रविवार, 29 अगस्त 2010

शर्म करो, मत गाओ पाकिस्तान की


एक कहावत है , कुछ लोग जिस थाली में खाते है , उसी में छेद करते है । हमारे कश्मीर में एसे लोगो की जमात खड़ी होता गई है । ये वो लोग है जो जेहाद के नाम पर कांग्रेस के समर्थन से देश को बर्बाद कर रहे है ।

बानगी देखे : २९ अगस्त को श्रीनगर और राज्य के अन्य हिस्सों में अलगाववादी संगठनों ने विरोध प्रदर्शन का आह्वान किया। भारी संख्या में लोग सड़कों पर उतरे और भारत विरोधी नारे लगाए और पाकिस्तान के झंडे फराए ।

अगर आतंक में भगवा है तो तिरंगे में क्या है?

यह श्री तरुण विजय की रचना है , जिसे हम साभार प्रकाशित कर रहे है ।
तरुण विजय
लगातार दूसरे दिन राज्य सभा में गृह मंत्री चिदबंरम द्वारा भगवा आतंकवाद शब्द का उल्लेख किए जाने के विरोध में हंगामा हुआ तथा सदन दो बार स्थगित करना पड़ा। इस संदर्भ में आश्चर्य की बात यह रही कि जो लोग इस बात पर छत पर खड़े होकर चिल्लाते रहे कि आतंकवाद के साथ किसी मज़हब, रंग या विचारधारा को जोड़ना गलत है क्योंकि आतंकवादी चाहे किसी भी मज़हब या संप्रदाय के हों, वे खूनी, निर्मम और अमानुषिक होते हैं। आतंकवादी का न कोई मज़हब होता है, न विचारधारा। जो लोग अब तक यही बात उस आतंकवाद के बारे में कहते रहे जो सीधे-सीधे इस्लाम के फैलाव और हिंदुओं तथा भारतवर्ष से नफरत पर टिका रहा है, वही अब उछल-उछलकर भगवा रंग को आतंकवाद से जोड़कर ऐसी खुशी मना रहे हैं मानो आतंकवाद का भगवाकरण किसी राष्ट्रीय त्यौहार का विषय हो।
संकीर्ण सांप्रदायिकता और अराष्ट्रीय राजनीति का अतिवादी घिनौना स्वरूप इसी प्रकार की त्रासद विडंबनाएं प्रस्तुत करता है। ये राजनेता वे लोग हैं जो अपने संकीर्ण स्वार्थों के लिए देशहित और राष्ट्रीय सभ्यता से खिलवाड़ करने में नहीं चूकते। भगवा रंग भारतवर्ष का रंग है। यह त्याग, तपस्या, बलिदान और वीरता का रंग है। अगर आकाश का रंग नीला और प्रकृति का रंग हरा माना जाता है, उसी प्रकार भारतवर्ष की मूल चेतना और आत्मा का रंग भगवा है। ऋषि-मुनियों ने भारत की आध्यात्मिकता और परहित के लिए अपना बलिदान देने की परंपरा भगवा रंग से अभिव्यक्त की। भगवा वीर सिक्ख परंपरा का रंग है। गुरू गोबिंद सिंह की पताका का रंग भगवा था। जब पिछले दिनों डॉ. मनमोहन सिंह अमृतसर की यात्रा पर गए थे तो पूरे शहर को तथा श्री हरमंदिर साहिब को भगवा रंग से सजाया गया था। अखबारों में पहले पन्ने पर शीर्षक थे- "अमृतसर भगवा हो गया।" क्या गृह मंत्री कहेंगे कि उस समय प्रधानमंत्री के स्वागत में अमृतसर ने आतंकवादी रंग धारण कर लिया था? भारतवर्ष के राष्ट्रीय ध्वज का पहला रंग भगवा है। संविधान में उस रंग की व्याख्या करते हुए उसे त्याग, तपस्या तथा बलिदान की भावना से जोड़ा गया है। क्या अब सोनिया गांधी की सरकार हिंदूनिष्ठ विचारधारा से नफरत के उन्माद में अब संविधान में संशोधन कर तिरंगे से भगवा हटाएगी या उसकी व्याख्या में लिखेगी कि भगवा रंग आतंकवादियों का रंग है?
