बिहार में चुनाव से तीन महीने पहले गठबंधन सरकार के बीच आया राजनीतिक तूफान फिलहाल थम गया है।
दोनों घटक दल अपने राजनीतिक नफा-नुकसान का हिसाब लगाने में जुट गये हैं, क्योंकि उन्हें एहसास है कि वर्तमान राजनीतिक हालात में गठबंधन को जारी रखना ही दोनों दलों के हित में है, इसलिए दोनों दलों के बीच जो कुछ भी हुआ वह प्याले में आये तूफान जैसा ही था। सवाल है कि भाजपा के साथ मिलकर सरकार चलाने वाले दल खुलकर उसकी बगलगीर बनने से क्यों कतराते हैं, भाजपा को इस सवाल पर गंभीरता से सोचना होगा।
अतीत बताता है कि गठबंधन की राजनीति के जरिये भाजपा सत्ता में जरूर रही, पर उसे इस धर्म को निभाने में नुकसान ही हुआ। 1967 में गैर कांग्रेसवाद के नाम पर चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में संघीय सरकार बनी थी। उस समय भी 99 सदस्यों वाले जनसंघ के कुल चार ही लोग मंत्री बने थे। चौधरी के सामने उसकी एक न चली थी। 1977 में भी मोरारजी देसाई के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनी थी, उस दौरान भी अन्य घटक दलों की तुलना में जनसंघ सदस्यों को सरकार और राज्यों में बनी प्रांतीय सरकारों में कम महत्व मिला था। उत्तर प्रदेश में 90 के दशक के बाद भाजपा-बसपा गठबंधन भी कई खट्टे-मीठे अनुभवों के बाद टूटा। एनडीए में उसका ममता की तृणमूल कांग्रेस से तो, उड़ीसा में बीजद से जिस तरह गठबंधन और अलगाव हुआ, उससे यही निष्कर्ष निकलता है कि सभी मध्यमार्गी दल मुस्लिमों के डर से चुनाव के दौरान उससे पल्ला झाड़ लेना चाहते हैं। इन दलों को भी चुनावों में कांग्रेस और कम्युनिस्टों की तरह उसका सांप्रदायिक चेहरा दिखने लगता है। राष्ट्रीय-प्रांतीय राजनीति में अचानक रातोंरात वह ‘अछूत’ हो जाती है। भाजपा के समक्ष आज सबसे जटिल चुनौती यही है कि उसके रणनीतिकार मध्यमार्गी दलों के इस रवैये के प्रति कैसे अपनी दीर्घकालीन रणनीति बनाएं?
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अभी जो कुछ भी किया, वह कोई अप्रत्याशित नहीं है। जिस तरह गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ उनकी तस्वीर आयी, उससे राजनीतिक तूफान अवश्यम्भावी था, क्योंकि उन्हें भाजपा के बगलगीर रहने के कारण मुस्लिम मतों के खिसकने का भय सता रहा है। इसीलिए भाजपा के साथ पांच साल तक सरकार चलाने वाले नीतीश ने उसे सार्वजनिक रूप से अपमानित करने का मौका नहीं गंवाया, लेकिन नीतीश से भी यह सवाल किया जाना चाहिए कि फिर पांच साल से वह भाजपा को बगलगीर क्यों बनाए हुए है? भाजपा भी इस तरह का अपमान सहकर भी सरकार से चिपकी है। ऐसी ही भूल वह तीन बार उत्तर प्रदेश में कर चुकी है। मायावती ने उसका बैसाखी की तरह उपयोग किया और धीरे-धीरे अपनी ताकत बढ़ाकर उसका वोट-बैंक भी चट कर लिया। आज भाजपा उत्तर प्रदेश में काफी कमजोर स्थिति में है। झारखंड में भी उसने यही भूल की। जिस शिबू सोरेन के भ्रष्टाचार को उजागर करने के लिए उसने कई दिनों तक संसद की कार्यवाही नहीं चलने दी, उसके लिए ही वह सत्ता की सीढ़ी बनी। सोरेन ने क्या किया, सरेआम है। भाजपा के अनुरोध को दरकिनार कर संसद में संप्रग के पक्ष में मतदान किया। राजनीतिक नफा-नुकसान का जोड़-घटाव कर बिहार में दोनों दल फिलहाल चुप हैं। संभावना है कि दोनों दलों के बीच कड़वाहट टिकट वितरण के समय नया गुल खिला सकती है।
