ष की मूल चेतना और आत्मा का रंग भगवा है। ऋषि-मुनियों ने भारत की आध्यात्मिकता और परहित के लिए अपना बलिदान देने की परंपरा भगवा रंग से अभिव्यक्त की। भगवा वीर सिक्ख परंपरा का रंग है। गुरू गोबिंद सिंह की पताका का रंग भगवा था। जब पिछले दिनों डॉ. मनमोहन सिंह अमृतसर की यात्रा पर गए थे तो पूरे शहर को तथा श्री हरमंदिर साहिब को भगवा रंग से सजाया गया था। अखबारों में पहले पन्ने पर शीर्षक थे- "अमृतसर भगवा हो गया।" क्या गृह मंत्री कहेंगे कि उस समय प्रधानमंत्री के स्वागत में अमृतसर ने आतंकवादी रंग धारण कर लिया था? भारतवर्ष के राष्ट्रीय ध्वज का पहला रंग भगवा है। संविधान में उस रंग की व्याख्या करते हुए उसे त्याग, तपस्या तथा बलिदान की भावना से जोड़ा गया है। क्या अब सोनिया गांधी की सरकार हिंदूनिष्ठ विचारधारा से नफरत के उन्माद में अब संविधान में संशोधन कर तिरंगे से भगवा हटाएगी या उसकी व्याख्या में लिखेगी कि भगवा रंग आतंकवादियों का रंग है?
देश में अभारतीय मानसिकता का वैचारिक विद्वेष इस पागलपन के चरम तक पहुंच गया है कि इटालियन मूल की उस महिला को सुपर प्राइम मिनिस्टर बनाने में किसी कांग्रेसी या सेक्युलर को परहेज़ नहीं होता, जिसने विवाह के बाद 13 साल सिर्फ यह सोचने में लगा दिए कि वह भारत की नागरिकता ग्रहण करे या न करे, लेकिन भारत के गौरव और तिरंगे की शान के प्रतीक विश्वनाथन आनंद की नागरिकता पर शक पैदा कर उन्हें डॉक्टर ऑफ फिलॉसफी का सम्मान देना रोक दिया गया था। भारत से गोरे अंग्रेज चले गए पर उन काले अंग्रेजों का राज कायम रहा, जिनका दिल और दिमाग हिंदुस्तान में नहीं बल्कि रोम, लंदन या न्यूयॉर्क में है।
गृह मंत्रालय के सूत्रों के अनुसार 65 हजार से अधिक लोग उस जिहादी आतंकवाद के शिकार हो चुके हैं जो अपने पर्चों, इश्तहारों और बयानों में दावा करता है कि वह इस्लाम के नाम पर निज़ामे मुस्तफ़ा कायम करने के लिए हिंसा का सहारा ले रहा है। ये वे लोग हैं जिन्होंने अपने संगठनों के नाम इस्लाम की विचारधारा यहां तक कि पैगम्बर साहब तक के नाम जोड़ते हुए रखे हैं जैसे- जैशे मोहम्मद, लश्करे तैय्यबा, हिज़बुल मुजाहिदीन, स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट (सिमी)। ये लोग खुद ही कहते हैं कि वे जो भी कर रहे हैं, अपने मज़हब के लिए, उसका प्रभाव बढ़ाने के लिए और जो उनके मार्ग की बाधाएं हैं, उनको खत्म करने के लिए कर रहे हैं। मैं खुद यह पसंद नहीं करता कि किसी भी आतंकवाद को मज़हब से जोड़ा जाए। मेरे मुस्लिम मित्रों की संख्या उतनी ही होगी, जितने मेरे हिन्दू मित्र हैं। और वस्तुत: मित्रता इस कारण नहीं होती है कि कोई हिन्दू है या मुस्लिम। बल्कि इसलिए होती है कि आत्मीयता के धागे मज़हब और उपासना पद्धति के दायरों से ऊपर उठे होते हैं लेकिन जब स्वयं आतंकवादी संगठन अपने को ज़िहादी कहें और टाइम्स ऑफ इंडिया तथा हिन्दुस्तान टाइम्स जैसे अखबार, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या भाजपा द्वारा तो कतई संचालित नहीं कहे जा सकते, इन संगठनों की आतंकवादी गतिविधियों को इस्लामी आतंकवाद के नाम से अपने शीर्षकों में लिखें तो चिदंबरम साहब तथा उनकी पार्टी सेक्यूलर संतुलन के छद्म नाटक के लिए भारतवर्ष के इतिहास और गौरवशाली परंपरा से खिलवाड़ करने का गुनाह क्यों कर रहे हैं? यह सब उस समय क्यों हो रहा है जब सत्ता के शीर्ष पर सोनिया गांधी हैं? इस देश में ही यह होता है कि तिरंगे के लिए जान देने वालों को कश्मीर से उजाड़ा जाता है, एनसीईआरटी की पुस्तकों में जब गुरु तेग बहादुर साहिब की शहादत का मजाक उड़ाने तथा औरंगजेब को निर्दोष साबित करने वाले पाठों से विकृतियां हटायी जाने लगीं तो वामपंथियों और कांग्रेसियों ने उसे भगवाकरण का नाम दे दिया, विरोध किया।
भगवाकरण या भगवा रंग क्या गाली के रूप में है? क्या भगवा रंग धिक्कार का रंग बनाया जाना चाहिए? एक हमला हुआ था गोरी और गजनवी का, वह भी भगवा के खिलाफ था। इस देश के खिलाफ विदेशी हमले भारत के मूल स्वरूप, चेतना, और यहां के नागरिकों की सभ्यतामूलक संस्कारों को ध्वस्त करने के लिए हुए। 1947 में भारत विभाजित करने के बाद हिंदुओं को लगा था कि सदियों के आक्रमणों के बाद अब वे शांति से अपनी जीवन परंपरा और धर्म का अनुगमन कर सकेंगे लेकिन ऐसा लगता है कि सोनिया के राज में गोरी और गजनवी की हिंदू विरोधी परंपरा जारी है। इसकी अपनी प्रतिक्रिया होगी और इसका दोष हिंदुओं पर नहीं विदेशी मन वाले सेक्यूलरों पर होगा।

बुधवार, 18 अगस्त 2010

सचमुच, यह भारत में ही हो सकता है

'भोपाल पर और हर्जाना भूल जाओ'
अमेरिका ने भारत को एक तरह से धमकाते हुए संकेत दिया है कि अगर उसने भोपाल गैस त्रासदी के लिए अमेरिकी कंपनी डाउ केमिकल से ज्यादा हर्जाना वसूलने की जिद नहीं छोड़ी तो दोनों देशों के रिश्ते पर असर पड़ सकता है। यह बात एक वरिष्ठ अमेरिकी अधिकारी ने योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया को भेजे एक ईमेल में कही है। समाचार चैनल टाइम्स नाउ के मुताबिक अमेरिका के डेप्युटी नैशनल सिक्युरिटी अडवाइजर फ्रोमैन माइकल ने आहलूवालिया को भेजे हाल के एक ईमेल में कहा है,'हम यहां अमेरिका में डाउ केमिकल मुद्दे को लेकर काफी हो-हल्ला देख रहे हैं। इस मामले की सभी बारीकियां तो पता नहीं हैं, पर मैं समझता हूं हम लोग ऐसी स्थितियों से बचना चाहते हैं जिनका हमारे निवेश संबंधों पर बुरा असर पड़ेगा।' फ्रोमैन ने यह ईमेल आहलूवालिया के उस मेल के जवाब में भेजा है जिसमें उन्होंने वर्ल्ड बैंक से आसान शर्तों वाले लोन जारी रखने में अमेरिकी सहायता का अनुरोध किया था। इस ईमेल के बारे में पूछे जाने पर आहलूवालिया ने कहा कि वह 'ऐसे किसी भी मामले पर अमेरिका के साथ चर्चा नहीं चला रहे जो अदालत के अधीन है।' जब उनसे पूछा गया कि क्या अमेरिका की तरफ से भोपाल गैस मामले में थोड़ा धीरे चलने का दबाव है, तो उन्होंने कहा, मैं इन ईमेल को दबाव बिल्कुल नहीं मानता।

हे शांति की संतानों अब भी तो कुछ करो

चीन की सैन्य तैयारियां और अमेरिकी रिपोर्ट
चीन की सैन्य तैयारियों के बारे में अमेरिकी प्रतिरक्षा मुख्यालय पेंटागन की ताजा रिपोर्ट में कम-से-कम जानकारों के लिए कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं होना चाहिए। चीन ने भारत से जुड़ी सीमाओं पर तैनात पुरानी मिसाइलों को ज्यादा उन्नत मिसाइलों से बदल दिया है। उसने भारतीय सीमाओं पर सैनिकों को जमा करने की आकस्मिक योजना तैयार की हो सकती है। अब उसके निशाने की जद में सिर्फ अपना पास-पड़ोस ही नहीं, पूरी दुनिया है। वह अपनी सैन्य तैयारियों को लेकर भारी गोपनीयता बरत रहा है। सवाल यह है कि आखिर कौन-सा देश है जो यही सब नहीं करेगा या करना चाहेगा।भारत में हमें यह रिपोर्ट पढ़ते हुए भूलना नहीं चाहिए कि यह अमेरिकी रिपोर्ट है। चीन के बढ़ते प्रतिरक्षा खर्च के बारे में हमें वह देश आगाह कर रहा है, जिसका अपना प्रतिरक्षा बजट चीन से काफी अधिक और दुनिया में सबसे ज्यादा है। फिर स्थापित महाशक्ति अमेरिका और उभरती महाशक्ति चीन के बीच अदावत जानी-पहचानी है। इस किस्म की रिपोर्ट से एशिया में चीन की बढ़ती ताकत के प्रति चिंता पैदा करके हथियारों की होड़ को बढ़ावा देना उसका मकसद हो सकता है। इसमें उसका दोहरा फायदा है। वह चीन के खिलाफ उसके ही पड़ोस में चुनौती खड़ी करेगा और हथियार बेचकर मुनाफा भी कमाएगा।पहला सबक तो यह है कि किसी अमेरिकी रिपोर्ट के आधार पर दहशतजदा होने या अपनी रणनीति बनाने के बजाय हम खुद अपनी रिपोर्ट तैयार करें। पिछली सदी के अंत में चीन के उभार को भांपकर अमेरिका ने ऐसी रिपोर्ट तैयार करने के लिए बाकायदे कानून बनाया था। उसी के तहत वर्ष 2000 से हर साल पेंटागन ऐसी रिपोर्ट पेश करता है। हमारे सैन्य प्रतिष्ठान में विभिन्न स्तरों पर चीन की रक्षा तैयारियों पर लगातार निगाह रखने और विश्लेषण करने का काम होता ही होगा। क्या अब समय नहीं आ गया है, जब हम भी ऐसी ही प्रामाणिक रिपोर्ट तैयार करें, संसद में रखें और उस पर सार्वजनिक बहस करें?चीन के साथ हमारा अप्रिय और कटु जंग का इतिहास रहा है। हालांकि 1962 के बाद दोनों तरफ की नदियों में काफी पानी बह चुका है, पर सीमा विवाद अब भी अनसुलझा है। फिर दो महाशक्तियों के उभार के दौरान संबंध कैसे मोड़ लेंगे, कहना कठिन है। इसलिए चीन की बढ़ती ताकत से भयभीत होने की जरूरत नहीं, लेकिन उसकी एकनिष्ठ स्वार्थपरता को गंभीरता से नहीं लेने की गलती भी हमें नहीं करनी चाहिए।

