बुधवार, 20 अक्टूबर 2010
...अब ये राबर्ट वाड्रा कौन हैं भाई
शुक्रवार, 15 अक्टूबर 2010
बचाओ, बचाओ...बिहार को बचाओ
मंगलवार, 12 अक्टूबर 2010
जीत मुबारक हो हिंदू सम्राट
गुरुवार, 7 अक्टूबर 2010
इस नकली गांधी से देश को बचाएं
शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2010
मंदिर की मान्यता की पुष्टि
यह श्री सुभाष कश्यप का आलेख है । जो उन्होंने दैनिक जागरण के लिए लिखा है । यह फैसले पर विशेष प्रकाश डालता है। हम इसे साभार प्रकाशित कर रहे है।
अयोध्या में विवादित ढांचे पर इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा दिया गया फैसला एक ऐतिहासिक निर्णय है। भारत के इतिहास में पिछले 500-600 साल से यह मसला विवादों में रहा था और करीब 60 वर्ष से यह मामला अदालत में चल रहा था। अदालत द्वारा जो निर्णय दिया गया है वह बहुत लंबा-चौड़ा है, जिसे अच्छी तरह समझने की आवश्यकता है और इस काम में वक्त लगेगा। फिर भी मोटा-मोटा जो निष्कर्ष अभी सामने है वह यही है कि अयोध्या में हिंदुओं के आराध्य रामलला का मंदिर होने का दावा सही है और इस स्थल पर मुसलमानों द्वारा जो दावा किया जा रहा है वह साक्ष्य की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। इस आधार पर अब यह साफ है कि हिंदुओं द्वारा वर्षो से किया जा रहा दावा सही है और यह बात अब न्यायालय में भी साबित हो गई है। यहां एक बात और महत्वपूर्ण है कि जिन आधारों पर सुन्नी वक्फ बोर्ड ने अपना दावा जताया था उसे न्यायालय ने 2-1 के निर्णय से खारिज कर दिया। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि न्यायालय के सामने सुनवाई के लिए तकरीबन 100 बिंदु विचारार्थ रखे गए थे, जिनमें से तकरीबन 27-28 मुद्दे महत्वपूर्ण थे। न्यायालय ने सभी बिंदुओं की सूक्ष्म विवेचना दिए गए साक्ष्यों और अदालत में रखे गए तर्को के आधार पर की। अदालत में रखे गए प्रमुख बिंदुओं में तीन सवाल अत्यधिक महत्वपूर्ण थे। इनमें पहला सवाल यह था कि क्या भगवान राम का जन्म विवादित ढांचे से संबंधित उसी स्थान पर हुआ था, जिस बारे में हिंदू वर्षो से दावा करते आ रहे हैं? इस सर्वाधिक महत्वपूर्ण सवाल के उत्तर में तीन जजों वाली पीठ ने एक मत से यह स्वीकार किया कि हां, सही है कि भगवान राम का जन्म उसी स्थान पर हुआ था जिस पर अभी तक हिंदू समाज द्वारा दावा किया जाता रहा है। इसी तरह दूसरा एक और महत्वपूर्ण सवाल यह था कि जिस स्थान पर लगभग पांच सौ साल पहले बाबरी मस्जिद बनाई गई, क्या उससे पहले वहां राम मंदिर बना हुआ था? इस प्रश्न के उत्तर के लिए अदालत भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) की रिपोर्ट में दिए गए सबूत और वहां बाबरी मस्जिद से पहले बने हुए मंदिर के ढांचे के हिस्सों को देख-समझकर इस निष्कर्ष पर पहुंची कि वहां सबसे पहले मंदिर बना हुआ था और बाद में मस्जिद के ढांचे का निर्माण किया गया। इस आधार पर अदालत ने राम मंदिर के दावे को सही माना और मस्जिद होने के तर्क को खारिज कर दिया। यह निर्णय सभी जजों ने एक मत से लिया और इस बात पर किसी को मतभेद भी नहीं था। इसी तरह तीसरा सवाल यह था कि जहां बाबरी मस्जिद या मंदिर है, क्या