[कविलाश मिश्र]। किसने जलाई बस्तियां, बाजार क्यों लुटे, मैं चांद पर गया था, मुझे कुछ पता नहीं। अफजल गुरूमामले में केंद्र और दिल्ली की सरकार की स्थिति कुछ ऐसी ही है। अफजल की दया याचिका की फाइल निपटाने में देरी का ठीकरा केंद्र की सरकार राज्य सरकार के सिर फोड़ रही है। जबकि दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित देरी का जिम्मेदार अपने दो वरिष्ठ अधिकारियों को ठहरा रही हैं। वरिष्ठ अधिकारी अब किसे बलि का बकरा बनाएं? सभी एक दूसरे से जुड़े हैं और किसी भी छोटे बाबू में इतनी हिम्मत नहीं कि बडे़ बाबू की बात को टाल सके।
संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरूकी दया याचिका वाली फाइल 43 महीने तक दिल्ली सरकार की मेज पर रखी रही। इस दौरान दो ही मुख्य सचिव रहे हैं। फाइल नवंबर 2006 में दिल्ली सरकार के पास केंद्रीय गृह मंत्रालय से भेजी गई थी। उस वक्त नारायण स्वामी मुख्य सचिव थे। वर्तमान में नारायण स्वामी कामनवेल्थ गेम्स में दिल्ली सरकार के सलाहकार हैं। पिछले करीब ढाई वर्षो से राकेश मेहता मुख्य सचिव के पद को सुशोभित कर रहे हैं। मेहता 1975 बैच के आईएएस हैं। कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे हैं। डीटीसी में सीएनजी की शुरुआत का श्रेय उन्हीं को जाता है। उनके पूर्ववर्ती नारायण स्वामी के खाते में कई उपलब्धियां दर्ज हैं।
तो क्या इन दोनों नौकरशाहों के कारण ही अफजल की फाइल केंद्र को लौटाने में दिल्ली सरकार को विलंब हुआ? सवाल उठता है कि अपने समय में फाइल की स्टडी करने के बाद जब एक मुख्य सचिव ने रिपोर्ट दे दी तो दूसरे मुख्य सचिव की राय लेने के लिए फाइल को रोकना क्यों जरूरी था? क्या मुख्य सचिव स्तर के अधिकारियों को किसी भी फाइल की स्टडी करने में करीब साढ़े तीन साल का समय लग जाता है? क्या दिल्ली की शीला सरकार का असर अपने अधिकारियों पर नहीं है, जिनके कारण फाइल के विलंब होने की बात मुख्यमंत्री की तरफ से कही गई है। ऐसे प्रश्नों का उत्तर दिल्ली सरकार के किसी भी वरिष्ठ अधिकारी के पास नहीं है। ..और न ही मुख्यमंत्री की तरफ से कोई जानकारी दी गई।
अधिकारियों की लॉबी का कहना है कि सरकार के वरिष्ठ अधिकारी हमेशा सरकार की नीति पर चलते है। मुख्य सचिव तो सरकार की आंख और कान होता है। सरकार से अलग लाइन लेने का मतलब उसका तबादला लगभग निश्चित है। वैसे भी कोई सरकार किसी भी फाइल की स्टडी के लिए किसी अधिकारी को साढ़े तीन वर्ष का समय क्यों दे?
दिल्ली सरकार की तरफ से मामले को संवेदनशील कहा गया है। कोई भी फैसला लेने की स्थिति में कानून व्यवस्था को ध्यान में रखने को कहा जा रहा है। इंदिरा गांधी हत्याकांड के मुख्य अभियुक्त सतवंत सिंह और केहर सिंह को फांसी देने के समय कानून व्यवस्था का सवाल क्यों नहीं सामने आया था। या उस वक्त कानून व्यवस्था का पैमाना कोई दूसरा था?
सवाल ये भी है कि अगर दिल्ली में कांग्रेस की सरकार न होती तो क्या अफजल की फाइल को लेकर केंद्र सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती। कहने को केंद्र की तरफ से अफजल की फाइल को लेकर 16 रिमाइंडर भेजे गए। बावजूद इसके दिल्ली सरकार की तरफ से फाइल न भेजने पर केंद्र सरकार की तरफ से क्या कार्रवाई की गई?
दैनिक जागरण से साभार
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