रविवार, 18 जुलाई 2010

ठंडी राख में चिंगारी की तलाश

देखते ही देखते राम मंदिर आंदोलन को दो दशक बीत गए। इस बीच अयोध्या की सरयू नदी में काफी पानी बह चुका है। आंदोलन के समय कई नेता, साध्वी और संत खूब सुर्खियों में रहे। धुआंधार और आग उगलने वाले भाषणों ने उन्हें जमकर लोकप्रियता दिलाई।जिनकी एक आवाज पर लाखों की भीड़ मैदानों में उमड़ती थी, वे वक्त के साथ जाने कहां खो गए। छह दिसंबर 1992 के बाद आंदोलन की आग ठंडी होती गई। अगली कतार के नेताओं में से कुछ तो मंदिर को पीछे छोड़कर भाजपा की राजनीति के सहारे आगे बढ़ गए, लेकिन ज्यादातर खुद को आज तक ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। सत्ता में आकर मंदिर को भूल बैठी भाजपा से उन्हें ढेरों शिकायतें रही हैं। उनका कहना है कि भाजपा ने यह मुद्दा हथियाकर सियासी फायदा बटोरा। आंदोलन के इन किरदारों में से अब कोई भागवत कथाओं में व्यस्त है तो कोई पिछड़े इलाकों में शिक्षा के प्रसार में जुटा है। कुछ शीर्ष बुजुर्ग नेताओं का जोश उम्र और सेहत के चलते ढलान पर है। वे इस समय मंदिर मुद्दे की ठंडी पड़ चुकी राख से चिंगारी की तलाश में अयोध्या में हैं। विश्व हिंदू परिषद व भाजपा के इन झंडाबरदारों से बातचीत-अब जो होगा, उसकी आप कल्पना नहीं कर सकते-अशोक सिंघलइलाहाबाद. विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष अशोक सिंघल इन दिनों स्वास्थ्य लाभ ले रहे हैं। वे 84 साल के हैं। जून में उनकी एंजियोप्लास्टी हुई है। दूसरों को मंदिर का मसला भले ही एक भूला-बिसरा अध्याय लगे, लेकिन सिंघल ऐसा मानने को कतई राजी नहीं हैं। उन्हें भरोसा है कि माहौल भले ही नजर न आए, लेकिन मंदिर को लेकर अंडर करेंट है और करोड़ों लोग सही वक्त का इंतजार कर रहे हैं। वे कहते हैं-‘अभी आप सोच नहीं सकते कि अयोध्या को लेकर अब क्या होने वाला है?’आंदोलन के इतने अरसे बाद मंदिर मुद्दे की प्रासंगिकता के सवाल पर वे कड़क अंदाज में जवाब देते हैं-‘देखिए, राम मंदिर के संदर्भ में प्रासंगिकता शब्द ही गलत है। राम समयातीत हैं और मंदिर का मुद्दा लोगों के दिलों में सदियों से ताजा है। एक संकल्प के बाद ढांचे को ढहते दुनिया ने देखा, दूसरे संकल्प के बाद मंदिर बनता हुआ देखेंगे और यह जल्दी ही होने वाला है। इस भूल में मत रहिए कि मुद्दा भुलाया जा चुका है।’ जिला अदालत में 40 साल लगे, हाईकोर्ट में 20 साल बीत गए, इसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट में अटका तो? सिंघल का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट तक मामला जा नहीं पाएगा। हम संसद में फैसले के लिए सरकार को मजबूर कर देंगे। जब शाहबानो के लिए कानून बदल सकता है तो यह करोड़ों लोगों की आस्था का प्रश्न है। देश में ताकत का ऐतिहासिक प्रदर्शन होगा।अबकी दफा भाजपा की भूमिका क्या होगी? हंसते हुए वे कहते हैं कि भाजपा वहां होगी, जहां ताकत होगी। सिर्फ भाजपा ही नहीं आप कांग्रेस के लोगों को भी हमारे साथ खड़ा देखेंगे। भाजपा से हमें कोई शिकायत नहीं है। उसने केंद्र में सरकार बनाई लेकिन 180 सांसदों के साथ करती क्या, वह तो ताकतहीन थी। लेकिन इस समय आप कल्पना नहीं कर सकते, जो अब होने वाला है। थोड़ा धर्य रखिए। शक्ति की पहचान नहीं है आपको। इसलिए ऐसे सवाल करते हैं।मंदिर आंदोलन के अपने संगियों आचार्य धर्मेद्र और ऋतंभरा से मेल-मुलाकातें होती हैं? सिंघल का जवाब है-‘हम लगातार मिलते रहे हैं और यह सब एक बार फिर देश के सामने आने वाले हैं।’ आखिर क्या होने वाला है? वे शांत स्वर में बताते हैं कि अगस्त से चार महीने तक एक व्यापक अभियान शुरू होने वाला है। लोग संकल्प लेंगे और सरकार को मजबूर कर देंगे। भारत में इससे पहले ऐसा कभी देखा नहीं गया होगा। यह सब राम ही कराएंगे। किसी राजनीतिक दल की क्या कूवत है?हंस बनकर दिखाते, उल्लू तो पहले ही कम नहीं थे-आचार्य धर्मेद्रजयपुर. आचार्य धर्मेद्र वह नाम है, जिसने आंदोलन के दिनों में देश भर में जबर्दस्त हवा बनाई। भरी सभाओं में उनकी बुलंद आवाज और साफगोई का अपना ही अंदाज रहा है। बेखौफ ढंग से वे इतिहास की कड़वी सच्चइयों को पेश करते रहे हैं। अब यह सब यादों में बाकी है।वे मंचों पर तो अब भी आते हैं और धारदार भाषण भी देते हैं, लेकिन भीड़भाड़ और सुर्खियों की वह चमक नदारद है। ये मंच आमतौर पर विश्व हिंदू परिषद के होते हैं, जहां वे सबसे बाद में भाषण के लिए बुलाए जाते हैं। उन्हें सुनने वाले आखिर तक उनका इंतजार करते हैं। इनमें ज्यादातर विहिप के कार्यकर्ता या संत होते हैं। यह बात और है कि इन श्रोताओं के लिए आचार्य के भाषणों में नया कुछ नहीं होता। वे मानते हैं कि हिंदू समाज के एक महान् मकसद को राजनीतिक मुद्दा बना दिया, फिसलन तभी शुरू हो गई। जनता खुद को ठगाया हुआ महसूस करती है। अयोध्या में बाबरी ढांचा धराशायी होते ही अधिकतर लोग पश्चाताप की मुद्रा में आ गए। भाजपा को ऐसे समय हंस बनना चाहिए था, राजनीति की शाखों पर उल्लू पहले ही कम नहीं थे। लेकिन एक भाजपा नेता ने यह तक कह दिया कि मंदिर एक चेक था, जो एक बार कैश हो चुका है। दूसरे नेता ने कहा कि ऐतिहासिक साक्ष्य के रूप में ढांचे को बचाकर रखना था। मंदिर बगल में बन जाता। ऐसी सोच निकली इनकी। यह अपमानजनक है। आचार्य कहते हैं कि भाजपा को सोचना चाहिए कि उसने जनता की विश्वसनीयता क्यों खोई? अगर फिर से विश्वास हासिल करना चाहते हैं तो वह जेठमलानी और जसवंत के बूते पर हासिल नहीं होगा, सबसे पहले जनता से खुली माफी मांगनी होगी। उसे सेकुलर होने की होड़ में नहीं पड़ना चाहिए। असली सेकुलर तो सोनिया गांधी हैं। वे मानते हैं कि हिंदुत्व हाशिए पर नहीं है। जमीनी कार्यकर्ता आज भी हाहाकार कर रहा है। वह अपने सौदेबाज और मौकापरस्त नेताओं से निराश है, जो सत्ता की सियासत के हम्माम में सबके साथ निर्वस्त्र नजर आ रहे हैं। अपनी मौजूदा गतिविधियों के बारे में आचार्य बताते हैं कि उनके पिता स्व. रामचंद्रजी महाराज ने उन्हें एक रास्ता दिया, जिस पर वे अपनी चाल से चलते रहे हैं। यह है-अखंड भारत और निर्भय गोवंश का रास्ता। वे याद करते हैं कि उनके पिता अपने समय के ऐसे राष्ट्रवादी थे, जिन पर रवींद्रनाथ टैगोर ने वंदना गीत रचा था। सौ साल की उम्र में जब उनका देहावसान हुआ तो आचार्य से उनके अंतिम शब्द थे-‘पाकिस्तान मिटा कि नहीं?’ जाहिर है, आचार्य की बोली-वाणी में जो आग है, वह उन्हें विरासत में मिली। हनुमान की पूंछ में आग एक बार ही लगती है-विनय कटियारनई दिल्ली. संघ परिवार में उत्साही नौजवानों के लिए बजरंग दल का गठन हुआ। इसके संस्थापक अध्यक्ष बने विनय कटियार। मंदिर आंदोलन के नेतृत्वकर्ताओं में यह एक ऐसा नाम है, जो आंदोलन के समय राजनीति के क्षितिज पर चमका।बाद के वर्षो में आंदोलन भले ही शांत होता गया हो लेकिन आंदोलन से मिली ऊर्जा पाकर विनय कटियार का राजनीतिक रथ बेधड़क चल पड़ा। बीते दो दशकों में वे तीन बार लोकसभा के लिए चुने गए, फिलहाल राज्यसभा में हैं। संगठन में भी उन्हें ऊंचे ओहदे मिले। वे भाजपा की उत्तरप्रदेश इकाई के अध्यक्ष बनाए गए और फिर राष्ट्रीय महासचिव भी। अपने गृह प्रदेश में वे पार्टी का जीर्णोद्धार भले ही न कर पाए हों, लेकिन उनका अपना राजनीतिक सफर कामयाब रहा है। कटियार विहिप के इस आरोप से सहमत नहीं हैं कि भाजपा ने मंदिर को भुला दिया। उनकी दलील है कि मंदिर भाजपा के नियमित चिंतन का विषय कभी था ही नहीं। यह विहिप और राम मंदिर निर्माण समिति का विषय था। कटियार पार्टी की निगाह से इस मसले को देखते हैं। वे यह नहीं मानते कि मंदिर एक बार कैश होने वाला चेक था। वे कहते हैं कि कैश करने की कोशिश ने ही झमेला खड़ा कर दिया। भाजपा की कोशिशें सही दिशा में थीं, हम मंदिर निर्माण के बिल्कुल करीब आ गए थे। लेकिन सरकार में रहते समय से पहले लोकसभा के चुनाव कराने की राजनीतिक भूल का खामियाजा भुगतना पड़ा। अगर चुनाव वक्त से पहले न होते तो भाजपा का दूसरी बार दिल्ली में सरकार बनना तय था। तब मंदिर का काम शुरू होने से कोई रोक नहीं सकता था। वे दूसरे पार्टी नेताओं की तरह यह भी दोहराते हैं कि मंदिर तो छह दिसंबर 1992 को बन चुका है। बस उसे भव्य रूप देना बाकी है। सत्ता हासिल करने के बाद अब अयोध्या में कोई काम नहीं है? इस सवाल पर वे कहते हैं-‘ऐसा नहीं है। भाजपा की बुनियाद ही हिंदुत्व है, वह कभी इससे मुक्त नहीं हो सकती।’ आंदोलन का उफान शांत हुए सालों बीत गए। क्या मंदिर एक सियासी बुखार था, जो उतर गया? बयानों के कारण ही चर्चा में बने रहने वाले विनय कटियार कहते हैं-‘लंका को जलाने के लिए हर समय हनुमान की पूंछ में आग नहीं लगती न। ऐसा एक ही बार होता है।’ अपनी घटी लोकप्रियता पर उनका जवाब है कि राम के जीवन में युद्ध का समय बहुत छोटा सा है। लेकिन ऐसा नहीं उन्होंने बाकी जीवन में कुछ नहीं किया। जब कोई महत्वपूर्ण विषय होता है तो लोकप्रियता बढ़ जाती है। ऐसा हमेशा नहीं हो सकता। इसलिए यह मत कहिए कि लोकप्रियता घटी।