26-11 की घटना को तीन साल पूरे हो चुके हैं. आतंकियों से निबटने की बात का क्या हुआ, सरकार ने क्या किया, जो घोषणाएं हुर्इं, उनका क्या हुआ इन सब बातों में मैंहमेशा की तरह नहीं जाना चाहता हूं. शायद इसलिए कि पत्रकारिता के चार वर्षों के अनुभव से मैं यह जान गया हूं कि हमारा सिस्टम बीती ताहि बिसार दे का मुरीद है और यह अपनी ही समस्याओं में इस कदर डूबा हुआ है कि आतंकवाद से निबटना इसकी प्राथमिकता सूची में सबसे नीचे है. शायद यही वजह है कि कारगिल, मुंबर्इ, दिल्ली में धमाके झेलनेके बाद यह भावशून्य है. दरअसल, हजारों वर्षों की सांस्क्रतिक गुलाामी के बाद हममें विरोध नाम की कोर्इ चीज नहीं बची है. लेकिन मैं भी आदत से मजबूर हूं-जैसे ही खबर पढी कि माननीय कसाब पर अबतक 16 करोड रूपये खर्च हो चुके हैं, मन व्यथित हो गया, सोचने लगा कि क्या हमारे मेहनत की कमार्इटैक्स यही इज्जत होनी चाहिए. एक ऐसा आदमी जिसने हमारे देशवासियों को मारने में कोर्इ कोताही नहीं बरती, उसे हम दामाद की तरह तीन साल से बैठा कर उस जनता की कमार्इ खिला रहे हैं जो साल भर मेहनत-मजदूरी कर , समस्याओं में रह कर इस उम्मीद में सरकार को अपनी कमार्इ का हिस्सा देती है कि वह उसकी रक्षा करेगी. लेकिन हमारे हुक्मरान संविधान के प्रति लिये गये शपथ को भूल कर देश के दुश्मनों को पाल रहे हैं. यह बंद होना चाहिए. यह निशिचत ही बंद होना चाहिए.
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