रोहित कुमार सिंह
भारत की सियासत में कुछ भी संभव है. नरेंद्र मोदी की सदभावना उपवास कार्यक्रम के अंतिम दिन सोमवार को टोपी विवाद को जिस तरह से हवा देकर इसे सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की गयी , उससे तो यही लगता है कि कांग्रेस एंड कंपनी किसी सूरत में मोदी को बरदाश्त नहीं करना चाहती है.
पहले टोपी विवाद का पूरा वाकया पढें. मंच पर एक मौलवी साहब आते हैं, मोदी पूरी शिददत के साथ उनसे मिलते हैं, दोनों के बीच बातचीत होती है. अचानक मौलवी साहब अपनी जेब से एक इबादती टोपी निकालते हैंऔर मोदी को पहनाने की ख्वाहिश जाहिर करते हैं. मोदी आग्रहपूर्वक टोपी पहनने से इनकार कर देते हैं और एक चादर को स्वीकार कर मौलवी साहब को सम्मानपूर्वक विदा कर दिया.
जब मामले को कांग्रेस व सत्ता के सेकुलर दलालों द्वारा तूल दिया जाने लगा तो भाजपा की ओर से कहा गया कि टोपी इबादत के लिए होती है, लिहाजा टोपी पहनना अथवा न पहनना की भी रूप से राजनीति का अंग नहीं हो सकता है. मेरा भी व्यकितगत रूप से मानना है कि अपना धर्म किसी पर थोपना नहीं चाहिए, हर धर्म की अपनी मर्यादा व सीमा होती है, इसका उल्लंघन किसी भी सूरत में नहीं किया जाना चाहिए. पर इस देश में कांग्रेस की जो यूपीए है वह इन बातों से इत्तफाक नहीं रखती है. मेरा सवाल हो -हल्ला मचा रही कांग्रेस से है- क्या अगर मोदी टोपी स्वीकार कर लेते तो वह सेकुलर हो जाते, क्या बिना टोपी पहने मोदी ने जो आज तक गुजरात पर शासन किया है उसमें मुसलमानों का भला नहीं हुआ है, मोदी ने धर्म के नाम पर नाटक नहीं किया जो अमूमन सभी नेता करते हैं . पवित्र रमजान के समय हमारे नेता टोपी, पायजामा-कुरता, लाल या काली गमछी पहन-ओढ कर नमाजियों के संग एकता जताने के लिए जुट जाते हैं व उनके पवित्र रोजा खोलने को इफतार पार्टी बना डालते हैं. रमजान में नमाजी अल्लाह की इबादत में जुटे रहते हैं व एक शाम भोजन कर रोजा खोलते हैं , पर क्या हमारे नेता ऐसा करते हैं. वे तो दिन भर कम-कुकर्म कर शाम को भांड की तरह जाकर झूटी एकता जताने लगते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि ऐसा करने से मुसलमान खुश होंगे व उन्हें वोट देंगे. अगर मोदी ने आग्रहपूर्वक टोपी लौटा दी तो कौन सा पहाड टूट पडा. कम से कम एक बात के लिए मोदी को शाबासी मिलनी चाहिए कि उन्होंने किसी के धर्म का अनादर नहीं किया.
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