मुद्दा भाजपा ने हथियाया फायदा बटोरकर भूल गई-आचार्य गिरिराज किशोरनई दिल्ली. साधू की तरह लंबी सफेद दाढ़ी। चमकदार आंखें। माथे पर चंदन का तिलक। हिंदुत्व के इस प्रबल पैरोकार का नाम आचार्य गिरिराज किशोर है। वे अब 90 पार हैं राम मंदिर का जिक्र आते ही वे एकदम करंट में आ जाते हैं और फिर भाजपा पर बरसने की बारी उनकी होती है। भाजपा केंद्र में सत्ता में आई, क्या किया? इस सवाल पर आचार्य दो टूक शब्दों में कहते हैं-‘कुछ नहीं किया।’ वे कहते हैं कि मंदिर आंदोलन की राजनीतिक योजना भाजपा की थी। हमने कभी मंदिर को नहीं भुलाया। भुलाया उन्होंने है, जिन्होंने इसे राजनीतिक मुद्दा बनाया। दोष उनका है। आंदोलन को भाजपा ने हथिया था और इसका फायदा ले लिया। आचार्य ज्यादातर समय दिल्ली में ही रहते हैं। सेहत पहले की तरह देश भर के तूफानी दौरे की इजाजत नहीं देती। रात ढाई बजे सोकर उठ जाते हैं और भोर होने तक पूजा-पाठ से भी निवृत्त हो जाते हैं। फिर मालिश कराते हैं, अखबार पढ़ते हैं और देश भर से अपने मित्रों व सहयोगी कार्यकर्ताओं से मुलाकात व फोन पर बात हालचाल का सिलसिला शुरू हो जाता है।जब कभी जयपुर जाते हैं तो आचार्य धर्मेद्र से मिलते हैं और कभी-कभार साध्वी ऋतंभरा उनके पास चली आतीं हैं। ऐसे मौकों पर वे अपने इन संगियों के साथ मंदिर आंदोलन के दिनों की यादें ताजा करते हैं। उनका कहना है कि हम तो आज भी मंदिर निर्माण की तैयारियों में लगे हैं। मंदिर की पहली मंजिल के लिए तराशे हुए पत्थर तैयार हैं। दुनिया भर से इकट्ठे हुए सवा आठ करोड़ करोड़ रुपए इस काम में खर्च हुए हैं। इसी साल निर्माण शुरू करने वाले हैं।’ आंदोलन को हुए दो दशक बीत गए। आर्थिक उदारीकरण के बाद देश और समाज बड़े बदलावों से गुजरा है। इस बीच एक ऐसी पीढ़ी तैयार हुई है, जिससे मंदिर मुद्दे का कोई पता नहीं है। क्या हिंदुत्व का ज्वार उतर गया? आचार्य इससे सहमत नहीं हैं। वे कहते हैं ‘आप शहरों से हटकर जरा देहात में जाइए। राम मंदिर अब भी करोड़ों भारतीयों की आंखों में एक सपने की तरह झिलमिला रहा है। भाजपा भले ही अपनी ही दृष्टि से मंदिर को देखती हो, लेकिन यह आम आदमी का मुद्दा अब भी उतना ही है, जितना पहले था।’ वे कहते हैं कि इसी साल अगस्त से विहिप एक आंदोलन शुरू कर रही है। इसके जरिए नई पीढ़ी को भी पता चलेगा कि अयोध्या में राम मंदिर के मायने क्या हैं और सदियों का यह संघर्ष क्यों वाजिब है? हालांकि वे यह भी स्पष्ट कर देते हैं कि अब यह आंदोलन आक्रामक नहीं होगा, बल्कि जनजागरूकता की तर्ज पर चलेगा। मंदिर आंदोलन समाज का था, भाजपा का नहीं-डॉ. प्रवीण तोगड़ियाअहमदाबाद. विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय महासचिव डॉ. प्रवीण तोगड़िया कभी मध्यप्रदेश में झाबुआ, कभी राजस्थान के बाड़मेर तो कभी हरियाणा के अंबाला इलाके में गांवों के रास्तों पर घूमते और स्थानीय लोगों की बैठकें लेते नजर आते हैं। इन दिनों उनका ज्यादा वक्त पिछड़े गांवों की खाक छानने में भी बीतता है, जहां वे विभिन्न जाति-समुदायों की बैठकों में शिक्षा के प्रसार में लगे हैं।इन दिनों क्या चल रहा है? इस सवाल पर वे बताते हैं-हमने 23 हजार गांवों में प्राथमिक शिक्षा के केंद्र खड़े कर दिए हैं। इसके अलावा अनुसूचित जाति-जनजाति बहुल गांवों में तीस हजार सेवा कार्य जारी हैं। डॉ. तोगड़िया नहीं मानते कि भाजपा ने मंदिर आंदोलन के जरिए सत्ता हासिल की और मुंह फेर लिया। उनका कहना है कि असल शक्ति तो हिंदू समाज ने हासिल की है। क्योंकि यह भाजपा का नहीं, समाज का आंदोलन था। पेश से कैंसर सर्जन 53 वर्षीय डॉ. तोगड़िया ने मंदिर आंदोलन के बाद के दौर में त्रिशूल दीक्षा कार्यक्रमों के जरिए अपनी आक्रामक पहचान बनाई। वे खूब सुर्खियों में रहे, लेकिन अब नहीं हैं। मंदिर मुद्दे से बेखबर पढ़ी-लिखी नई पीढ़ी के बारे में डॉ. तोगड़िया कहते हैं कि आधुनिकता और वैश्वीकरण के बावजूद भारत के शिक्षित युवाओं में धर्म के प्रति निष्ठा बढ़ी है। आप वैष्णोदेवी, अमरनाथ और तिरुपति जाकर देखिए। वहां ज्यादातर जींस-टी शर्ट पहनने वाले आधुनिक युवा ही दिखाई देंगे। उनके नए मोबाइल में रामचरित मानस, हनुमान चालीसा और गणोश वंदना सुनाई देती है। मंदिर आंदोलन के वक्त बजरंग दल की पांच हजार इकाइयां थीं, अब ये 54 हजार हैं। हमारा अनुभव है कि ये युवा अपने धर्म और देश के इतिहास के प्रति कहीं ज्यादा सजग हैं। राम मंदिर से लेकर भोजशाला तक आंदोलन तो किए, लेकिन किसी नतीजे तक कहां पहुंचे? डॉ. तोगड़िया का जवाब है कि रामसेतु और अमरनाथ की जमीन का मामला परिणति तक गया और अयोध्या को लेकर संघर्ष थमा नहीं है। अपनी घटी लोकप्रियता पर उनका कहना है कि लोकप्रियता मुद्दे के संदर्भ में होती है। रामसेतु और अमरनाथ के मुद्दे उठे तो विहिप का असर दिखा। यह हमेशा मुमकिन नहीं है। हम हिंदुत्व के कामकाज में तो लगे ही हैं। वे मंदिर को ऐसा मुद्दा नहीं मानते, जिसे दो दशक पुराने राजनीतिक आंदोलन से जोड़कर देखा जाए। उनका कहना है कि यह 450 साल पुराना मुद्दा है, जिसे लेकर हुई 78 लड़ाइयां इतिहास में दर्ज हैं। भाजपा भले ही भूली देश के दिल में जिंदा है-साध्वी ऋतंभरावृंदावन. तेजाबी भाषणों से मशहूर हुईं साध्वी ऋतंभरा मंचों पर तो अब भी नजर आती हैं, लेकिन ये मंच न तो राम मंदिर के लिए सजते, न धारा 370 और न कॉमन सिविल कोड की पैरवी के लिए। धुआंधार लोकप्रियता का वह दौर बीत चुका है। ऋतंभरा अब भागवत कथा के लिए मंचों पर प्रकट होती हैं, जहां कार्यकर्ता कम और भक्त ज्यादा होते हैं। साल में देश में 10-12 आयोजन और पांच-छह कथाएं विदेश में। आंदोलन से हासिल लोकप्रियता को भुनाने के लिए उनके सामने भाजपा में दाखिल होने का मौका था, लेकिन उनके गुरु स्वामी परमानंद ने उस रास्ते पर जाने से रोका।मंदिर आंदोलन का ज्वार उतरने के बाद उन्होंने खुद को अपनी वात्सल्य योजना में व्यस्त किया है। यह अनाथ बच्चों को एक छत के नीचे पारिवारिक माहौल में रखने का कार्यक्रम है। वृंदावन में करीब पांच सौ बच्चों को दूसरे बच्चों की तरह जिंदगी बसर करने का मौका उन्होंने दिया है, जो परिवारों में रहते हैं। इसके साथ ही वे 22 राज्यों में वात्सल्य ग्राम भी बनाने जा रही हैं। वे ब्रह्मचर्य धारण करने वाली बेटियों को नक्सलवाद से ग्रस्त उन इलाकों में सक्रिय करना चाहती हैं, जहां सरकारें भी बेअसर हैं। वे मध्यप्रदेश के ओंकारेश्वर में सौ वनवासी बालिकाओं के लिए संविद गुरुकुल की स्थापना कर रही हैं। उन्हें वे दिन याद आते हैं, जब मंदिर के निर्माण की अलख जगाने वालों में वे भी आगे की कतार में सक्रिय थीं। क्या मंदिर, धारा-370 और कॉमन सिविल कोड अब कोई मुद्दे नहीं हैं? इस सवाल पर वे कहती हैं कि वे मुद्दे किसी राजनीतिक दल के नहीं, देश के हैं। हालात बदले हैं, इसलिए वैसी चर्चा भले न हो, लेकिन मुद्दे देश की पहचान से जुड़े हैं। भावुक होकर 45 वर्षीय साध्वी कहती हैं कि मंदिर का मसला देश के दिल में वेदना की तरह पक रहा है। आम लोगों में अब भी बेचैनी है। हिंदुत्व के सवाल पर उनका मानना है कि हिंदुत्व कभी हाशिए पर नहीं हो सकता। मंदिर आंदोलन की गरमाहट भले ही शांत हो गई हो, लेकिन आंदोलन पुनर्जागरण के मकसद में कामयाब हुआ। आंदोलन से ऊर्जा हासिल कर भाजपा केंद्र की सत्ता में आई, लेकिन मंदिर के नाम पर उसने कुछ नहीं किया। यह मलाल ऋतंभरा को है। वे कहती हैं-‘भाजपा को एक मौका था। वह ये अहम काम कर सकती थी, लेकिन चूक गई। लेकिन इसके बावजूद मंदिर का मुद्दा गुजरा हुआ कल नहीं है।’तब क्या किया और अब क्या करने वाले हैंविश्व हिंदू परिषद ने 1984 में अयोध्या में राम जन्म भूमि स्थल पर मंदिर निर्माण के लिए आंदोलन की शुरूआत की, जिसे बाद में भाजपा ने 1989 में लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में एक बड़ा मुद्दा बनाया। 25 सितंबर 1990 को आडवाणी की बहुचर्चित रथयात्रा निकली। यह रथयात्रा सोमनाथ से शुरू हुई और दस हजार किमी की दूरी तय करके इसे अयोध्या पहुंचना था। लेकिन समस्तीपुर, बिहार में यात्रा को रोका दिया गया। भाजपा को इससे नई ताकत मिली और वह 1984 में संसद में अपनी दो सीटों को बढ़ाकर 1989 में 84 और 1991 में 120 तक ले जाने में कामयाब हुई। ये वो दिन थे तब देश भर में पार्टी की बैठकों और सभाओं में जय-जयश्रीराम के नारे गूंजा करते थे।जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी तो न्यूनतम साझा कार्यक्रम के तहत मंदिर, धारा 370 और कॉमन सिविल कोड जैसे मूल मुद्दों से मुंह फेर लिया। संघ परिवार के बाकी संगठनों को यह बेहद नागवार गुजरा। हाईकोर्ट में राम जन्मभूमि मामले की सुनवाई जारी है। इस महीने आखिरी सुनवाई होनी है और उम्मीद की जा रही है कि सितंबर-अक्टूबर में अदालत का फैसला आ जाएगा। विहिप के सारे शीर्ष अयोध्या में एक साथ इकट्ठे हुए हैं। यहां परिषद की केंद्रीय प्रबंध समिति की दो दिन की बैठक में मंदिर निर्माण का मुद्दा ही अहम होगा। परिषद की प्रांतीय इकाइयों के पदाधिकारी भी यहां आए हैं।परिषद अगस्त में चार लाख गांवों में अभियान शुरू करने जा रही है। इसके जरिए दस करोड़ युवाओं से संपर्क करने का मकसद तय किया गया है। गांव-कस्बों में स्थानीय स्तर पर राम मंदिर निर्माण को लेकर दो-दो घंटे के कार्यक्रम होंगे।

