शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

मंदिर की मान्यता की पुष्टि



यह श्री सुभाष कश्यप का आलेख है । जो उन्होंने दैनिक जागरण के लिए लिखा है । यह फैसले पर विशेष प्रकाश डालता है। हम इसे साभार प्रकाशित कर रहे है।


अयोध्या में विवादित ढांचे पर इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा दिया गया फैसला एक ऐतिहासिक निर्णय है। भारत के इतिहास में पिछले 500-600 साल से यह मसला विवादों में रहा था और करीब 60 वर्ष से यह मामला अदालत में चल रहा था। अदालत द्वारा जो निर्णय दिया गया है वह बहुत लंबा-चौड़ा है, जिसे अच्छी तरह समझने की आवश्यकता है और इस काम में वक्त लगेगा। फिर भी मोटा-मोटा जो निष्कर्ष अभी सामने है वह यही है कि अयोध्या में हिंदुओं के आराध्य रामलला का मंदिर होने का दावा सही है और इस स्थल पर मुसलमानों द्वारा जो दावा किया जा रहा है वह साक्ष्य की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। इस आधार पर अब यह साफ है कि हिंदुओं द्वारा वर्षो से किया जा रहा दावा सही है और यह बात अब न्यायालय में भी साबित हो गई है। यहां एक बात और महत्वपूर्ण है कि जिन आधारों पर सुन्नी वक्फ बोर्ड ने अपना दावा जताया था उसे न्यायालय ने 2-1 के निर्णय से खारिज कर दिया। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि न्यायालय के सामने सुनवाई के लिए तकरीबन 100 बिंदु विचारार्थ रखे गए थे, जिनमें से तकरीबन 27-28 मुद्दे महत्वपूर्ण थे। न्यायालय ने सभी बिंदुओं की सूक्ष्म विवेचना दिए गए साक्ष्यों और अदालत में रखे गए तर्को के आधार पर की। अदालत में रखे गए प्रमुख बिंदुओं में तीन सवाल अत्यधिक महत्वपूर्ण थे। इनमें पहला सवाल यह था कि क्या भगवान राम का जन्म विवादित ढांचे से संबंधित उसी स्थान पर हुआ था, जिस बारे में हिंदू वर्षो से दावा करते आ रहे हैं? इस सर्वाधिक महत्वपूर्ण सवाल के उत्तर में तीन जजों वाली पीठ ने एक मत से यह स्वीकार किया कि हां, सही है कि भगवान राम का जन्म उसी स्थान पर हुआ था जिस पर अभी तक हिंदू समाज द्वारा दावा किया जाता रहा है। इसी तरह दूसरा एक और महत्वपूर्ण सवाल यह था कि जिस स्थान पर लगभग पांच सौ साल पहले बाबरी मस्जिद बनाई गई, क्या उससे पहले वहां राम मंदिर बना हुआ था? इस प्रश्न के उत्तर के लिए अदालत भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) की रिपोर्ट में दिए गए सबूत और वहां बाबरी मस्जिद से पहले बने हुए मंदिर के ढांचे के हिस्सों को देख-समझकर इस निष्कर्ष पर पहुंची कि वहां सबसे पहले मंदिर बना हुआ था और बाद में मस्जिद के ढांचे का निर्माण किया गया। इस आधार पर अदालत ने राम मंदिर के दावे को सही माना और मस्जिद होने के तर्क को खारिज कर दिया। यह निर्णय सभी जजों ने एक मत से लिया और इस बात पर किसी को मतभेद भी नहीं था। इसी तरह तीसरा सवाल यह था कि जहां बाबरी मस्जिद या मंदिर है, क्या वहां नमाज अथवा पूजा आदि होती आ रही थी? इस बिंदु के उत्तर में भी यही निष्कर्ष निकल कर आया कि वहां नमाज नहीं हो सकती, क्योंकि इस्लामिक मान्यताओं के मुताबिक पूर्व में स्थित किसी ढांचे के खंडहर पर पवित्र मस्जिद का निर्माण ही नहीं किया जा सकता और ऐसे स्थान पर नमाज अदा करना शरीयत के खिलाफ जाता है। इसी आधार पर तीन जजों वाली हाईकोर्ट की पीठ ने विवादित धार्मिक स्थल को तीन हिस्सों में बांटने का निर्णय लिया ताकि भविष्य में हमेशा के लिए इस मामले का समाधान हो जाए। रामजन्मभूमि के तीन हिस्से में एक तिहाई हिस्सा भगवान रामलला जिन्हें स्वयं वादकार बनाया गया था, को दिया गया है और तिहाई हिस्सा निर्मोही अखाड़ा को देने का निर्णय हुआ और एक तिहाई हिस्सा मुसलमानों को देने की बात कही गई है। निर्णय के तहत परिसर का आंतरिक हिस्सा हिंदुओं को मिलेगा और सीता रसोई तथा राम चबूतरा का हिस्सा निर्मोही अखाड़े को मिलना है तथा शेष हिस्सा मुसलमानों को दिया जाएगा, जिसमें वह मस्जिद बना सकते हैं अथवा नमाज अदा कर सकते हैं। इस फैसले के मुताबिक दोनों पक्षों को तीन महीने का समय दिया गया है ताकि वह अपने-अपने पक्ष को दोबारा अदालत में रख सकें, तब तक इस स्थान पर कोई निर्माण कार्य नहीं किया जा सकता। कुल मिलाकर आस्था से जुड़े हुए इस सबसे बड़े अदालती निर्णय में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस तरह अंगे्रज भारत को आजाद करते समय इसे भारत और पाकिस्तान नामक दो हिस्सों में बांट गए थे, कुछ वैसा ही इलाहाबाद हाईकोर्ट का निर्णय रहा। जब सभी साक्ष्य, सबूत और तर्क वहां मंदिर होने के पक्ष में थे तो फिर क्यों परिसर का एक तिहाई हिस्सा मुसलमानों को देने का निर्णय क्यों हुआ? यदि साक्ष्य मस्जिद के पक्ष में होते तो क्या तब भी ऐसा ही निर्णय आता? अब इसी आधार पर दोनों पक्ष एक बार फिर से सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाएंगे और दूसरे पक्ष को गलत साबित करने और अपने पक्ष को सही मानने के लिए तर्क पेश करेंगे। इस कार्य में पुन: एक साल, दो साल या फिर कई साल लगेंगे। इस फैसले से जुड़ा हुए एक और मुद्दा यह है कि अब जबकि अदालत का फैसला आ चुका है तो किसी भी तरह का राजनीतिकरण इन मसलों को लेकर नहीं किया जाना चाहिए और अदालत के फैसले का सम्मान सभी को करना चाहिए। इस समय मूल बात यही है कि जो भी पक्ष निर्णय को जिस हद तक स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं उनके आधार पर उन्हें सुप्रीम कोर्ट जाना चाहिए। जो तथाकथित सेकुलर लोग हैं उन्हें इस फैसले का सांप्रदायीकरण करने से बचना चाहिए। यह मामला अब कानून के दायरे में है और इस संदर्भ में अदालत जो भी फैसला करे वह सभी के लिए स्वीकार्य होना चाहिए। उच्च न्यायालय के फैसले के गुण-दोष का निर्धारण सुप्रीम कोर्ट को करना है। (लेखक संविधान मामलों के विशेषज्ञ हैं)

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