वहां नमाज अथवा पूजा आदि होती आ रही थी? इस बिंदु के उत्तर में भी यही निष्कर्ष निकल कर आया कि वहां नमाज नहीं हो सकती, क्योंकि इस्लामिक मान्यताओं के मुताबिक पूर्व में स्थित किसी ढांचे के खंडहर पर पवित्र मस्जिद का निर्माण ही नहीं किया जा सकता और ऐसे स्थान पर नमाज अदा करना शरीयत के खिलाफ जाता है। इसी आधार पर तीन जजों वाली हाईकोर्ट की पीठ ने विवादित धार्मिक स्थल को तीन हिस्सों में बांटने का निर्णय लिया ताकि भविष्य में हमेशा के लिए इस मामले का समाधान हो जाए। रामजन्मभूमि के तीन हिस्से में एक तिहाई हिस्सा भगवान रामलला जिन्हें स्वयं वादकार बनाया गया था, को दिया गया है और तिहाई हिस्सा निर्मोही अखाड़ा को देने का निर्णय हुआ और एक तिहाई हिस्सा मुसलमानों को देने की बात कही गई है। निर्णय के तहत परिसर का आंतरिक हिस्सा हिंदुओं को मिलेगा और सीता रसोई तथा राम चबूतरा का हिस्सा निर्मोही अखाड़े को मिलना है तथा शेष हिस्सा मुसलमानों को दिया जाएगा, जिसमें वह मस्जिद बना सकते हैं अथवा नमाज अदा कर सकते हैं। इस फैसले के मुताबिक दोनों पक्षों को तीन महीने का समय दिया गया है ताकि वह अपने-अपने पक्ष को दोबारा अदालत में रख सकें, तब तक इस स्थान पर कोई निर्माण कार्य नहीं किया जा सकता। कुल मिलाकर आस्था से जुड़े हुए इस सबसे बड़े अदालती निर्णय में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस तरह अंगे्रज भारत को आजाद करते समय इसे भारत और पाकिस्तान नामक दो हिस्सों में बांट गए थे, कुछ वैसा ही इलाहाबाद हाईकोर्ट का निर्णय रहा। जब सभी साक्ष्य, सबूत और तर्क वहां मंदिर होने के पक्ष में थे तो फिर क्यों परिसर का एक तिहाई हिस्सा मुसलमानों को देने का निर्णय क्यों हुआ? यदि साक्ष्य मस्जिद के पक्ष में होते तो क्या तब भी ऐसा ही निर्णय आता? अब इसी आधार पर दोनों पक्ष एक बार फिर से सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाएंगे और दूसरे पक्ष को गलत साबित करने और अपने पक्ष को सही मानने के लिए तर्क पेश करेंगे। इस कार्य में पुन: एक साल, दो साल या फिर कई साल लगेंगे। इस फैसले से जुड़ा हुए एक और मुद्दा यह है कि अब जबकि अदालत का फैसला आ चुका है तो किसी भी तरह का राजनीतिकरण इन मसलों को लेकर नहीं किया जाना चाहिए और अदालत के फैसले का सम्मान सभी को करना चाहिए। इस समय मूल बात यही है कि जो भी पक्ष निर्णय को जिस हद तक स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं उनके आधार पर उन्हें सुप्रीम कोर्ट जाना चाहिए। जो तथाकथित सेकुलर लोग हैं उन्हें इस फैसले का सांप्रदायीकरण करने से बचना चाहिए। यह मामला अब कानून के दायरे में है और इस संदर्भ में अदालत जो भी फैसला करे वह सभी के लिए स्वीकार्य होना चाहिए। उच्च न्यायालय के फैसले के गुण-दोष का निर्धारण सुप्रीम कोर्ट को करना है। (लेखक संविधान मामलों के विशेषज्ञ हैं)
आस्था पर अदालती मुहर

गुरुवार, 30 सितंबर 2010
बुधवार, 29 सितंबर 2010
देश के नाम सन्देश
