बुधवार, 17 अगस्त 2011

यह सरकार और तीन साल नहीं...


नीरेंद्र नागर
आज सुबह वही हुआ जिसका कल से अंदेशा था। सरकार ने अन्ना हजारे को जेपी पार्क में अनशन करने की इजाज़त नहीं दी। आज जेपी यानी जयप्रकाश नारायण ज़िंदा होते तो व्यथित होकर यही कहते – कांग्रेस पार्टी 36 साल में भी नहीं बदली।

तब इंदिरा गांधी सत्ता में थीं, आज सोनिया गांधी हैं। इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं और सोनिया गांधी प्रधानमंत्री की बॉस हैं यानी सुपर प्रधानमंत्री। आप और हम पीएम का मतलब प्राइम मिनिस्टर समझते हैं। लेकिन सोनिया गांधी के लिए पीएम का मतलब है पर्सनल मैनेजर। पुराने ज़माने में होता था कि जब तक बाबा बड़ा न हो जाए तब तक राजपाट की हिफाज़त एक वफादार नौकर करता था। अब भी कोशिश यही है कि बाबा राहुल गांधी के बाल थोड़े पक जाएं और वह वोटरों के सामने अगले प्रधानमंत्री के तौर पर पेश किए जाने लायक हो जाएं, तब तक मनमोहन सिंह पीएम पद पर बने रहें।

आज अन्ना हज़ारे के अनशन के दिन मैं यह मनमोहन पुराण लेकर क्यों बैठा हूं? इसलिए कि मन में बहुत गुस्सा है। पहले भी कई दफे इस तरह गुस्सा आया था। 1975 में जब इमर्जेंसी लगाकर सारे देश को बंदी बना दिया गया था, 1984 में जब आंध्र प्रदेश में एन. टी. रामाराव की बहुमत वाली सरकार को बर्खास्त कर दिया गया था, फिर उसी साल जब इंदिरा गांधी के हत्या के बाद सिखों को चुन-चुनकर मारा गया था, 1992 में जब सुप्रीम कोर्ट के आदेश को ठेंगा दिखाते हुए बाबरी मस्जिद गिरा दी गई थी, 2002 में जब गुजरात के गोधरा स्टेशन में ट्रेन जलाई गई और उसके बाद राज्य सरकार की देखरेख में हज़ारों लोग दंगों में मारे गए थे।

आज फिर गुस्सा आ रहा है। गुस्सा मनमोहन सिंह पर नहीं है। (कठपुतली पर गुस्सा करके क्या कर लोगे!) गुस्सा मुझे पूरी कांग्रेस पार्टी पर आ रहा है जिसने तय कर रखा है कि वह करप्ट लोगों को फटाफट सज़ा दिलवानेवाला लोकपाल बिल कभी नहीं लाएगी। उसकी पूरी कोशिश है कि एक ढीलाढाला-सा बिल आ जाए जिसमें न प्रधानमंत्री फंसें न सांसद और न ही निचले स्तर के सरकारी कर्मचारी। इस पिलपिले बिल को लाने से उसकी मंशा साफ हो जाती है और आज अन्ना हजारे को अनशन से पहले गिरफ्तार करने से भी स्पष्ट हो जाता है कि कांग्रेसियों की वफादारी किसके साथ है – भ्रष्टाचारियों के साथ।

कांग्रेस भ्रष्टाचारियों के साथ और जनता अन्ना हज़ारे के साथ। सबको नज़र आ रहा है लेकिन कांग्रेस को नहीं दिख रहा है। उसके नेता चिदंबरम, कपिल सिब्बल और अंबिका सोनी ने आज एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में इस सारे मामले को ऐसा रूप देने की कोशिश की कि यह बस एक आदमी की ज़िद है जो कह रहा है कि मेरा वाला बिल पास करो वरना मैं अनशन करता हूं। मेरी समझ में यह मामले को उलझाने की बहुत बड़ी चाल है। आखिर अन्ना किसी बात की जिद कर रहे हैं? क्या वह जिस बिल की मांग कर रहे हैं, उससे उनको कोई राजगद्दी मिल जाएगी? अगर अन्ना के बिल में कोई कमी है तो आज तक सरकार के किसी भी मंत्री ने क्यों नहीं कहा कि इस बिल में यह कमी है। और जब कमी नहीं है तो उसको पास करने में क्या दिक्कत है?

ऐसा नहीं कि सरकार और कांग्रेस पार्टी को आज करप्शन के खिलाफ उमड़ा जनाक्रोश नहीं दिख रहा। उन्हें सब दिख रहा है लेकिन उनको यह भी पता है कि चुनाव अभी तीन साल दूर हैं। लेकिन जैसा कि लोहिया ने कहा था – ज़िंदा कौमें पांच साल तक इंतज़ार नहीं करतीं।

आज के दिन मेरे मन में यही विचार आ रहा है – यह सरकार और तीन साल नहीं चलनी चाहिए। यह दादागीरी और तीन साल नहीं चलनी चाहिए। यह तानाशाही और नहीं चलनी चाहिए.

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