शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

आस्था पर अदालती मुहर


यह श्री रविशंकर प्रसाद का आलेख है । जो उन्होंने दैनिक जागरण के लिए लिखा है । यह फैसले पर विशेष प्रकाश डालता है। हम इसे साभार प्रकाशित कर रहे है।

इससे अधिक बेहतर और कुछ नहीं हो सकता कि अयोध्या में विवादित स्थल को लेकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की पीठ ने एक मत से यह विचार व्यक्त किया कि करोड़ों हिंदू जिस स्थान को श्रीराम के जन्मस्थान के रूप में मान्यता देते हैं वह वास्तव में वही स्थान है जहां उनका जन्म हुआ। इतना ही महत्वपूर्ण अदालत का यह फैसला भी है कि जिस ढांचे को बाबरी मस्जिद बताया जा रहा है उसके संदर्भ में यह साबित नहीं होता कि उसका निर्माण बाबर अथवा उसके सेनापति मीर बकी ने कराया था। अयोध्या मामले में उच्च न्यायालय की पीठ के तीनों न्यायाधीशों ने मूल रूप से अलग-अलग फैसला दिया है, लेकिन जिन सवालों पर उन्होंने एक राय से उत्तर दिया है वे कुल मिलाकर यह स्पष्ट करते हैं कि रामजन्मभूमि परिसर ही भगवान श्रीराम का जन्मस्थल है। इस मामले में यह ध्यान रखना जरूरी है कि मुसलमान कभी भी इस तथ्य को विवादित नहीं मानते थे कि अयोध्या में भगवान श्रीराम का जन्म हुआ और न ही उन्हें इस पर आपत्ति रही है कि अयोध्या हिंदुओं के लिए पवित्र स्थल है। उनके लिए विवादित तथ्य यह रहा है कि जिस स्थान को हिंदुओं की ओर से भगवान श्रीराम का जन्मस्थान बताया जा रहा है वहां उनका जन्म नहीं हुआ और वह वास्तव में एक मस्जिद है। इसी बिंदु पर न्यायाधीशों ने एक मत से यह फैसला दिया है। हमने जिस मुख्य बिंदु पर अदालत में बहस की थी वह यह कि हिंदू दर्शन में देव की कल्पना है और वह साक्षात ईश्वर का स्वरूप होता है। ईश्वर ही आदि है, अनंत है। हिंदू समाज वायु और अग्नि की पूजा करता है। जिस प्रकार ये दोनों निराकार हैं उसी प्रकार ईश्वर भी निराकार हैं। आस्था में स्थान का महत्व होता है। गंगा पूरे देश में पूजनीय हैं, लेकिन गंगा का जो महत्व हरिद्वार में है वह अन्य स्थानों पर नहीं हो सकता। हमारा प्रश्न यह है कि हिंदू चिंतन में मंदिर क्यों होता है? मंदिर का अर्थ ईश्वर की उपस्थिति है, ईश्वर की अनुभूति है। मंदिर का अर्थ ईश्वर के आशीर्वाद की आंकाक्षा है। रामजन्म स्थान हिंदुओं के लिए आराध्य स्थल है-इसलिए है, क्योंकि वहां भगवान श्रीराम का जन्म हुआ। यह हमारी मान्यता भी है, श्रद्धा भी है और आस्था भी। यह करोड़ों हिंदुओं का विश्वास है। उच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों ने यह पाया है कि हिंदुओं का यह विश्वास पूरी तरह सही है। जिस स्थल के स्वामित्व का फैसला होना है वह वही स्थान है जहां भगवान श्रीराम का जन्म हुआ। इसलिए यह स्थान हिंदुओं के लिए देवतुल्य है, पूजनीय है, पवित्र है। इस संदर्भ में वैसे तीनों न्यायाधीशों की राय एक है, लेकिन जस्टिस एसयू खान ने इसे एकदम स्पष्ट नहीं किया है। न्यायमूर्ति शर्मा ने समूचे विवादित स्थल के मालिक भगवान राम को बताया है। न्यायमूर्ति खान और