यह सच है कि नीतीश के आभामंडल के चलते भाजपा अपनी कोई खास प्रभावी छवि नहीं बना सकी है। उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी पर इसी कमजोरी को लेकर पार्टी के अंदर उंगलियां उठती रही हैं। आज अगड़ी जातियां मुख्यमंत्री से नाराज हैं। इसकी मुखर अभिव्यक्ति भी वे कर चुके हैं, किंतु भाजपा इस वोट बैंक पर अपनी मजबूत पकड़ नहीं बना पा रही है, क्योंकि अगड़ों के सवालों को लेकर वह मुख्यमंत्री के समक्ष चुनौती खड़ा नहीं कर पा रही है। इसलिए राजपूत, भूमिहार, ब्राह्मण और कायस्थ आसन्न विधानसभा चुनाव में रणनीतिक तौर पर मतदान करने की योजना बना रहे हंै। उनके समक्ष बिहार में नीतीश के नेतृत्व में अतिपिछड़ा और महादलित गठबंधन को चुनौती देने की है, ताकि उन्हें उनकी (अगड़ी जातियों) ताकत का एहसास हो सके। इसीलिए इनका झुकाव भाजपा की तरफ है, किंतु अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि के चलते भाजपा के खिलाफ नीतीश ने जो तेवर दिखाये, भाजपा उसे उतनी तेजी से अपने पक्ष में भुना नहीं सकी। गठबंधन चलाने के लिए उसकी लाचारी झारखंड जैसी ही दिखी, जिसके चलते अगड़ी जातियों का उससे भी मोहभंग होता दिख रहा है। उसे यह समझना चाहिए कि परिसीमन के बाद जो नये राजनीतिक समीकरण बने हैं, उसमें अकेले चुनाव लड़कर सफलता पाना नीतीश के लिए आसान नहीं होगा क्योंकि चतुष्कोणीय संघर्ष में सत्ता हासिल कर पाना अकेले किसी के लिए दूर की कौड़ी ही है। ऐसे में, भाजपा को जद-यू के समक्ष अपनी दब्बू छवि को तोड़ना होगा। साथ ही, अपने पक्ष में शीघ्र डैमेज कंट्रोल की रणनीति बनानी होगी, ताकि अगड़ी जातियों का विश्वास उनसे न डिगे। यघपि लालू प्रसाद और रामविलास पासवान भी इस पहलू को भांप चुके हैं और उन्हें रिझाने की कोशिश में कूटनीतिक चालें चलनी शुरू कर दी हैं, किंतु अगड़ी जातियां लालू-राबड़ी राज के पंद्रह साल को अभी भूली नहीं हैं। कांग्रेस के प्रति भी इन जातियों का आकर्षण है, किंतु इस पार्टी में इतनी गुटबंदी है कि वहां हर कोई एक दूसरे को कमजोर करने में लगा है। निचले स्तर तक पार्टी का मजबूत संगठन न होने का भी लाभ इस चुनाव में भाजपा को मिल सकता है। शायद यही लोभ उसे जद-यू से भी जोड़े रखे।
दरअसल, भाजपा को स्वतंत्र ढंग से अपनी ताकत को समझना होगा। स्थापना के तीस साल के भीतर वह तीन बार देश की सत्ता में रही है। अटल-आडवाणी के नेतृत्व में उसने भारतीय राजनीति में गठबंधन राजनीति को नया आधार दिया, पर आज वही भाजपा अपनी ताकत को नहीं पहचान पा रही है। उत्तर प्रदेश, झारखंड और उड़ीसा में गलबहियां कर सरकार चलाने वाली पार्टियां ऐन चुनाव के वक्त सांप्रदायिकता का आरोप लगाकर उससे अलग हो जाती हैं या फिर ऐसी स्थिति पैदा करती हैं कि उसे खुद ही अलग होना पड़ता है, लेकिन सहयोगी दलों को कटघरे में खड़ा करने से पहले खुद भाजपा को भी सोचना होगा कि उसकी दोयम दर्जे की स्थिति क्यों बन जाती है। यूपी- उड़ीसा हो या बिहार-झारखंड, सभी जगह उसने गठबंधन इसीलिए किये कि इन राज्यों में वह स्वतंत्र ढंग से मजबूत नहीं हो सकती थी।
ऐसे में, उसे अपने ही खोल में झांकना होगा कि इसके लिए क्या उसकी नीतियां जिम्मेदार नहीं है? अपने विभिन्न निहित स्वार्थों के लिए ही वह भी मध्यमार्गी दलों से हाथ मिलाती रही है। सत्ता-सुख के स्वाद में उलझती हुई धीरे-धीरे वह अपना स्वतंत्र अस्तित्व खोने लगती है। ऐसी स्थिति में वह विपक्ष की भी आवाज नहीं बन पाती। राज्य में उसके नेता सत्ता लाभ में आकंठ डूब जाते हैं और इसका फायदा गठबंधन का मुख्य दल उठाता है। ऐसे में, इन राज्यों में उसे भी इस नए ढंग से सोचना होगा कि वह कैसे इन राज्यों में एक मजबूत संगठन बने। शायद इसी सोच के साथ ही वह खुद को मुख्यधारा में रख सकेगी। रक्षात्मक कदम उसे यूपी की ही राह पर ले जाएगा।
यह लेख रणविजय सिंह जी ने सहारा समय पर २८ जून को लिखा था । हम इसे कॉपी कर साभार प्रकाशित कर रहे है । ............................... बिग हिन्दू
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