जब तक आप इस पोस्ट को पढ़ रहे होंगे , देश की अस्मिता से जुड़े एक महत्व पूर्ण मामले में फैसला आ चुका होगा । कहा जा रहा है कि फैसला देश के सामाजिक सद्भाव को बिगाड़ सकता है , पर जरा सोचे क्या ऐसा होना चाहिये । फैसला कुछ भी आये देश को राम मंदिर के लिए आगे आना चाहिये , ताकि इस विवाद का सदा के लिए अंत होता सके । मंदिर बनाने में जो भी विरोध है वो हमारे देश के कुछ दोगले नेताओ के दिमाग कि उपज है । तारीफ कि बात यह है कि देश के ९९ परसेंट मुसलमान भी येही चाहते है कि वहा मंदिर बना कर मामले का सदा के लिए निबटा दिया जाये । हिन्दुओ को भी चाहिये कि अयौध्या में मंदिर से २ किलोमीटर दूर मुसलमानों के लिए अपने पैसे से मस्जिद बनबा दे । भारत में भले ही तमाम धर्मो के लोग रहते है , पर या तो उनका मूल हिन्दू धर्म है या वे धरामान्त्रित है ।
गुरुवार, 23 सितंबर 2010
बिहार चुनावों में क्या अयोध्या मुद्दा बन जायेगा?

रविवार, 29 अगस्त 2010
शर्म करो, मत गाओ पाकिस्तान की

अगर आतंक में भगवा है तो तिरंगे में क्या है?
तरुण विजय
लगातार दूसरे दिन राज्य सभा में गृह मंत्री चिदबंरम द्वारा भगवा आतंकवाद शब्द का उल्लेख किए जाने के विरोध में हंगामा हुआ तथा सदन दो बार स्थगित करना पड़ा। इस संदर्भ में आश्चर्य की बात यह रही कि जो लोग इस बात पर छत पर खड़े होकर चिल्लाते रहे कि आतंकवाद के साथ किसी मज़हब, रंग या विचारधारा को जोड़ना गलत है क्योंकि आतंकवादी चाहे किसी भी मज़हब या संप्रदाय के हों, वे खूनी, निर्मम और अमानुषिक होते हैं। आतंकवादी का न कोई मज़हब होता है, न विचारधारा। जो लोग अब तक यही बात उस आतंकवाद के बारे में कहते रहे जो सीधे-सीधे इस्लाम के फैलाव और हिंदुओं तथा भारतवर्ष से नफरत पर टिका रहा है, वही अब उछल-उछलकर भगवा रंग को आतंकवाद से जोड़कर ऐसी खुशी मना रहे हैं मानो आतंकवाद का भगवाकरण किसी राष्ट्रीय त्यौहार का विषय हो।
संकीर्ण सांप्रदायिकता और अराष्ट्रीय राजनीति का अतिवादी घिनौना स्वरूप इसी प्रकार की त्रासद विडंबनाएं प्रस्तुत करता है। ये राजनेता वे लोग हैं जो अपने संकीर्ण स्वार्थों के लिए देशहित और राष्ट्रीय सभ्यता से खिलवाड़ करने में नहीं चूकते। भगवा रंग भारतवर्ष का रंग है। यह त्याग, तपस्या, बलिदान और वीरता का रंग है। अगर आकाश का रंग नीला और प्रकृति का रंग हरा माना जाता है, उसी प्रकार भारतवर्ष की मूल चेतना और आत्मा का रंग भगवा है। ऋषि-मुनियों ने भारत की आध्यात्मिकता और परहित के लिए अपना बलिदान देने की परंपरा भगवा रंग से अभिव्यक्त की। भगवा वीर सिक्ख परंपरा का रंग है। गुरू गोबिंद सिंह की पताका का रंग भगवा था। जब पिछले दिनों डॉ. मनमोहन सिंह अमृतसर की यात्रा पर गए थे तो पूरे शहर को तथा श्री हरमंदिर साहिब को भगवा रंग से सजाया गया था। अखबारों में पहले पन्ने पर शीर्षक थे- "अमृतसर भगवा हो गया।" क्या गृह मंत्री कहेंगे कि उस समय प्रधानमंत्री के स्वागत में अमृतसर ने आतंकवादी रंग धारण कर लिया था? भारतवर्ष के राष्ट्रीय ध्वज का पहला रंग भगवा है। संविधान में उस रंग की व्याख्या करते हुए उसे त्याग, तपस्या तथा बलिदान की भावना से जोड़ा गया है। क्या अब सोनिया गांधी की सरकार हिंदूनिष्ठ विचारधारा से नफरत के उन्माद में अब संविधान में संशोधन कर तिरंगे से भगवा हटाएगी या उसकी व्याख्या में लिखेगी कि भगवा रंग आतंकवादियों का रंग है?