देश में अभारतीय मानसिकता का वैचारिक विद्वेष इस पागलपन के चरम तक पहुंच गया है कि इटालियन मूल की उस महिला को सुपर प्राइम मिनिस्टर बनाने में किसी कांग्रेसी या सेक्युलर को परहेज़ नहीं होता, जिसने विवाह के बाद 13 साल सिर्फ यह सोचने में लगा दिए कि वह भारत की नागरिकता ग्रहण करे या न करे, लेकिन भारत के गौरव और तिरंगे की शान के प्रतीक विश्वनाथन आनंद की नागरिकता पर शक पैदा कर उन्हें डॉक्टर ऑफ फिलॉसफी का सम्मान देना रोक दिया गया था। भारत से गोरे अंग्रेज चले गए पर उन काले अंग्रेजों का राज कायम रहा, जिनका दिल और दिमाग हिंदुस्तान में नहीं बल्कि रोम, लंदन या न्यूयॉर्क में है।
गृह मंत्रालय के सूत्रों के अनुसार 65 हजार से अधिक लोग उस जिहादी आतंकवाद के शिकार हो चुके हैं जो अपने पर्चों, इश्तहारों और बयानों में दावा करता है कि वह इस्लाम के नाम पर निज़ामे मुस्तफ़ा कायम करने के लिए हिंसा का सहारा ले रहा है। ये वे लोग हैं जिन्होंने अपने संगठनों के नाम इस्लाम की विचारधारा यहां तक कि पैगम्बर साहब तक के नाम जोड़ते हुए रखे हैं जैसे- जैशे मोहम्मद, लश्करे तैय्यबा, हिज़बुल मुजाहिदीन, स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट (सिमी)। ये लोग खुद ही कहते हैं कि वे जो भी कर रहे हैं, अपने मज़हब के लिए, उसका प्रभाव बढ़ाने के लिए और जो उनके मार्ग की बाधाएं हैं, उनको खत्म करने के लिए कर रहे हैं। मैं खुद यह पसंद नहीं करता कि किसी भी आतंकवाद को मज़हब से जोड़ा जाए। मेरे मुस्लिम मित्रों की संख्या उतनी ही होगी, जितने मेरे हिन्दू मित्र हैं। और वस्तुत: मित्रता इस कारण नहीं होती है कि कोई हिन्दू है या मुस्लिम। बल्कि इसलिए होती है कि आत्मीयता के धागे मज़हब और उपासना पद्धति के दायरों से ऊपर उठे होते हैं लेकिन जब स्वयं आतंकवादी संगठन अपने को ज़िहादी कहें और टाइम्स ऑफ इंडिया तथा हिन्दुस्तान टाइम्स जैसे अखबार, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या भाजपा द्वारा तो कतई संचालित नहीं कहे जा सकते, इन संगठनों की आतंकवादी गतिविधियों को इस्लामी आतंकवाद के नाम से अपने शीर्षकों में लिखें तो चिदंबरम साहब तथा उनकी पार्टी सेक्यूलर संतुलन के छद्म नाटक के लिए भारतवर्ष के इतिहास और गौरवशाली परंपरा से खिलवाड़ करने का गुनाह क्यों कर रहे हैं? यह सब उस समय क्यों हो रहा है जब सत्ता के शीर्ष पर सोनिया गांधी हैं? इस देश में ही यह होता है कि तिरंगे के लिए जान देने वालों को कश्मीर से उजाड़ा जाता है, एनसीईआरटी की पुस्तकों में जब गुरु तेग बहादुर साहिब की शहादत का मजाक उड़ाने तथा औरंगजेब को निर्दोष साबित करने वाले पाठों से विकृतियां हटायी जाने लगीं तो वामपंथियों और कांग्रेसियों ने उसे भगवाकरण का नाम दे दिया, विरोध किया।
भगवाकरण या भगवा रंग क्या गाली के रूप में है? क्या भगवा रंग धिक्कार का रंग बनाया जाना चाहिए? एक हमला हुआ था गोरी और गजनवी का, वह भी भगवा के खिलाफ था। इस देश के खिलाफ विदेशी हमले भारत के मूल स्वरूप, चेतना, और यहां के नागरिकों की सभ्यतामूलक संस्कारों को ध्वस्त करने के लिए हुए। 1947 में भारत विभाजित करने के बाद हिंदुओं को लगा था कि सदियों के आक्रमणों के बाद अब वे शांति से अपनी जीवन परंपरा और धर्म का अनुगमन कर सकेंगे लेकिन ऐसा लगता है कि सोनिया के राज में गोरी और गजनवी की हिंदू विरोधी परंपरा जारी है। इसकी अपनी प्रतिक्रिया होगी और इसका दोष हिंदुओं पर नहीं विदेशी मन वाले सेक्यूलरों पर होगा।