बुधवार, 14 जुलाई 2010

कुछ इनसे भी सीखे भारत के मौलवी

यह लेख सहारा समय से साभार लिया गया है । आप पढ़ कर स्वयं फैसला करें की भारत के मुसलमानों को यहाँ के मुल्ला मौलवी कहा ले जा रहे है ।

यूरोप के देशों में इन दिनों बुर्क़े के विरोध की लहर सी चल रही है। अप्रेल में फ़्रांस के पड़ोसी बेल्जियम की संसद ने भारी बहुमत के साथ बुर्क़े पर इसी तरह की पाबंदी लगाने वाला विधेयक पास किया था। उसके बाद जून में स्पेन की सेनेट ने बुर्क़ा पाबंदी विधेयक पास किया। लेकिन फ़्रांस यूरोप की सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाला देश है।
फ़्रांस की लोकसभा एसेंबली नेत्सियोनाल ने बुर्क़ा पहनने पर पाबंदी लगाने वाला विधेयक भारी बहुमत के साथ पास कर दिया है। लगभग एक सप्ताह की बहस के बाद मंगलवार की शाम को हुए मतदान में एसेंबली नात्सियोनाल के कुल 557 सांसदों में से 335 ने इस विधेयक के पक्ष में और केवल एक सांसद ने विरोध में मत डाला। जैसी कि संभावना थी, विपक्षी समाजवादी पार्टी और ग्रीन पार्टी के सांसदों ने नारीवादियों के दबाव और फ़्रांस के जनमत के रुझान को देखते हुए मतदान का बहिष्कार किया।यह विधेयक फ़्रांस के सार्वजनिक स्थलों और सड़कों पर बुर्क़ा पहनने पर पाबंदी लगाता है। फ़्रांस की एसंबली नेत्सियोनाल में पारित हो जाने के बाद अब यह फ़्रांसीसी संसद के उच्च सदन सेनेट के पास भेजा जाएगा जहाँ इसका सितंबर तक अनुमोदन हो जाने की संभावना है। सेनेट से अनुमोदन मिलने के बाद इसे कानून का दर्जा मिल जाएगा। लेकिन इसे लागू करने से पहले छह महीने तक बुर्क़ा पहनने के ख़िलाफ़ एक जागरूकता अभियान चलाया जाएगा। इसलिए बुर्क़े पर वास्तविक पाबंदी अगले मार्च से पहले लागू नहीं हो सकेगी। बुर्क़ा पाबंदी कानून के लागू हो जाने के बाद सार्वजनिक स्थानों पर चेहरा ढाँपने वाला बुर्क़ा या नक़ाब पहनने वाली महिला पर लगभग दस हज़ार रुपए का जुर्माना किया जा सकेगा। यही नहीं, किसी महिला या लड़की को बुर्क़ा पहनने पर मजबूर करने वाले व्यक्ति को एक साल तक की जेल की सज़ा और बीस लाख रुपए तक का जुर्माना भुगतना पड़ेगा।यूरोप के देशों में इन दिनों बुर्क़े के विरोध की लहर सी चल रही है। अप्रेल में फ़्रांस के पड़ोसी बेल्जियम की संसद ने भारी बहुमत के साथ बुर्क़े पर इसी तरह की पाबंदी लगाने वाला विधेयक पास किया था। उसके बाद जून में स्पेन की सेनेट ने बुर्क़ा पाबंदी विधेयक पास किया। लेकिन फ़्रांस यूरोप की सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाला देश है। फ़्रांस में बसने वाले लगभग पचास लाख मुसलमान उसके अल्जीरिया और मोरोक्को जैसे उपनिवेशों से आए हैं और कई पीढ़ियों से फ़्रांस में हैं। इनमें कट्टरपंथियों की संख्या बहुत कम रही है इसलिए बुर्क़ा पहनने वाली महिलाओं की संख्या पिछले साल तक कुछ सौ से अधिक नहीं थी। लेकिन विडंबना की बात यह है कि पिछले कुछ महीनों के दौरान उनकी संख्या बढ़कर दो हज़ार के लगभग हो गई है जो कट्टरपंथ की लहर होने की बजाए बुर्क़े के ख़िलाफ़ शुरू हुए अभियान की प्रतिक्रिया अधिक लगती है।इसलिए फ़्रांस का मुस्लिम समाज बुर्क़े पर पाबंदी लगाने वाले विधेयक का विरोध कर रहा है। फ़्रांस की मुस्लिम परिषद के अध्यक्ष मोहम्मद मुसावी ने कहा है, “हमारे विचार में बुर्क़े पर इस तरह की आम पाबंदी लगाना कोई समाधान नहीं है।” एमनेस्टी इंटरनेशनल ने यूरोप के सांसदों से बुर्क़े पर पाबंदी लगाने वाले कानूनों का विरोध करने की अपील की है। एमनेस्टी का कहना है कि ये कानून बुर्क़ा पहनने वाली महिलाओं के अधिकारों का हनन करते हैं और उनको समाज से और अलग-थलग करेंगे।मानवाधिकारों के मामले पर फ़्रांस के बुर्क़ा विरोधी कानून को यूरोपीय संघ की स्ट्रासबर्ग स्थित मानवाधिकार अदालत में चुनौती दी जा सकती है और अगर यूरोपीय अदालत इस कानून के ख़िलाफ़ फ़ैसला सुनाती है तो फ़्रांसीसी सरकार को उसे मानना होगा। लेकिन उस से पहले इस कानून पर फ़्रांस की ही सर्वोच्च वैधानिक संस्था राष्ट्रीय परिषद विचार करेगी। यह परिषद पहले ही इस कानून के ग़ैर-संवैधानिक होने की संभावना व्यक्त कर चुकी है।इन सारी संभावित अड़चनों के बावजूद भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से जूझ रही राष्ट्रपति निकला सार्कोज़ी की दक्षिणपंथी यूएमपी सरकार बुर्क़ा विरोधी कानून लागू करने पर तुली हुई है। विधेयक के एसेंबली नेत्सियोनाल में पारित होने के बाद फ़्रांस की कानून मंत्री मिशेल एलियट-मरी ने कहा, “यह उन फ़्रांसीसी मूल्यों की जीत है जो लोगों नीचा दिखाने वाले हर तरह के दमन से मुक्ति की और पुरुषों और महिलाओं के बीच बराबरी का पक्ष लेते हैं, जो असमानता और अन्याय को बढ़ावा देने वालों का विरोध करते हैं।” वैसे यह पहली बार नहीं है कि फ़्रांस में सार्वजिनक स्थलों पर धार्मिक वेषभूषा को लेकर विवाद उठा हो। फ़्रांस अपने धर्मनिरपेक्ष मूल्यों का किसी आधुनिक धर्म की तरह पालन करना चाहता है। इसलिए वहाँ के स्कूलों में धार्मिक आस्था का प्रतीक समझी जाने वाली वेषभूषा और प्रतीकों के पहनने पर रोक है। इसी के चलते 2005 में फ़्रांस के स्कूलों में सिख छात्रों की पगड़ी को लेकर विवाद छिड़ा था और एक अदालत के फ़ैसले के बाद पगड़ी पहनने वाले कई सिख छात्रों को स्कूलों से निकाल दिया गया था।

लेखक - शिवकान्त लंदन से

शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

बैसाखी के सहारे कब तक

बिहार में चुनाव से तीन महीने पहले गठबंधन सरकार के बीच आया राजनीतिक तूफान फिलहाल थम गया है।
दोनों घटक दल अपने राजनीतिक नफा-नुकसान का हिसाब लगाने में जुट गये हैं, क्योंकि उन्हें एहसास है कि वर्तमान राजनीतिक हालात में गठबंधन को जारी रखना ही दोनों दलों के हित में है, इसलिए दोनों दलों के बीच जो कुछ भी हुआ वह प्याले में आये तूफान जैसा ही था। सवाल है कि भाजपा के साथ मिलकर सरकार चलाने वाले दल खुलकर उसकी बगलगीर बनने से क्यों कतराते हैं, भाजपा को इस सवाल पर गंभीरता से सोचना होगा।
अतीत बताता है कि गठबंधन की राजनीति के जरिये भाजपा सत्ता में जरूर रही, पर उसे इस धर्म को निभाने में नुकसान ही हुआ। 1967 में गैर कांग्रेसवाद के नाम पर चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में संघीय सरकार बनी थी। उस समय भी 99 सदस्यों वाले जनसंघ के कुल चार ही लोग मंत्री बने थे। चौधरी के सामने उसकी एक न चली थी। 1977 में भी मोरारजी देसाई के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनी थी, उस दौरान भी अन्य घटक दलों की तुलना में जनसंघ सदस्यों को सरकार और राज्यों में बनी प्रांतीय सरकारों में कम महत्व मिला था। उत्तर प्रदेश में 90 के दशक के बाद भाजपा-बसपा गठबंधन भी कई खट्टे-मीठे अनुभवों के बाद टूटा। एनडीए में उसका ममता की तृणमूल कांग्रेस से तो, उड़ीसा में बीजद से जिस तरह गठबंधन और अलगाव हुआ, उससे यही निष्कर्ष निकलता है कि सभी मध्यमार्गी दल मुस्लिमों के डर से चुनाव के दौरान उससे पल्ला झाड़ लेना चाहते हैं। इन दलों को भी चुनावों में कांग्रेस और कम्युनिस्टों की तरह उसका सांप्रदायिक चेहरा दिखने लगता है। राष्ट्रीय-प्रांतीय राजनीति में अचानक रातोंरात वह ‘अछूत’ हो जाती है। भाजपा के समक्ष आज सबसे जटिल चुनौती यही है कि उसके रणनीतिकार मध्यमार्गी दलों के इस रवैये के प्रति कैसे अपनी दीर्घकालीन रणनीति बनाएं?
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अभी जो कुछ भी किया, वह कोई अप्रत्याशित नहीं है। जिस तरह गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ उनकी तस्वीर आयी, उससे राजनीतिक तूफान अवश्यम्भावी था, क्योंकि उन्हें भाजपा के बगलगीर रहने के कारण मुस्लिम मतों के खिसकने का भय सता रहा है। इसीलिए भाजपा के साथ पांच साल तक सरकार चलाने वाले नीतीश ने उसे सार्वजनिक रूप से अपमानित करने का मौका नहीं गंवाया, लेकिन नीतीश से भी यह सवाल किया जाना चाहिए कि फिर पांच साल से वह भाजपा को बगलगीर क्यों बनाए हुए है? भाजपा भी इस तरह का अपमान सहकर भी सरकार से चिपकी है। ऐसी ही भूल वह तीन बार उत्तर प्रदेश में कर चुकी है। मायावती ने उसका बैसाखी की तरह उपयोग किया और धीरे-धीरे अपनी ताकत बढ़ाकर उसका वोट-बैंक भी चट कर लिया। आज भाजपा उत्तर प्रदेश में काफी कमजोर स्थिति में है। झारखंड में भी उसने यही भूल की। जिस शिबू सोरेन के भ्रष्टाचार को उजागर करने के लिए उसने कई दिनों तक संसद की कार्यवाही नहीं चलने दी, उसके लिए ही वह सत्ता की सीढ़ी बनी। सोरेन ने क्या किया, सरेआम है। भाजपा के अनुरोध को दरकिनार कर संसद में संप्रग के पक्ष में मतदान किया। राजनीतिक नफा-नुकसान का जोड़-घटाव कर बिहार में दोनों दल फिलहाल चुप हैं। संभावना है कि दोनों दलों के बीच कड़वाहट टिकट वितरण के समय नया गुल खिला सकती है।
यह सच है कि नीतीश के आभामंडल के चलते भाजपा अपनी कोई खास प्रभावी छवि नहीं बना सकी है। उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी पर इसी कमजोरी को लेकर पार्टी के अंदर उंगलियां उठती रही हैं। आज अगड़ी जातियां मुख्यमंत्री से नाराज हैं। इसकी मुखर अभिव्यक्ति भी वे कर चुके हैं, किंतु भाजपा इस वोट बैंक पर अपनी मजबूत पकड़ नहीं बना पा रही है, क्योंकि अगड़ों के सवालों को लेकर वह मुख्यमंत्री के समक्ष चुनौती खड़ा नहीं कर पा रही है। इसलिए राजपूत, भूमिहार, ब्राह्मण और कायस्थ आसन्न विधानसभा चुनाव में रणनीतिक तौर पर मतदान करने की योजना बना रहे हंै। उनके समक्ष बिहार में नीतीश के नेतृत्व में अतिपिछड़ा और महादलित गठबंधन को चुनौती देने की है, ताकि उन्हें उनकी (अगड़ी जातियों) ताकत का एहसास हो सके। इसीलिए इनका झुकाव भाजपा की तरफ है, किंतु अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि के चलते भाजपा के खिलाफ नीतीश ने जो तेवर दिखाये, भाजपा उसे उतनी तेजी से अपने पक्ष में भुना नहीं सकी। गठबंधन चलाने के लिए उसकी लाचारी झारखंड जैसी ही दिखी, जिसके चलते अगड़ी जातियों का उससे भी मोहभंग होता दिख रहा है। उसे यह समझना चाहिए कि परिसीमन के बाद जो नये राजनीतिक समीकरण बने हैं, उसमें अकेले चुनाव लड़कर सफलता पाना नीतीश के लिए आसान नहीं होगा क्योंकि चतुष्कोणीय संघर्ष में सत्ता हासिल कर पाना अकेले किसी के लिए दूर की कौड़ी ही है। ऐसे में, भाजपा को जद-यू के समक्ष अपनी दब्बू छवि को तोड़ना होगा। साथ ही, अपने पक्ष में शीघ्र डैमेज कंट्रोल की रणनीति बनानी होगी, ताकि अगड़ी जातियों का विश्वास उनसे न डिगे। यघपि लालू प्रसाद और रामविलास पासवान भी इस पहलू को भांप चुके हैं और उन्हें रिझाने की कोशिश में कूटनीतिक चालें चलनी शुरू कर दी हैं, किंतु अगड़ी जातियां लालू-राबड़ी राज के पंद्रह साल को अभी भूली नहीं हैं। कांग्रेस के प्रति भी इन जातियों का आकर्षण है, किंतु इस पार्टी में इतनी गुटबंदी है कि वहां हर कोई एक दूसरे को कमजोर करने में लगा है। निचले स्तर तक पार्टी का मजबूत संगठन न होने का भी लाभ इस चुनाव में भाजपा को मिल सकता है। शायद यही लोभ उसे जद-यू से भी जोड़े रखे।
दरअसल, भाजपा को स्वतंत्र ढंग से अपनी ताकत को समझना होगा। स्थापना के तीस साल के भीतर वह तीन बार देश की सत्ता में रही है। अटल-आडवाणी के नेतृत्व में उसने भारतीय राजनीति में गठबंधन राजनीति को नया आधार दिया, पर आज वही भाजपा अपनी ताकत को नहीं पहचान पा रही है। उत्तर प्रदेश, झारखंड और उड़ीसा में गलबहियां कर सरकार चलाने वाली पार्टियां ऐन चुनाव के वक्त सांप्रदायिकता का आरोप लगाकर उससे अलग हो जाती हैं या फिर ऐसी स्थिति पैदा करती हैं कि उसे खुद ही अलग होना पड़ता है, लेकिन सहयोगी दलों को कटघरे में खड़ा करने से पहले खुद भाजपा को भी सोचना होगा कि उसकी दोयम दर्जे की स्थिति क्यों बन जाती है। यूपी- उड़ीसा हो या बिहार-झारखंड, सभी जगह उसने गठबंधन इसीलिए किये कि इन राज्यों में वह स्वतंत्र ढंग से मजबूत नहीं हो सकती थी।
ऐसे में, उसे अपने ही खोल में झांकना होगा कि इसके लिए क्या उसकी नीतियां जिम्मेदार नहीं है? अपने विभिन्न निहित स्वार्थों के लिए ही वह भी मध्यमार्गी दलों से हाथ मिलाती रही है। सत्ता-सुख के स्वाद में उलझती हुई धीरे-धीरे वह अपना स्वतंत्र अस्तित्व खोने लगती है। ऐसी स्थिति में वह विपक्ष की भी आवाज नहीं बन पाती। राज्य में उसके नेता सत्ता लाभ में आकंठ डूब जाते हैं और इसका फायदा गठबंधन का मुख्य दल उठाता है। ऐसे में, इन राज्यों में उसे भी इस नए ढंग से सोचना होगा कि वह कैसे इन राज्यों में एक मजबूत संगठन बने। शायद इसी सोच के साथ ही वह खुद को मुख्यधारा में रख सकेगी। रक्षात्मक कदम उसे यूपी की ही राह पर ले जाएगा।