न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने निर्णय दिया है कि विवादित स्थल को तीन बराबर हिस्सों में बांटकर सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़े और रामलला विराजमान को सौंप दिया जाए। न्यायमूर्ति खान ने भी निर्णय दिया है कि वास्तविक बंटवारे के समय बीच वाले गुंबद के नीचे जिस स्थान पर रामलला का अस्थाई मंदिर बना है वह हिंदुओं को ही दिया जाएगा। उन्होंने यह भी कहा कि तीसरा हिस्सा निर्मोही अखाड़े को दिया जाएगा, जिसमें राम चबूतरा और सीता रसोई शामिल रहेंगे। जहां तक बाबर द्वारा मंदिर तोड़कर मस्जिद बनवाए जाने की बात है तो इसको लेकर तीनों जजों की राय अलग-अलग रही। न्यायमूर्ति अग्रवाल ने विचार व्यक्त किया कि विवादित ढांचे का निर्माण एक गैर-इस्लामी इमारत अर्थात मंदिर के विध्वंस के बाद कराया गया था। इसी प्रकार न्यायमूर्ति शर्मा ने निर्णय दिया कि विवादित ढांचे का निर्माण हिंदू धार्मिक इमारत को ढहाकर कराया गया था। उन्होंने आगे लिखा है कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने साबित किया है कि मस्जिद के निर्माण से पहले वहां विशाल हिंदू धार्मिक ढांचा था। दूसरी ओर न्यायमूर्ति खान का विचार है कि मस्जिद बनवाने के लिए किसी मंदिर को नहीं ढहाया गया। उनके अनुसार मस्जिद का निर्माण मंदिर के खंडहर के ऊपर कराया गया था। वह मंदिर बाबरी मस्जिद के निर्माण से काफी पहले खंडहर में तब्दील हो चुका था। अब जब अयोध्या विवाद पर अदालत का फैसला सामने आ गया है तब दूध का दूध और पानी का पानी हो चुका है। उच्च न्यायालय ने राम जन्मभूमि स्थल के पक्ष में अपना फैसला सुनाया है। फिर भी मैं न तो भाजपा नेता के रूप में और न ही वकील के रूप में कुछ कहना चाहूंगा, बल्कि मैं एक भारतीय के रूप में इस फैसले को लेकर यह अपील करना चाहूंगा कि इस फैसले को सही परिप्रेक्ष्य में देखा जाए। विवाद का जो मुख्य बिंदु था कि संबंधित स्थल राम के जन्म का स्थान है या नहीं उस पर अदालत ने अपना अभिमत स्पष्ट रूप से सुना दिया है। इस फैसले को सभी पक्षों को विनम्रता से स्वीकार करना चाहिए। अगर हम ऐसा करने में सफल रहे तो इस देश में एक नई मिसाल कामय कर सकते हैं। वस्तुत: यही वह तरीका है जिससे हम शांति-सद्भाव के एक नए युग का सूत्रपात कर सकते हैं। अयोध्या का मामला समाधान बिंदु के एकदम करीब आ गया है। उच्च न्यायालय के फैसले से असहमत पक्ष अथवा पक्षों के लिए उच्चतम न्यायालय जाने का विकल्प खुला हुआ है, लेकिन समय ने हमें समाधान का जो अवसर उपलब्ध कराया है उसे व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए। अब यह हमारे ऊपर है कि हम इस विवाद को और अधिक लंबा खींचकर उसे अन्य जटिलताओं में बांध देना चाहते हैं या समाधान के साथ एकता-भाईचारे का नया आयाम स्थापित करना चाहते हैं? दशकों पुराने विवाद को हमेशा के लिए समाप्त करना अब अधिक मुश्किल नहीं रह गया है, लेकिन यह तभी संभव है जब हम सभी समझदारी का परिचय दें। (लेखक भाजपा के वरिष्ठ नेता हैं)

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