देश में अभारतीय मानसिकता का वैचारिक विद्वेष इस पागलपन के चरम तक पहुंच गया है कि इटालियन मूल की उस महिला को सुपर प्राइम मिनिस्टर बनाने में किसी कांग्रेसी या सेक्युलर को परहेज़ नहीं होता, जिसने विवाह के बाद 13 साल सिर्फ यह सोचने में लगा दिए कि वह भारत की नागरिकता ग्रहण करे या न करे, लेकिन भारत के गौरव और तिरंगे की शान के प्रतीक विश्वनाथन आनंद की नागरिकता पर शक पैदा कर उन्हें डॉक्टर ऑफ फिलॉसफी का सम्मान देना रोक दिया गया था। भारत से गोरे अंग्रेज चले गए पर उन काले अंग्रेजों का राज कायम रहा, जिनका दिल और दिमाग हिंदुस्तान में नहीं बल्कि रोम, लंदन या न्यूयॉर्क में है।
गृह मंत्रालय के सूत्रों के अनुसार 65 हजार से अधिक लोग उस जिहादी आतंकवाद के शिकार हो चुके हैं जो अपने पर्चों, इश्तहारों और बयानों में दावा करता है कि वह इस्लाम के नाम पर निज़ामे मुस्तफ़ा कायम करने के लिए हिंसा का सहारा ले रहा है। ये वे लोग हैं जिन्होंने अपने संगठनों के नाम इस्लाम की विचारधारा यहां तक कि पैगम्बर साहब तक के नाम जोड़ते हुए रखे हैं जैसे- जैशे मोहम्मद, लश्करे तैय्यबा, हिज़बुल मुजाहिदीन, स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट (सिमी)। ये लोग खुद ही कहते हैं कि वे जो भी कर रहे हैं, अपने मज़हब के लिए, उसका प्रभाव बढ़ाने के लिए और जो उनके मार्ग की बाधाएं हैं, उनको खत्म करने के लिए कर रहे हैं। मैं खुद यह पसंद नहीं करता कि किसी भी आतंकवाद को मज़हब से जोड़ा जाए। मेरे मुस्लिम मित्रों की संख्या उतनी ही होगी, जितने मेरे हिन्दू मित्र हैं। और वस्तुत: मित्रता इस कारण नहीं होती है कि कोई हिन्दू है या मुस्लिम। बल्कि इसलिए होती है कि आत्मीयता के धागे मज़हब और उपासना पद्धति के दायरों से ऊपर उठे होते हैं लेकिन जब स्वयं आतंकवादी संगठन अपने को ज़िहादी कहें और टाइम्स ऑफ इंडिया तथा हिन्दुस्तान टाइम्स जैसे अखबार, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या भाजपा द्वारा तो कतई संचालित नहीं कहे जा सकते, इन संगठनों की आतंकवादी गतिविधियों को इस्लामी आतंकवाद के नाम से अपने शीर्षकों में लिखें तो चिदंबरम साहब तथा उनकी पार्टी सेक्यूलर संतुलन के छद्म नाटक के लिए भारतवर्ष के इतिहास और गौरवशाली परंपरा से खिलवाड़ करने का गुनाह क्यों कर रहे हैं? यह सब उस समय क्यों हो रहा है जब सत्ता के शीर्ष पर सोनिया गांधी हैं? इस देश में ही यह होता है कि तिरंगे के लिए जान देने वालों को कश्मीर से उजाड़ा जाता है, एनसीईआरटी की पुस्तकों में जब गुरु तेग बहादुर साहिब की शहादत का मजाक उड़ाने तथा औरंगजेब को निर्दोष साबित करने वाले पाठों से विकृतियां हटायी जाने लगीं तो वामपंथियों और कांग्रेसियों ने उसे भगवाकरण का नाम दे दिया, विरोध किया।