यह लेख रणविजय सिंह जी ने सहारा समय पर २८ जून को लिखा था । हम इसे कॉपी कर साभार प्रकाशित कर रहे है । ............................... बिग हिन्दू

सोमवार, 21 जून 2010

पोस्टर गलत, पर सवाल सही

उत्तर प्रदेश में आज कल यह पोस्टर चर्चा का विषय बना हुआ है । हलाकि इसकी भाषा पर सवाल खड़े किये जा रहे है , पर पोस्टर में उठया गया सवाल जायज है । उत्तर प्रदेश के फैजाबाद में संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरू और कांग्रेस को निशाने पर लेकर लगाए गए पोस्टर ने हलचल मचा दी है। कांग्रेस ने इस पोस्टर पर कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए इसे दिमागी दीवालियापन करार दिया है।यह पोस्टर भाजपा के नेता विनय कटियार की 25 जून को अंबेडकरनगर में होने वाली जनता जागो रैली के लिए लगाए गए है। फैजाबाद व अयोध्या की दीवारों पर पोस्टर 19 जून को चिपकाये गए है।भाजपा के इस पोस्टर में प्रश्नवाचक चिंह के साथ लिखा है कि अफजल गुरू किसका दामाद। उसके नीचे लिखा है कांग्रेस का। इस बारे में पूछने पर भाजपा के राज्यसभा सदस्य विनय कटियार ने कहा कि यह पोस्टर उन्होने नही लगाये। सवाल उठाते हुए उन्होने कहा कि यदि लगा है तो गलत क्या है। जेल में अफजल की दामाद की तरह सेवा हो रही है। केन्द्र सरकार अफजल को फांसी नही देना चाहती है। पूर्व गृहमंत्री शिवराज पाटिल के हस्तक्षेप के बारे में दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित पहले ही साफ कर चुकी है।एक दूसरे होर्डिग में विनय कटियार के फोटो के साथ लिखा गया है कि कांग्रेस के पांच आतंकवादी बेटे है। पहला जम्मू कश्मीर का आतंकवाद पंडित नेहरू की देन है। पंजाब का आतंकवाद श्रीमती इंदिरा गांधी की, लिट्टे का आतंकवाद राजीव गांधी की देन, इसके साथ ही नक्सलवाद और उल्फा आंदोलन कांग्रेस की संतानें है।कटियार ने आरोप लगाया कि कांग्रेस ने नक्सलियों के साथ मिल कर आंध्र प्रदेश का चुनाव लड़ा था जिससे नक्सली मजबूत हुए और देशभर में आतंकवादी कारनामे अंजाम दे रहें है। उल्फा में बंगला देश से आये अवैध नागरिक शामिल है जिनको कांग्रेस का संरक्षण है। उन्होने कहा कि बाटला हाउस में मारे गए आतंकवादी व इंडियन मुजाहिदीन के आतंकवादियों से जुड़े लोगों से अपने संपर्को व संबन्ध के बारे में भी कांग्रेस को बताना चाहिए। दिग्विजय सिंह आतंकवादियों के घर क्यों गए थे उनका उनसे रिश्ता क्या है। उन्होने आरोप लगाते हुए कहा कि कांग्रेस आतंकवाद का राजनीतिक उपयोग करती है।

रविवार, 20 जून 2010

घटियापन की सीमा लाँघ चुके नितीश


पैसा न नीतीश कुमार के घर का था न नरेंद्र मोदी के घर का. लेकिन दोनों के बीच जिस तरह से रुपये की राजनीति हो रही है संदेश तो यही जा रहा है. गुजरात के सीएम ने बिहार में बाढ़ राहत के लिए 5 करोड़ रुपये दिए थे, जिसे नीतीश कुमार ने लौटा दिया. बात इतनी भर है कि नीतीश अपने वोट बैंक की चिंता करते हुए मोदी से नाराज चल रहे हैं।
क्या था मामला
ज्ञात हो कि पिछले दिनों पटना में भाजपा कार्यसमिति की बैठक के दौरान स्थानीय अखबारों में एक विज्ञापन छपा था जिसमें नीतीश कुमार और मोदी की तस्वीर एक साथ छपी थी। एक अन्य विज्ञापन में इस बात का जिक्र था कि वर्ष 2008 में कोसी बाढ़ आपदा के समय गुजरात ने बिहार को पांच करोड़ रुपये की मदद की थी।उसी दिन नीतीश ने गुजरात को पैसा लौटाने की धमकी दी थी। विज्ञापन से नाराज नीतीश ने भाजपा नेताओं को दिया जाने वाला रात्रिभोज तक रद्द कर दिया था।
अब सुने नेताओ की
एलजेपी प्रमुख रामविलास पासवान ने नीतीश कुमार के बाढ़ राहत के पांच करोड़ रुपए लौटाने को महज नौटंकी करार दिया है।पासवान ने कहा कि नीतीश इन मुद्दों को बिहार में होनेवाले विधानसभा चुनाव में आजमाना चाहते है।उन्होंने कहा कि नीतीश कुमार ऐसा कर धर्मनिरपेक्ष छवि बनाना चाहते है और सत्ता पर दोबारा काबिज होने की मंशा रखते है।पासवान ने कहा कि नीतीश को ये मालूम नहीं है कि बिहार की जनता इतनी बेवकूफ नहीं है और वो सबकुछ समझती है।
बिहार के सहकारिता मंत्री गिरिराज सिंह ने रविवार को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को 'एहसानफरामोश' करार देते हुए उन पर गठबंधन धर्म का पालन न करने का आरोप लगाया। सिंह ने कहा कि नीतीश ने पिछले साढ़े चार साल के दौरान एक भी सरकारी फैसले में भाजपा नेताओं से राय नहीं मांगी। अब पानी सिर से ऊपर आ गया है।"पहली बार बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यसमिति के दौरान जब यह विवाद पैदा हुआ था तब भी गिरिराज सिंह ने नीतीश को आड़े हाथों लिया था। उन्होंने कहा था, "नीतीश पिछले डेढ़ दशक से हमारे साथ हैं लेकिन अब उन्हें नरेंद्र मोदी से क्यों परहेज होने लगा। न नीतीश हमारी मजबूरी है और न ही सत्ता। हमारी मजबूरी प्रदेश की नौ करोड़ जनता है, जिन्हें हमने लालू प्रसाद के कुशासन से मुक्ति दिलाई थी।"
जनता दल (युनाइटेड) के प्रवक्ता शिवानंद तिवारी ने भी एक समाचार चैनल से बातचीत में इस बात की पुष्टि की। उन्होंने कहा, "एक एजेंडे के तहत हमारा नुकसान किया गया है। हमारी वजह से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को मुस्लिम मत मिले। बिहार में हमारी वजह से ही भाजपा है।"
भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और राज्यसभा सदस्य पुरुषोत्तम रूपाला ने अहमदाबाद में कहा कि नीतीश जो चाहें करें हम उनके कहने पर नहीं चलने वाले हैं। कोसी बाढ़ आपदा के दौरान मैं खुद दो ट्रेन राहत व खाद्य सामग्री लेकर बिहार गया था। क्या नीतीश उसे भी वापस लौटाएंगे। भाजपा बिहार में नीतीश के पीछे नहीं चलने वाली है। हमने गठबंधन धर्म निभाया है और आगे भी निभाते रहेंगे। उनकी जो इच्छा हो वह करें।
बिहार के उप-मुख्यमंत्री सुशील मोदी ने भी नीतीश कुमार के रवैए के प्रति कड़ी नाराजगी जताई है। गुजरात सरकार को कोसी राहत का पैसा लौटाए जाने के बाद सुशील मोदी ने बिहार के मुख्यमंत्री के साथ अपने एक चुनवी कार्यक्रम को रद्द कर दिया।इसके बाद राज्य में दोनों दलों के गठबंधन पर सवाल खड़े हो गए हैं।
अब आप ही फैसला करे की नितीश क्या है .....

