अब तक चली विकास नीति से उपेक्षित कुछ आदिवासी बंदूकें उठा रहे हैंप्रशांत भूषन ।
संसद में नक्सल ‘संकट’ के, जैसा कि गृह मंत्री ने इसे परिभाषित किया है, समाधान पर अपने वक्तव्य का समापन करते हुए पी। चिदंबरम ने कहा कि हमारी नीति ‘विकास’ और ‘सुरक्षा’ के दोहरे स्तंभों पर आधारित होनी चाहिए। ‘विकास’ का स्तंभ दरअसल इस बात की स्वीकारोक्ति थी कि खुद शासन के भीतर असहमति के स्वर बढ़ रहे हैं, जो यह कह रहे हैं कि नक्सल समस्या का हल सिर्फ बड़ी सैन्य कार्रवाइयों की बदौलत संभव नहीं है। लेकिन तब चिदंबरम यह कहते हैं कि नक्सली अपने नियंत्रण वाले इलाकों में सरकार को विकास का कोई काम करने ही नहीं देते। इसलिए जब तक हम नक्सलियों के नियंत्रण से आदिवासी इलाके खाली नहीं करा लेते, तब तक हम उन इलाकों के आदिवासियों तक विकास के लाभ नहीं पहुंचा सकते। और यही कारण है कि उन्होंने कहा कि ‘हमें उस रास्ते पर बने रहना चाहिए, जिसे नक्सलियों से निपटने के लिए काफी सावधानीपूर्वक तैयार किया गया है।’ जाहिर है, वह रास्ता है ऑपरेशन ग्रीनहंट का या नक्सलियों के दमन के लिए बड़े पैमाने पर सशस्त्र बलों के इस्तेमाल का। इस तर्क में दो बुनियादी समस्याएं निहित हैं। पहली, भारी संख्या में सशस्त्र बलों के इस्तेमाल से कथित ‘लाल गलियारे’ में रहने वाले आदिवासियों को रिहाइश के साथ-साथ अन्य कई तरह का नुकसान उठाना पड़ रहा है। वास्तव में, ऑपरेशन ग्रीनहंट के कारण विपत्ति में पड़े आदिवासियों में से ही अनेक लोग बंदूकें उठा रहे हैं और माओवादियों की टीम में शामिल हो रहे हैं। पिछले करीब छह महीनों में ही छत्तीसगढ़ के जिन इलाकों में ऑपरेशन ग्रीनहंट और सलवा जुड़ूम की मुहिम चल रही है, वहां सशस्त्र माओवादियों की संख्या लगभग दोगुनी हो गई है। दूसरी समस्या यह है कि आदिवासियों के विकास की जो परिकल्पना सरकार कर रही है, वह मुख्यतः खनन, स्टील, एल्युमिनियम और लौह उद्योगों के रूप में आकार लेती है। और इनके लिए उसे भूमि एवं उन जंगलों की दरकार होगी, जिन पर आदिवासियों का पूरा अस्तित्व निर्भर है। सरकारों ने इन उद्योगों के लिए निजी कंपनियों को लाखों एकड़ जमीन देने के सैकड़ों सहमति पत्र पर दस्तख्त किए हैं। इस कृत्य के पीछे तर्क यह दिया जाता है कि ये उद्योग विकास दर को तो गति देंगे ही, आदिवासियों को नौकरियां भी मिलेंगी। सचाई यह है कि अत्यधिक प्रदूषण फैलाने वाली इन कंपनियों की नौकरियां इनमें काम करने वालों की सेहत के लिए बेहद घातक हैं। फिर जितनी संख्या में ये आदिवासियों को नौकरियां देती हैं, वह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से विस्थापित होने वालों का बेहद मामूली प्रतिशत है। ये कंपनियां जितना विशाल भूभाग सीधे-सीधे अधिगृहीत करती हैं, उससे कई गुना अधिक धरती इनके प्रदूषण के कारण बंजर हो रही है। इनके आस-पास के जिन जल स्रोतों का इस्तेमाल आदिवासी करते हैं, वे इतने प्रदूषित हो चुके हैं, उनका जल पीने योग्य नहीं है। इस कारण स्थानीय आदिवासियों में स्वास्थ्य संबंधी गंभीर समस्याएं पैदा हो रही हैं। वायु प्रदूषण का आलम यह है कि स्पंज आयरन प्लांट के इर्द-गिर्द के पेड़ों की पत्तियां आपको विषैली कालिख से लदी