बुधवार, 18 अगस्त 2010

सचमुच, यह भारत में ही हो सकता है

'भोपाल पर और हर्जाना भूल जाओ'
अमेरिका ने भारत को एक तरह से धमकाते हुए संकेत दिया है कि अगर उसने भोपाल गैस त्रासदी के लिए अमेरिकी कंपनी डाउ केमिकल से ज्यादा हर्जाना वसूलने की जिद नहीं छोड़ी तो दोनों देशों के रिश्ते पर असर पड़ सकता है। यह बात एक वरिष्ठ अमेरिकी अधिकारी ने योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया को भेजे एक ईमेल में कही है। समाचार चैनल टाइम्स नाउ के मुताबिक अमेरिका के डेप्युटी नैशनल सिक्युरिटी अडवाइजर फ्रोमैन माइकल ने आहलूवालिया को भेजे हाल के एक ईमेल में कहा है,'हम यहां अमेरिका में डाउ केमिकल मुद्दे को लेकर काफी हो-हल्ला देख रहे हैं। इस मामले की सभी बारीकियां तो पता नहीं हैं, पर मैं समझता हूं हम लोग ऐसी स्थितियों से बचना चाहते हैं जिनका हमारे निवेश संबंधों पर बुरा असर पड़ेगा।' फ्रोमैन ने यह ईमेल आहलूवालिया के उस मेल के जवाब में भेजा है जिसमें उन्होंने वर्ल्ड बैंक से आसान शर्तों वाले लोन जारी रखने में अमेरिकी सहायता का अनुरोध किया था। इस ईमेल के बारे में पूछे जाने पर आहलूवालिया ने कहा कि वह 'ऐसे किसी भी मामले पर अमेरिका के साथ चर्चा नहीं चला रहे जो अदालत के अधीन है।' जब उनसे पूछा गया कि क्या अमेरिका की तरफ से भोपाल गैस मामले में थोड़ा धीरे चलने का दबाव है, तो उन्होंने कहा, मैं इन ईमेल को दबाव बिल्कुल नहीं मानता।

हे शांति की संतानों अब भी तो कुछ करो

चीन की सैन्य तैयारियां और अमेरिकी रिपोर्ट
चीन की सैन्य तैयारियों के बारे में अमेरिकी प्रतिरक्षा मुख्यालय पेंटागन की ताजा रिपोर्ट में कम-से-कम जानकारों के लिए कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं होना चाहिए। चीन ने भारत से जुड़ी सीमाओं पर तैनात पुरानी मिसाइलों को ज्यादा उन्नत मिसाइलों से बदल दिया है। उसने भारतीय सीमाओं पर सैनिकों को जमा करने की आकस्मिक योजना तैयार की हो सकती है। अब उसके निशाने की जद में सिर्फ अपना पास-पड़ोस ही नहीं, पूरी दुनिया है। वह अपनी सैन्य तैयारियों को लेकर भारी गोपनीयता बरत रहा है। सवाल यह है कि आखिर कौन-सा देश है जो यही सब नहीं करेगा या करना चाहेगा।भारत में हमें यह रिपोर्ट पढ़ते हुए भूलना नहीं चाहिए कि यह अमेरिकी रिपोर्ट है। चीन के बढ़ते प्रतिरक्षा खर्च के बारे में हमें वह देश आगाह कर रहा है, जिसका अपना प्रतिरक्षा बजट चीन से काफी अधिक और दुनिया में सबसे ज्यादा है। फिर स्थापित महाशक्ति अमेरिका और उभरती महाशक्ति चीन के बीच अदावत जानी-पहचानी है। इस किस्म की रिपोर्ट से एशिया में चीन की बढ़ती ताकत के प्रति चिंता पैदा करके हथियारों की होड़ को बढ़ावा देना उसका मकसद हो सकता है। इसमें उसका दोहरा फायदा है। वह चीन के खिलाफ उसके ही पड़ोस में चुनौती खड़ी करेगा और हथियार बेचकर मुनाफा भी कमाएगा।पहला सबक तो यह है कि किसी अमेरिकी रिपोर्ट के आधार पर दहशतजदा होने या अपनी रणनीति बनाने के बजाय हम खुद अपनी रिपोर्ट तैयार करें। पिछली सदी के अंत में चीन के उभार को भांपकर अमेरिका ने ऐसी रिपोर्ट तैयार करने के लिए बाकायदे कानून बनाया था। उसी के तहत वर्ष 2000 से हर साल पेंटागन ऐसी रिपोर्ट पेश करता है। हमारे सैन्य प्रतिष्ठान में विभिन्न स्तरों पर चीन की रक्षा तैयारियों पर लगातार निगाह रखने और विश्लेषण करने का काम होता ही होगा। क्या अब समय नहीं आ गया है, जब हम भी ऐसी ही प्रामाणिक रिपोर्ट तैयार करें, संसद में रखें और उस पर सार्वजनिक बहस करें?चीन के साथ हमारा अप्रिय और कटु जंग का इतिहास रहा है। हालांकि 1962 के बाद दोनों तरफ की नदियों में काफी पानी बह चुका है, पर सीमा विवाद अब भी अनसुलझा है। फिर दो महाशक्तियों के उभार के दौरान संबंध कैसे मोड़ लेंगे, कहना कठिन है। इसलिए चीन की बढ़ती ताकत से भयभीत होने की जरूरत नहीं, लेकिन उसकी एकनिष्ठ स्वार्थपरता को गंभीरता से नहीं लेने की गलती भी हमें नहीं करनी चाहिए।