बुधवार, 9 जून 2010

कॉमन मैन की कार्रवाई

देश का हॉल इन दिनों बहुत बुरा है. आतंकवादी-दर-आतंकवादी जेल में जमा होते जा रहे हैं और सरकार है कि उन्हें फांसी देने की सोच भी नहीं रही है. इसके आलावा नामुराद आतंकवादियों का जहां मन होता है, घुस आते हैं और तबाही मचा कर लौट जाते हैं. इधर, सरकार ऐसे "बिहेव' करने लगती है, मानो कुछ हुआ ही न हो. सरकार के मंत्री कहते हैं कि बड़े-बड़े शहरों में छोटी-छोटी घटनाएं हो जाती हैं. बताइए साहब, आदमी की जान की कीमत है कि नहीं. जब मंत्री महोदयों के साथ ऐसी "छोटी-मोटी' घटनाएं होंगी तो समझ में आयेगा कि जान की कीमत क्‌या होती है. इन्हीं सब बातों को लेकर मैं दिल्ली की सड़कों पर "चिंता' करते हुए घूम रहा था. सोच रहा था कि भगवान इस देश का क्‌या होगा. कैसे चेलगा खटोला . इतने में मुझे लगा कि कोई मुझे चिल्ला चिल्ला कर रुकने को कह रहा है. मुझे लगा कि इस "हस्तिनापुर' में मुझे जाननेवाला कौन हो सकता है. इतने मे मैंने देखा कि मुझे बुलानेवाला कोई और नहीं स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हैं. मुझे शंका हुई तो मैंने उन्हें इशारा कर पूछा कि कौन मैं? उधर से आवाज आयी-ओ हां यार तुम ही, रुको तो. मैं रुक गया. अब सामने मनमोहन सिंह थे. जब मैंने उन्हें प्रणाम किया तो उन्होंने कहा कि-अरे मैं कांग्रेस का कॉमन मैन हूं. कॉमन मैन मतलब आम आदमी. और जब मैं आम आदमी हूं तो ताकुल्ल्फ़ कैसी. मैं भारत की पदयात्रा पर अकेले निकला हूं. मुझे जानना है कि देशवासियों का दिन इन दिनों कैसे गुजर रहा है. मैंने सोचा कि अब मेरे सामने प्रधानमंत्री नहीं कॉमन मैन है, सो मौका बढ़िया है, दिल की भड़ास निकल ली जाये. तक ताकुल्ल्फ़ छोड़ते हुए मैंने भी शुरू किया क्‌या कॉमन मैन की बात करते हैं. आज देश में जो कॉमन मैन की गत है, उससे तो ज्‌यादा मजे में सड़कों पर रहनेवाले आवारा कुत्ते हैं. कम-से-कम वे आतंक व महंगाई जैसी चीजों से बचे हुए हैं. आपके कॉमन मैन की हालत यह है कि घर के बाहर उसे आतंक का खौफ है तो घर के अंदर महंगाई का. बेचारा न जी रहा है, न मर रहा है. बीच में टोकते हुए मनमोहन सिंह ने कहा-यह आप क्‌या और कैसे कह रहे हैं. आतंक को रोकने के लिए हम लगातार लगातार लगातार पाकिस्तान के संपर्क में हैं, हमने आतंकियों की लिस्ट उसे सौंपी है. रही बात महंगाई की तो आप लगता है अपडेट नहीं हैं. महंगाई दर ऐसे गिर रही है, जैसे वह पहाड़ से फिशल गयी हो. मैंने भी उनकी बात काटते हुए कहा-लिस्ट सौंप दी तो कौन-सा बड़ा तीर मार liya। लिस्ट को उसने बाथरूम पेपर के रूप में इस्तेमाल कर फेेंक दिया. सभी जानते हैं कि आप 60 वर्षों से आतंकवाद-आतंकवाद चिल्ला रहे हैं, पर हो क्‌या रहा है-यह पूरा देश नंगी आंखों से देख रहा है. आतंकवादी हमें घर में घुस कर मार रहे हैं और आप अफजल व कसाब जैसों को जेल में पाल -पोस कर बड़ा कर रहे हैं. जहां तक महंगाई दर की बात है तो महंगाई दर तो गिर रही है, पर दाम जस-के-तस हैं. ऐसे में दर कैसे गिर रही है, इसकी तो सीबीआइ जांच करायी जानी चाहिए. मनमोहन सिंह ने छूटते ही कहा-देखो भाई युद्ध-वुद्ध से कुŸछ हासिल नहीं होगा. तुम जिस भाजपा की बोली बोल कर मेरे कानों में शीशा घोल रहे हो, उसी भाजपा से क्‌यों नहीं पूछते हो कि जब संसद पर हमले हुए तो उसने पाकिस्तान से भीड़ कर हिसाब बराबर क्‌यों नहीं कर लिया था. मैंने कहा-किसने क्‌या किया. इससे मुझे मतलैब नहीं है. आप अभी कुर्सी पर हैं, सो आप बतायें कि आप पाकिस्तान का क्‌या करनेवाले हैं. मनमोहन सिंह ने सफाई देनी शुरू कि मैंने गृहमंत्री को बदल दिया क्‌योंकि वे ज्‌यादा कपड़े बदला करते थे. पाकिस्तान को आतंकवादियों की सूची सौंप उसकी हमने पावती रसीद ली है ताकि बाद में हमें कोई यह न कहे कि हमने सूची सौंपी ही नहीं है. इसके अलावा हम पूरे विश्व को बता रहे हैं कि पाकिस्तान गंदा बच्चा है. बताइये यह कम है क्‌या. मनमोहन bole जा रहे थे, पर मुझे लगा कि भाई साहब सब बात करेंगे पर मुद्दे पर नहीं आयेंगे. उनसे विदा लेकर अपने प्रश्न पर सोचता आगे निकल गया।(


यह मेरी अप्रकाशित रचना है जो कुछ कारणों से अखबार या किसी पत्रिका में प्रकाशित नहीं हो सकी).....रोहित

गुरुवार, 27 मई 2010

इंडिया ग्रेट , बिहार उससे भी ग्रेट

पहले यह खबर पढ़े ।

दलाई लामा ने किया बुद्धk स्मृति पार्क का उदघाटन

पटना. तिब्बती धर्म गुरु दलाई लामा ने गुरुवार को पटना के बुद्ध स्मृति पार्क का उदघाटन किया। इस मौके पर उनके साथ बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी मौजूद थे। उदघाटन समारोह के मौके पर कई देशों के बौद्ध धर्म गुरू भी शामिल हुए। जानकारी के अनुसार, 22 एकड़ क्षेत्र में फैले इस पार्क को बनाने में डेढ़ साल लगे हैं। इस पार्क में 200 फीट उंची शांति स्तूप का निर्माण करया गया है। स्तूप के भीतरी भाग में एक बूलेटप्रूफ कमरे में विभिन्न देशों से लाए गए बौद्ध अवशेष रखे गए हैं। वहीं बुद्ध स्तूप के बायीं ओर मेडिटेशन सेंटर भी बनाया गया है। जिसमें कुल 5 ब्लॉकों में 60 कमरों का निर्माण कराया गया है। इन कमरों के सामने के हिस्से में शीशे लगाए गए हैं ताकि बौद्ध श्रद्धालु सामने में स्थित स्तूप को देखते हुए ध्यान लगा सकें

खबर यह है
बुद्ध पार्क का बिहार में निर्माण हुआ । यहाँ की जनता, सरकार ने इसमें हर संभव सहयोग किया . यह पार्क जिस जमीन पर बना वो सरकारी थी , उस पर जेल बना हुआ था । संयोग से उसमे एक शिव मंदिर भी था , जिसे पार्क बनाने के दौरान हटा दिया गया । पूरा निर्माण सरकारी पैसो से हुआ । करोड़ में पैसा सर कार के द्वारा लगाया गया ।

बुधवार, 26 मई 2010

कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है

[कविलाश मिश्र]। किसने जलाई बस्तियां, बाजार क्यों लुटे, मैं चांद पर गया था, मुझे कुछ पता नहीं। अफजल गुरूमामले में केंद्र और दिल्ली की सरकार की स्थिति कुछ ऐसी ही है। अफजल की दया याचिका की फाइल निपटाने में देरी का ठीकरा केंद्र की सरकार राज्य सरकार के सिर फोड़ रही है। जबकि दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित देरी का जिम्मेदार अपने दो वरिष्ठ अधिकारियों को ठहरा रही हैं। वरिष्ठ अधिकारी अब किसे बलि का बकरा बनाएं? सभी एक दूसरे से जुड़े हैं और किसी भी छोटे बाबू में इतनी हिम्मत नहीं कि बडे़ बाबू की बात को टाल सके।
संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरूकी दया याचिका वाली फाइल 43 महीने तक दिल्ली सरकार की मेज पर रखी रही। इस दौरान दो ही मुख्य सचिव रहे हैं। फाइल नवंबर 2006 में दिल्ली सरकार के पास केंद्रीय गृह मंत्रालय से भेजी गई थी। उस वक्त नारायण स्वामी मुख्य सचिव थे। वर्तमान में नारायण स्वामी कामनवेल्थ गेम्स में दिल्ली सरकार के सलाहकार हैं। पिछले करीब ढाई वर्षो से राकेश मेहता मुख्य सचिव के पद को सुशोभित कर रहे हैं। मेहता 1975 बैच के आईएएस हैं। कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे हैं। डीटीसी में सीएनजी की शुरुआत का श्रेय उन्हीं को जाता है। उनके पूर्ववर्ती नारायण स्वामी के खाते में कई उपलब्धियां दर्ज हैं।
तो क्या इन दोनों नौकरशाहों के कारण ही अफजल की फाइल केंद्र को लौटाने में दिल्ली सरकार को विलंब हुआ? सवाल उठता है कि अपने समय में फाइल की स्टडी करने के बाद जब एक मुख्य सचिव ने रिपोर्ट दे दी तो दूसरे मुख्य सचिव की राय लेने के लिए फाइल को रोकना क्यों जरूरी था? क्या मुख्य सचिव स्तर के अधिकारियों को किसी भी फाइल की स्टडी करने में करीब साढ़े तीन साल का समय लग जाता है? क्या दिल्ली की शीला सरकार का असर अपने अधिकारियों पर नहीं है, जिनके कारण फाइल के विलंब होने की बात मुख्यमंत्री की तरफ से कही गई है। ऐसे प्रश्नों का उत्तर दिल्ली सरकार के किसी भी वरिष्ठ अधिकारी के पास नहीं है। ..और न ही मुख्यमंत्री की तरफ से कोई जानकारी दी गई।
अधिकारियों की लॉबी का कहना है कि सरकार के वरिष्ठ अधिकारी हमेशा सरकार की नीति पर चलते है। मुख्य सचिव तो सरकार की आंख और कान होता है। सरकार से अलग लाइन लेने का मतलब उसका तबादला लगभग निश्चित है। वैसे भी कोई सरकार किसी भी फाइल की स्टडी के लिए किसी अधिकारी को साढ़े तीन वर्ष का समय क्यों दे?
दिल्ली सरकार की तरफ से मामले को संवेदनशील कहा गया है। कोई भी फैसला लेने की स्थिति में कानून व्यवस्था को ध्यान में रखने को कहा जा रहा है। इंदिरा गांधी हत्याकांड के मुख्य अभियुक्त सतवंत सिंह और केहर सिंह को फांसी देने के समय कानून व्यवस्था का सवाल क्यों नहीं सामने आया था। या उस वक्त कानून व्यवस्था का पैमाना कोई दूसरा था?
सवाल ये भी है कि अगर दिल्ली में कांग्रेस की सरकार न होती तो क्या अफजल की फाइल को लेकर केंद्र सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती। कहने को केंद्र की तरफ से अफजल की फाइल को लेकर 16 रिमाइंडर भेजे गए। बावजूद इसके दिल्ली सरकार की तरफ से फाइल न भेजने पर केंद्र सरकार की तरफ से क्या कार्रवाई की गई?
दैनिक जागरण से साभार