भगवाकरण या भगवा रंग क्या गाली के रूप में है? क्या भगवा रंग धिक्कार का रंग बनाया जाना चाहिए? एक हमला हुआ था गोरी और गजनवी का, वह भी भगवा के खिलाफ था। इस देश के खिलाफ विदेशी हमले भारत के मूल स्वरूप, चेतना, और यहां के नागरिकों की सभ्यतामूलक संस्कारों को ध्वस्त करने के लिए हुए। 1947 में भारत विभाजित करने के बाद हिंदुओं को लगा था कि सदियों के आक्रमणों के बाद अब वे शांति से अपनी जीवन परंपरा और धर्म का अनुगमन कर सकेंगे लेकिन ऐसा लगता है कि सोनिया के राज में गोरी और गजनवी की हिंदू विरोधी परंपरा जारी है। इसकी अपनी प्रतिक्रिया होगी और इसका दोष हिंदुओं पर नहीं विदेशी मन वाले सेक्यूलरों पर होगा।
बुधवार, 18 अगस्त 2010
सचमुच, यह भारत में ही हो सकता है
अमेरिका ने भारत को एक तरह से धमकाते हुए संकेत दिया है कि अगर उसने भोपाल गैस त्रासदी के लिए अमेरिकी कंपनी डाउ केमिकल से ज्यादा हर्जाना वसूलने की जिद नहीं छोड़ी तो दोनों देशों के रिश्ते पर असर पड़ सकता है। यह बात एक वरिष्ठ अमेरिकी अधिकारी ने योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया को भेजे एक ईमेल में कही है। समाचार चैनल टाइम्स नाउ के मुताबिक अमेरिका के डेप्युटी नैशनल सिक्युरिटी अडवाइजर फ्रोमैन माइकल ने आहलूवालिया को भेजे हाल के एक ईमेल में कहा है,'हम यहां अमेरिका में डाउ केमिकल मुद्दे को लेकर काफी हो-हल्ला देख रहे हैं। इस मामले की सभी बारीकियां तो पता नहीं हैं, पर मैं समझता हूं हम लोग ऐसी स्थितियों से बचना चाहते हैं जिनका हमारे निवेश संबंधों पर बुरा असर पड़ेगा।' फ्रोमैन ने यह ईमेल आहलूवालिया के उस मेल के जवाब में भेजा है जिसमें उन्होंने वर्ल्ड बैंक से आसान शर्तों वाले लोन जारी रखने में अमेरिकी सहायता का अनुरोध किया था। इस ईमेल के बारे में पूछे जाने पर आहलूवालिया ने कहा कि वह 'ऐसे किसी भी मामले पर अमेरिका के साथ चर्चा नहीं चला रहे जो अदालत के अधीन है।' जब उनसे पूछा गया कि क्या अमेरिका की तरफ से भोपाल गैस मामले में थोड़ा धीरे चलने का दबाव है, तो उन्होंने कहा, मैं इन ईमेल को दबाव बिल्कुल नहीं मानता।
हे शांति की संतानों अब भी तो कुछ करो