दिख जाएंगी। यानी जिस तरह के विकास की बात सरकार कर रही है, वह वास्तव में वही है, जिसने आदिवासियों को जीवन के हाशिये पर धकेल दिया है। यह विध्वंसकारी विकास और ऑपरेशन ग्रीनहंट आदिवासियों के लिए क्या कर रहा है, इसकी गाथा हाल ही में छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल से आए अनेक आदिवासियों ने छह नामचीन शख्सियतों की एक जूरी को सुनाया। इस निर्णायक समिति में सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति पी।बी। सावंत, मुंबई उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति एच. सुरेश, शिक्षाशास्त्री यशपाल, नॉलेज कमिशन के पूर्व उपाध्यक्ष डॉ.पी.एम. भार्गव, महिला अयोग की पूर्व अध्यक्ष मोहिनी गिरी और पूर्व डीजीपी डॉ.के.एस. सुब्रमण्यन शामिल थे। आदिवासियों के हृदय चीर देने वाले उदाहरणों को सुनकर समिति को यह कहना पड़ा- ‘उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण की नई आर्थिक नीतियों के रूप में विकास के जिस मॉडल को स्वीकार किया गया और तेजी से मूर्त रूप दिया जा रहा है, उसने हाल के वर्षों में जमीन और जंगलों को, जो आदिवासियों की आजीविका और अस्तित्व के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं, बड़े पैमाने पर कॉरपोरेट घरानों को सौंपने के लिए राज्य को प्रेरित किया है, ताकि ये उद्योग खनिज संसाधनों का दोहन कर सकें।...इन उद्योगों के पर्यावरणीय प्रभावों के मूल्यांकन के लिए जो प्रक्रिया अपनाई गई है, उससे पीईएसए ऐक्ट के तहत ग्राम सभा से संपर्क की अपेक्षा महज मजाक बनकर रह गई है। इसका नतीजा यह हुआ है कि आदिवासी कुपोषण और भुखमरी की स्थिति में पहुंचा दिए गए हैं।...अपने जबरन विस्थापन के खिलाफ आदिवासी समुदायों द्वारा शांतिपूर्ण आंदोलन को पुलिस और सुरक्षा बलों की मदद से हिंसक तरीके से कुचला गया है।’ समिति ने यह प्रस्तावित भी किया कि आदिवासियों के इस जातीय संहार को रोकने के लिए सरकार द्वारा तत्काल कुछ कदम उठाए जाने की जरूरत है। सबसे पहले वह ऑपरेशन ग्रीनहंट रोके और स्थानीय लोगों से बातचीत शुरू करे। वह तत्काल सभी तरह के कृषि एवं वन भूमि के अधिग्रहण और आदिवासियों के जबरन विस्थापन पर रोक लगाए। सरकार सभी सहमति पत्रों के विवरणों, वन इलाकों में प्रस्तावित तमाम औद्योगिक व ढांचागत परियोजनाओं को घोषित करे और खेती की जमीन के गैर कृषि उपयोग वाले समस्त सहमति पत्रों और पट्टेदारी को ठंडे बस्ते में डाले। और जिन आदिवासियों को जबरन विस्थापित किया गया है, उनका उनके वन क्षेत्र में पुर्नवास करे। साफ है, जिन इलाकों में माओवादियों का वर्चस्व है, वहां के आदिवासियों के बलात् विस्थापन पर सरकार रोक लगाए। यकीनन उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य और बिजली जैसी सुविधाएं चाहिए, लेकिन उन्हें इस तरह के उद्योग कतई नहीं चाहिए। यदि वह ऑपरेशन ग्रीनहंट जैसे तरीकों से जंगलों को माओवादी मुक्त करने की कोशिश करती रहेगी, तो वह आदिवासियों को माओवादियों की तरफ जाने को ही बाध्य करेगी। (लेखक सर्वोच्च न्यायालय में अधिवक्ता एवं सामाजिक कार्यकर्ता हैं) अमर उजाला से साभार
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