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

आदिवासी क्यों बन रहे हैं माओवादी

अब तक चली विकास नीति से उपेक्षित कुछ आदिवासी बंदूकें उठा रहे हैंप्रशांत भूषन ।

संसद में नक्सल ‘संकट’ के, जैसा कि गृह मंत्री ने इसे परिभाषित किया है, समाधान पर अपने वक्तव्य का समापन करते हुए पी। चिदंबरम ने कहा कि हमारी नीति ‘विकास’ और ‘सुरक्षा’ के दोहरे स्तंभों पर आधारित होनी चाहिए। ‘विकास’ का स्तंभ दरअसल इस बात की स्वीकारोक्ति थी कि खुद शासन के भीतर असहमति के स्वर बढ़ रहे हैं, जो यह कह रहे हैं कि नक्सल समस्या का हल सिर्फ बड़ी सैन्य कार्रवाइयों की बदौलत संभव नहीं है। लेकिन तब चिदंबरम यह कहते हैं कि नक्सली अपने नियंत्रण वाले इलाकों में सरकार को विकास का कोई काम करने ही नहीं देते। इसलिए जब तक हम नक्सलियों के नियंत्रण से आदिवासी इलाके खाली नहीं करा लेते, तब तक हम उन इलाकों के आदिवासियों तक विकास के लाभ नहीं पहुंचा सकते। और यही कारण है कि उन्होंने कहा कि ‘हमें उस रास्ते पर बने रहना चाहिए, जिसे नक्सलियों से निपटने के लिए काफी सावधानीपूर्वक तैयार किया गया है।’ जाहिर है, वह रास्ता है ऑपरेशन ग्रीनहंट का या नक्सलियों के दमन के लिए बड़े पैमाने पर सशस्त्र बलों के इस्तेमाल का। इस तर्क में दो बुनियादी समस्याएं निहित हैं। पहली, भारी संख्या में सशस्त्र बलों के इस्तेमाल से कथित ‘लाल गलियारे’ में रहने वाले आदिवासियों को रिहाइश के साथ-साथ अन्य कई तरह का नुकसान उठाना पड़ रहा है। वास्तव में, ऑपरेशन ग्रीनहंट के कारण विपत्ति में पड़े आदिवासियों में से ही अनेक लोग बंदूकें उठा रहे हैं और माओवादियों की टीम में शामिल हो रहे हैं। पिछले करीब छह महीनों में ही छत्तीसगढ़ के जिन इलाकों में ऑपरेशन ग्रीनहंट और सलवा जुड़ूम की मुहिम चल रही है, वहां सशस्त्र माओवादियों की संख्या लगभग दोगुनी हो गई है। दूसरी समस्या यह है कि आदिवासियों के विकास की जो परिकल्पना सरकार कर रही है, वह मुख्यतः खनन, स्टील, एल्युमिनियम और लौह उद्योगों के रूप में आकार लेती है। और इनके लिए उसे भूमि एवं उन जंगलों की दरकार होगी, जिन पर आदिवासियों का पूरा अस्तित्व निर्भर है। सरकारों ने इन उद्योगों के लिए निजी कंपनियों को लाखों एकड़ जमीन देने के सैकड़ों सहमति पत्र पर दस्तख्त किए हैं। इस कृत्य के पीछे तर्क यह दिया जाता है कि ये उद्योग विकास दर को तो गति देंगे ही, आदिवासियों को नौकरियां भी मिलेंगी। सचाई यह है कि अत्यधिक प्रदूषण फैलाने वाली इन कंपनियों की नौकरियां इनमें काम करने वालों की सेहत के लिए बेहद घातक हैं। फिर जितनी संख्या में ये आदिवासियों को नौकरियां देती हैं, वह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से विस्थापित होने वालों का बेहद मामूली प्रतिशत है। ये कंपनियां जितना विशाल भूभाग सीधे-सीधे अधिगृहीत करती हैं, उससे कई गुना अधिक धरती इनके प्रदूषण के कारण बंजर हो रही है। इनके आस-पास के जिन जल स्रोतों का इस्तेमाल आदिवासी करते हैं, वे इतने प्रदूषित हो चुके हैं, उनका जल पीने योग्य नहीं है। इस कारण स्थानीय आदिवासियों में स्वास्थ्य संबंधी गंभीर समस्याएं पैदा हो रही हैं। वायु प्रदूषण का आलम यह है कि स्पंज आयरन प्लांट के इर्द-गिर्द के पेड़ों की पत्तियां आपको विषैली कालिख से लदी दिख जाएंगी। यानी जिस तरह के विकास की बात सरकार कर रही है, वह वास्तव में वही है, जिसने आदिवासियों को जीवन के हाशिये पर धकेल दिया है। यह विध्वंसकारी विकास और ऑपरेशन ग्रीनहंट आदिवासियों के लिए क्या कर रहा है, इसकी गाथा हाल ही में छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल से आए अनेक आदिवासियों ने छह नामचीन शख्सियतों की एक जूरी को सुनाया। इस निर्णायक समिति में सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति पी।बी। सावंत, मुंबई उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति एच. सुरेश, शिक्षाशास्त्री यशपाल, नॉलेज कमिशन के पूर्व उपाध्यक्ष डॉ.पी.एम. भार्गव, महिला अयोग की पूर्व अध्यक्ष मोहिनी गिरी और पूर्व डीजीपी डॉ.के.एस. सुब्रमण्यन शामिल थे। आदिवासियों के हृदय चीर देने वाले उदाहरणों को सुनकर समिति को यह कहना पड़ा- ‘उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण की नई आर्थिक नीतियों के रूप में विकास के जिस मॉडल को स्वीकार किया गया और तेजी से मूर्त रूप दिया जा रहा है, उसने हाल के वर्षों में जमीन और जंगलों को, जो आदिवासियों की आजीविका और अस्तित्व के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं, बड़े पैमाने पर कॉरपोरेट घरानों को सौंपने के लिए राज्य को प्रेरित किया है, ताकि ये उद्योग खनिज संसाधनों का दोहन कर सकें।...इन उद्योगों के पर्यावरणीय प्रभावों के मूल्यांकन के लिए जो प्रक्रिया अपनाई गई है, उससे पीईएसए ऐक्ट के तहत ग्राम सभा से संपर्क की अपेक्षा महज मजाक बनकर रह गई है। इसका नतीजा यह हुआ है कि आदिवासी कुपोषण और भुखमरी की स्थिति में पहुंचा दिए गए हैं।...अपने जबरन विस्थापन के खिलाफ आदिवासी समुदायों द्वारा शांतिपूर्ण आंदोलन को पुलिस और सुरक्षा बलों की मदद से हिंसक तरीके से कुचला गया है।’ समिति ने यह प्रस्तावित भी किया कि आदिवासियों के इस जातीय संहार को रोकने के लिए सरकार द्वारा तत्काल कुछ कदम उठाए जाने की जरूरत है। सबसे पहले वह ऑपरेशन ग्रीनहंट रोके और स्थानीय लोगों से बातचीत शुरू करे। वह तत्काल सभी तरह के कृषि एवं वन भूमि के अधिग्रहण और आदिवासियों के जबरन विस्थापन पर रोक लगाए। सरकार सभी सहमति पत्रों के विवरणों, वन इलाकों में प्रस्तावित तमाम औद्योगिक व ढांचागत परियोजनाओं को घोषित करे और खेती की जमीन के गैर कृषि उपयोग वाले समस्त सहमति पत्रों और पट्टेदारी को ठंडे बस्ते में डाले। और जिन आदिवासियों को जबरन विस्थापित किया गया है, उनका उनके वन क्षेत्र में पुर्नवास करे। साफ है, जिन इलाकों में माओवादियों का वर्चस्व है, वहां के आदिवासियों के बलात् विस्थापन पर सरकार रोक लगाए। यकीनन उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य और बिजली जैसी सुविधाएं चाहिए, लेकिन उन्हें इस तरह के उद्योग कतई नहीं चाहिए। यदि वह ऑपरेशन ग्रीनहंट जैसे तरीकों से जंगलों को माओवादी मुक्त करने की कोशिश करती रहेगी, तो वह आदिवासियों को माओवादियों की तरफ जाने को ही बाध्य करेगी। (लेखक सर्वोच्च न्यायालय में अधिवक्ता एवं सामाजिक कार्यकर्ता हैं) अमर उजाला से साभार

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

आईएसआई ने भी रचा था विवादित ढांचा ढहाने का षडयंत्र

अयोध्या में विवादित ढांचा ढहाने की साजिश तो पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई ने भी रची थी। कारसेवकों की मौजूदगी में इस कारनामे को अंजाम देकर आईएसआई देश और प्रदेश में अशांति फैलाना चाहती थी। यह खुलासा ढांचा ध्वंस मामले की सीबीआई की नौवीं गवाह तत्कालीन एएसपी फैजाबाद अंजू गुप्ता ने शुक्रवार को रायबरेली न्यायालय में जिरह के दौरान किया। उनके इस बयान से प्रकरण में नया मोड़ आ गया है।
शुक्रवार को शासन बनाम लालकृष्ण आडवाणी आदि के मामले में सीबीआई ने बतौर गवाह तत्कालीन एएसपी व वर्तमान में डायरेक्टर कैबिनेट सचिवालय भारत सरकार अंजू गुप्ता को पेश किया। बचाव पक्ष के अधिवक्ता हरिदत्त शर्मा के प्रश्नों के उत्तर में उन्होंने कहा कि पांच दिसंबर 1992 को छह दिसंबर के प्रस्तावित कारसेवा के मद्देनजर पुलिस अफसरों की समीक्षा बैठक में तत्कालीन आईजी जोन एके सरन ने कहा था कि खुफिया एजेंसियों से जो सूचनाएं मिली हैं, उसमें विवादित ढांचे पर हमले और उसके साथ तोड़फोड़ की आशंका व्यक्त की गई है। पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई और इसके गुर्गो से भी खतरे की आशंका है। वैसे ज्यादा बड़ा खतरा स्थानीय स्तर पर कारसेवकों की ही तरफ से है। अंजू गुप्ता ने बताया कि खुफिया एजेंसियों से यह भी जानकारी दी थी कि शायद आईएसआई के गुर्गे अयोध्या पहुंच गये हैं और स्थानीय लोगों से मिल कर अथवा अन्य तरीके से वे विवादित ढांचे को क्षति पहुंचा सकते हैं, ताकि कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़े।
बयान में सुधार 'थे' की जगह 'थी'
साथ ही 26 मार्च को दिये बयान पर पूछे गये प्रश्न में सुधार करते हुए उन्होंने कहा कि उन्होंने पेज नंबर सात पर जो बयान दिया था उसमें 'थे' की जगह 'थी' कहा था। पिछली गवाही के दौरान दिये बयान में श्रीमती गुप्ता ने कहा था कि जब गुंबद गिर रहे थे, ढांचा टूट रहा था। उस समय मंच पर जो नेता बैठे थे, वह बहुत खुश लग रहे थे। वे एक दूसरे से गले मिल रहे थे। मिठाइयां बंट रही थीं, एक जश्न का माहौल था और कारसेवकों को प्रेरित किया जा रहा था। सुश्री उमा भारती व ऋतंभरा बहुत प्रसन्न थीं और वहां मौजूद आडवाणी समेत सभी नेताओं से गले मिल रहीं थीं। दोनों मंच से लगातार ढांचा गिराने के लिए प्रेरित कर रहे थे।
बचाव पक्ष को राहत न देते हुए अंजू गुप्ता ने कहा कि उन्होंने जो बयान मुख्य परीक्षण में दिये हैं, वही उन्होंने सीआईडी व मामले के जांच अधिकारी को भी दिये थे। वे किसी के दबाव में बयान नहीं दे रहीं हैं। बचाव पक्ष ने लगभग तीन घंटे की जिरह के दौरान अंजू से सीबीसीआईडी के सामने दिये गये उनके बयान और अदालत में दर्ज कराये उनके बयानों में अंतर होने के बारे में सवाल करते हुए कुछ खास बिंदुओं का उल्लेख किया और उन पर जिरह की।
बचाव पक्ष के इस सवाल पर कि क्या उन्होंने सीबीसीआईडी को दर्ज कराये अपने बयान में यह जानकारी नहीं दी थी कि गुम्बद पर चढ़े लोगों को गिरकर घायल होने से चिंतित आडवाणी लोगों को उतारने के लिए उनके पास जाना चाहते थे, जैसी कि जानकारी उन्होंने अदालत में दी, इस पर अंजू का कहना था कि उन्होंने सीबीसीआईडी के सामने अपने बयान में हर उस बात का उल्लेख किया है, जो अदालत के सामने दर्ज कराये अपने बयान में कही है। सीबीसीआईडी को धारा 161 के तहत दर्ज कराये अपने बयान में उन्होंने हर बात का उल्लेख किया है। इसी तरह उमा भारती और ऋतंभरा द्वारा छह दिसंबर को दिये गये भड़काऊ भाषणों के बारे में सीबीसीआईडी के दिये बयानों में उल्लेख न होने के बारे में बचाव पक्ष ने अंजू से सवाल किया। उस पर उन्होंने दोहराया कि उन्होंने सीबीसीआईडी को हर बात बतायी थी, जिसे विवेचनाधिकारी ने लिखा भी था और अब वह दर्ज कैसे नहीं है, यह तो जांच अधिकारी बता सकता है।
बचाव पक्ष के इस सवाल पर कि क्या उन्होंने इस अदालत में विचाराधीन मुकदमे 198/92 के बारे में सीबीआई को कोई बयान दिया था, अंजू ने कहा कि उन्होंने विवादित ढांचे के विध्वंस के बारे में सीबीआई को बयान दिया था मगर यह नहीं जानती कि सीबीआई ने उसका उपयोग किस मुकदमे में किया। 12 पेज की जिरह के बाद न्यायालय ने शेष जिरह के लिए 29 अप्रैल की तिथि नियत कर दी है।
रिपोर्ट दैनिक जागरण की खबरों पर

रविवार, 25 अप्रैल 2010

हरिद्वार कुंभ को नोबेल पुरस्कार मिले


उत्तराखंड में सत्ताधारी बीजेपी ने केंद्र सरकार से मांग की है कि वह हरिद्वार महांकुभ को नेबे
ल शांति पुरस्कार दिलाने के लिए जोरदार अभियान चलाए। दूसरी तरफ, कांग्रेस ने इस मांग को बेतुका बताते हुए खारिज कर दिया है। बीजेपी ने कहा, 'यह सिर्फ ऐतिहासिक नहीं है। इस मायने में अनूठा भी है कि दुनिया के कोने-कोने से लोग इस साल हरिद्वार पहुंचे। इसलिए हम महसूस करते हैं कि राष्ट्रीय त्योहार महाकुंभ को इस साल नोबेल शांति पुरस्कार दिया जाना चाहिए। इससे पहले राज्य के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने भी कहा था कि महाकुंभ को नोबेल मिलना चाहिए। उन्होंने कहा कि यह दुनया का सबसे बड़ा धार्मिक आयोजन है, जिसमें 140 देशों से करीब 5 करोड़ लोग पहुंचे।

रविवार, 18 अप्रैल 2010

नरेन्द्र मोदी और तोगड़िया देश के कौन

आप बताये की नरेन्द्र मोदी और प्रवीन तोगड़िया देश के कौन है और हिन्दुओ की बात कहने पर उन्हें प्रतारित करना क्या इस देश के लिए शर्मनाक नहीं है ।

भारत क्यों न बने हिन्दू देश


भारत इस्लामी आतंकबाद की फास में पूरी तरह जकड चुका है । भारत की ८० परसेंट जनसँख्या हिन्दू है । भारत विश्व का पहला और अंतिम नमूना है , जहा की बहुसंख्यक जनता को अपने अधिकारों के लिए भीख मांगनी पड़ती है । एसे में भारत को हिन्दू देश क्यों नहीं बनाया जाया चाहिये । सवाल आपके सामने है , जवाब भी आप लोग दे ।

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

गुजरात दंगे मामले में मास्टर स्ट्रोक

गुजरात सरकार ने शुक्रवार को कहा कि सुप्रीम कोर्ट को गोधरा कांड के बाद राज्य में हुए दंगों से जुड़े मुकदमों की सुनवाई पर रोक लगाने का कोई अधिकार नहीं है। राज्य सरकार ने यह भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त विशेष जांच दल [एसआईटी] को भी पूर्व कांग्रेसी सांसद एहसान जाफरी की हत्या के मामले में मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और अन्य अभियुक्तों को समन भेजने का अधिकार नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट में शुक्रवार को दाखिल अपने ताजा हलफनामे में राज्य सरकार ने एनजीओ कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ और अन्य लोगों के खिलाफ आपराधिक मुकदमे दर्ज करने की भी मांग की। राज्य सरकार ने कहा कि अपने राजनीतिक मकसद साधने के लिए ये लोग गवाहों को बरगला रहे हैं और एसआईटी पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं। राज्य सरकार का यह हलफनामा सुप्रीम कोर्ट द्वारा 6 अप्रैल को सीतलवाड़ व अन्य की याचिका स्वीकार करते हुए उसे जारी किए गए नोटिस पर आया है। इस याचिका में सीतलवाड़ व अन्य ने राज्य में हो रही दंगा मामलों की सुनवाई पर रोक लगाने और सभी मामले जांच के लिए सीबीआई को सौंपने की मांग की गई थी। उन्होंने एसआईटी पर भी पक्षपातपूर्ण तरीके से काम करने का आरोप लगाया था।

सोमवार, 12 अप्रैल 2010

मन्नू जी भारत आपका है, ओबामा का नहीं

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री युसूफ रजा गिलानी से कहा है कि पाकिस्तान मुंबई हमलों के जिम्मेदार लोगों को कानून के घेरे में लाए। बराक ओबामा ने गिलानी से कहा कि इससे क्षेत्र में स्थितियों में सुधार आएगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ ओबामा की मुलाकात के बाद ओबामा ने गिलानी से मुलाकात की।
मन्नू जी भारत आपका है, ओबामा का नहीं ; यह बात आपको बताने की जरुरत नहीं है । मुंबई पर हमला भारत ने झेला है । तो फिर अमेरिका कौन होता है हमारी पैरवी करनेवाला । मनमोहन जी हमारी सलाह है की पाकिस्तान का जो भी करना है , खुद करे । नहीं तो यही होते -होते पूरा भारत अमेरिकी फैसलों का गुलाम होता जायेगा । एक बात और आप अपने विदेश मंत्री को नगर निगम टाइप का मंत्रालय दे दे ।

रविवार, 11 अप्रैल 2010

मोदी लाओ, भाजपा बचाओ

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने संकेत दिया है कि आगामी आम चुनाव में मोदी भाजपा की ओर से शीर्ष कार्यकारी पद के उम्मीदवार बनाए जा सकते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कहना है कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा नरेंद्र मोदी को चक्रव्यूह में फंसाने की बरसों की नाकाम कोशिशों के बाद स्वयं उसमें बुरी तरह फंस गई हैं। अब उन्हें यह डर सताने लगा है कि अगले लोकसभा चुनाव में मोदी कहीं प्रधानमंत्री पद के लिए 'उनके वंश के प्रतिस्पर्धी' बन कर सामने न आ जाएं।
संघ ने कहा है कि मोदी को देश के भावी प्रधानमंत्री के सशक्त उम्मीदवार के रूप में उभरता देख 'सोनिया मंडली' भयाक्रांत है। संघ के मुखपत्र 'पांचजन्य' में आरोप लगाया गया है कि सोनिया मंडली की मदद से राजनीति के इस चक्रव्यूह में मोदी को फंसाने में उनके 'सात महारथी' पिछले सात साल से जुटे हुए हैं। लेकिन इन महारथियों को असफलता के सिवा कुछ हासिल नहीं हुआ।
सात महारथी
तीस्ता सीतलवाड़, शबनम हाशमी, अहमद पटेल, फादर सड्रिक प्रकाश सामिल है , जिनका जन्म ही मोदी विरोध और कांग्रेस की तैल मालिश के लिए हुआ है ।
बिग हिन्दू की ओर से श्रीमान मोदी को इसके लिए सुभकामनाये

रिपोर्ट मीडिया की खबरों पर

गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

उमा-बीजेपी मिलन हिंदुत्व के लिए अच्छा


उमा भारती की अब बीजेपी में वापसी तय हो गई है। जानकारी के अनुसार उमा भारती को जल्दी ही यूपी बीजेपी की बड़ी जिम्मेदारी दी जा सकती है। वैसे पार्टी भी यूपी के लिए किसी तेज तर्रार चेहरे की तलाश में है, लेकिन फिलहाल प्रदेश का कोई भी नेता इस कसौटी पर खरा नहीं उतर रहा है। उमा भारती ऐसी नेता जो राजनीती कम हिंदुत्व ज्यादा जानती है । एक समय था जब उत्तर प्रदेश भाजपा की पहचान हुआ करता था । आज बीजेपी वहा दोयम दर्जे की पार्टी बन चुकी है । अगर उमा को मुक्त कमान दी गई तो हिन्दुओ का सदीओ पुराना सपना पूरा होता सकता है । उमा अगर वरुण को प्रोमोट करे तो बीजेपी एक बार फिर ८० में ६२ हो सकती है। भाजपा की यह पहल १० साल की सबसे अच्छी पहल कही जा सकती है ।

मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

अडवाणी जी अब राम को माफ़ कर दे

यह पोस्ट अशोक सिंघल की बात पर लिखा गया है । पाठक इसका निर्णय स्वयं करे की अडवाणी ने क्या किया ।
मंदिर आंदोलन को नुकसान पंहुचाया आडवानी ने
भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी पर राम मंदिर आंदोलन को नुकसान पहुंचाने का आरोप लगाते हुए विश्व हिंदू परिषद ने आज कहा कि यदि उन्होंने 1989 में रथयात्रा नहीं निकाली होती तो अब तक अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण हो चुका होता। विहिप प्रमुख अशोक सिंघल ने यहां संवाददाताओं से कहा कि आडवाणी ने उस समय रथयात्रा निकाल कर एक गलत कदम उठाया था। यह रथयात्रा उन्होंने वोट बैंक की खातिर निकाली थी।
उन्होंने आरोप लगाया कि भाजपा ने केंद्र की तत्कालीन विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार से समर्थन वापस लेने का रास्ता तैयार करने के मकसद से रथयात्रा निकाली थी। सिंघल ने कहा कि आडवाणी यदि उस समय रथयात्रा नहीं निकालते तो सभी राजनीतिक दलों को बातचीत के जरिए इस मुद्दे पर मनाया जा सकता था। ऐसी स्थिति में अभी तक राम मंदिर का निर्माण हो गया होता।
भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी द्वारा अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए मुस्लिमों से सहयोग लेने के सुझाव के बारे में उन्होंने कहा कि गडकरी या भाजपा का इस मुद्दे से कोई लेना-देना नहीं है। भाजपा राम मंदिर के मुद्दे पर अपनी राजनीति नहीं करे। राम मंदिर आंदोलन साधु-संतों ने चलाया है और वही इस मामले में फैसला करेंगे।

दैनिक जागरण की रिपोर्ट पर आधारित

शर्म, शर्म और शर्म

छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में नक्सलियों के भीषण हमले में 73 जवानों के मारे जाने की खबर है। जवान सीआरपीएफ कैंपों में राशन पहुंचाने जा रहे थे। नक्सलियों ने छह अलग-अलग जगहों पर घात लगाकर हमला किया। इस हमले के ठीक एक दिन पहले गृहमंत्री ने नक्सलियों को पहला शत्रु करार दिया था।
यह खबर बताती है की अब हमारे सेकुलर नेताओ के प्यारे पाकिस्तान और चीन को हमारे यहाँ केवल हथियार भेजने की जरुरत रह गई है, बाकी काम वो यही के गद्दारों से करवा रहे है । तारीफ है की मानवाधिकार वादी इस मुद्दे { ७२ जवानो की हत्या } पर कुछ बोलने के बजाय अपनी माँ की गोद में जाकर छिप गए है ।
बिग हिन्दू इस घटना की कड़े शब्दों में निंदा करता है और यह मांग करता है की नक्सल वाद के खिलाफ निर्णायक युद्ध जल्द शुरू किया जाये ।

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

राम का नाम बेचनेवालो की शामत

राम का नाम बेचनेवालो की शामत आ गई है । अडवाणी की सुरक्षा अधिकारी ने बयान दिया है की अडवाणी , परमोद महाजन , उमा भारती सहित टॉप बीजेपी लीडर ढाचा गिराए जाने के समय जोशीला भासन दे रहे थे । हलाकि यह बात सही है की ढाचा गुलामी की तीन निशानियो [ अयौध्या , काशी , मथुरा ] में से एक था । लेकिन शर्म की बात यह है की गाहे बगाहे टॉप बीजेपी लीडर इस घटना के लिए बिभिन्न मंचो से माफ़ी मांगते नज़र आये । यानि उन्होंने जीवन की सारी कमाई उसी तुस्टीकरण में गवा दी , जिसके खिलाफ वे आजीवन लड़ते रहे ।

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

ऐसे बाबाओ से राम बचाए

पिछले दिनों हमारे देश में कुछ पाखंडी बाबाओ ने खूब उधम मचाया । इक्षाधारी बाबा के कारनामो ने तो हिन्दुओ का सिर इसाई समुदाय से भी निचे गिरा दिया । इसाई चर्च के फादर लोगो की कहानिया किसी को बताने की जरुरत नहीं है । बाबाओ की कुछ बानगी देखे ।
नित्यानंद पर जालसाजी का मामला, इच्छाधारी बाबा को रिमांड
तमिलनाडु पुलिस ने खुद को धर्मगुरू बताने वाले स्वामी नित्यानंद के खिलाफ जालसाजी का मामला दर्ज किया है। दूसरी ओर, कर्नाटक सरकार ने स्वामी के विरुद्ध बेहद सख्त कार्रवाई का भरोसा दिलाया है। उधर, सेक्स रैकेट में फंसे इच्छाधारी बाबा शिवमूरत द्विवेदी को दिल्ली की कोर्ट ने पांच दिन की पुलिस हिरासत में भेज दिया है। एक तमिल टीवी चैनल द्वारा नित्यानंद की कथित अश्लील हरकतों वाले फुटेज के प्रसारण के बाद तमिलनाडु और कर्नाटक में बाबा के आश्रमों पर गुस्साए लोगों ने धावा बोल दिया था। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम करुणानिधि ने गुरुवार को कहा कि राज्य सरकार बाबा के ऐसे कृत्यों को कतई बर्दाश्त नहीं करेगी। बाबा के खिलाफ छह वकीलों ने धोखाधड़ी और अश्लीलता फैलाने की शिकायत की थी। इसी के आधार पर पुलिस ने जालसाजी का मामला दर्ज किया है। यह मामला कर्नाटक विधानसभा में भी उठा। राज्य के गृह मंत्री वीएस आचार्य ने कहा कि तमिलनाडु सरकार से जानकारी मिलने के बाद नित्यानंद के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी।
अब एक स्वामी के 'सेक्स विडियो' पर
इच्छाधारी संत के सेक्स रैकेट का मामला अभी शांत भी नहीं हुआ कि एक और स्वामी के कथित सेक्स विडियो को लेकर बवाल शुरू हो गया है। दक्षिण के जाने - माने संत स्वामी नित्यानंद का कथित सेक्स विडियो एक टीवी चैनल पर दिखाए जाने के बाद से यह मामला तूल पकड़ता जा रहा है। सड़कों पर विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए हैं। प्रदर्शनकारी इस मामले में केस दर्ज करने की मांग कर रहे हैं। हालांकि स्वामी नित्यानंद के आश्रम की तरफ से कहा गया है कि विडियो फर्जी है। मिली जानकारी के मुताबिक एक स्थानीय टीवी चैनल में एक सीडी दिखाया गयाहै जिसमें स्वामी नित्यानंद एक महिला के साथ अश्लील हरकतें करते दिख रहे हैं। चैनल ने उस महिला की पहचान नहीं बताई है , लेकिन कहा है कि वह दक्षिण की कोई हीरोइन है। इस विडियो के प्रसारण के बाद से सड़कों पर विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए हैं। स्वामी नित्यानंद के पुतले भी फूंके गए।

मंगलवार, 2 मार्च 2010

पिता को नमन


मैंने अपना पिता ३० जनवरी २०१० को खो दिया । वे अब हमारे परिवार के साथ नहीं है पर उनके बताये रास्ते और सिद्धांत मुझे जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा देंगे । उनके जीवन का सबसे बड़ा मोटो था की आप अपना काम बेहतर करे । मै यह कोशिस ईमानदारी से करूँगा ।