चीन की सैन्य तैयारियों के बारे में अमेरिकी प्रतिरक्षा मुख्यालय पेंटागन की ताजा रिपोर्ट में कम-से-कम जानकारों के लिए कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं होना चाहिए। चीन ने भारत से जुड़ी सीमाओं पर तैनात पुरानी मिसाइलों को ज्यादा उन्नत मिसाइलों से बदल दिया है। उसने भारतीय सीमाओं पर सैनिकों को जमा करने की आकस्मिक योजना तैयार की हो सकती है। अब उसके निशाने की जद में सिर्फ अपना पास-पड़ोस ही नहीं, पूरी दुनिया है। वह अपनी सैन्य तैयारियों को लेकर भारी गोपनीयता बरत रहा है। सवाल यह है कि आखिर कौन-सा देश है जो यही सब नहीं करेगा या करना चाहेगा।भारत में हमें यह रिपोर्ट पढ़ते हुए भूलना नहीं चाहिए कि यह अमेरिकी रिपोर्ट है। चीन के बढ़ते प्रतिरक्षा खर्च के बारे में हमें वह देश आगाह कर रहा है, जिसका अपना प्रतिरक्षा बजट चीन से काफी अधिक और दुनिया में सबसे ज्यादा है। फिर स्थापित महाशक्ति अमेरिका और उभरती महाशक्ति चीन के बीच अदावत जानी-पहचानी है। इस किस्म की रिपोर्ट से एशिया में चीन की बढ़ती ताकत के प्रति चिंता पैदा करके हथियारों की होड़ को बढ़ावा देना उसका मकसद हो सकता है। इसमें उसका दोहरा फायदा है। वह चीन के खिलाफ उसके ही पड़ोस में चुनौती खड़ी करेगा और हथियार बेचकर मुनाफा भी कमाएगा।पहला सबक तो यह है कि किसी अमेरिकी रिपोर्ट के आधार पर दहशतजदा होने या अपनी रणनीति बनाने के बजाय हम खुद अपनी रिपोर्ट तैयार करें। पिछली सदी के अंत में चीन के उभार को भांपकर अमेरिका ने ऐसी रिपोर्ट तैयार करने के लिए बाकायदे कानून बनाया था। उसी के तहत वर्ष 2000 से हर साल पेंटागन ऐसी रिपोर्ट पेश करता है। हमारे सैन्य प्रतिष्ठान में विभिन्न स्तरों पर चीन की रक्षा तैयारियों पर लगातार निगाह रखने और विश्लेषण करने का काम होता ही होगा। क्या अब समय नहीं आ गया है, जब हम भी ऐसी ही प्रामाणिक रिपोर्ट तैयार करें, संसद में रखें और उस पर सार्वजनिक बहस करें?चीन के साथ हमारा अप्रिय और कटु जंग का इतिहास रहा है। हालांकि 1962 के बाद दोनों तरफ की नदियों में काफी पानी बह चुका है, पर सीमा विवाद अब भी अनसुलझा है। फिर दो महाशक्तियों के उभार के दौरान संबंध कैसे मोड़ लेंगे, कहना कठिन है। इसलिए चीन की बढ़ती ताकत से भयभीत होने की जरूरत नहीं, लेकिन उसकी एकनिष्ठ स्वार्थपरता को गंभीरता से नहीं लेने की गलती भी हमें नहीं करनी चाहिए।
रविवार, 18 जुलाई 2010
ठंडी राख में चिंगारी की तलाश
बुधवार, 14 जुलाई 2010
कुछ इनसे भी सीखे भारत के मौलवी
यूरोप के देशों में इन दिनों बुर्क़े के विरोध की लहर सी चल रही है। अप्रेल में फ़्रांस के पड़ोसी बेल्जियम की संसद ने भारी बहुमत के साथ बुर्क़े पर इसी तरह की पाबंदी लगाने वाला विधेयक पास किया था। उसके बाद जून में स्पेन की सेनेट ने बुर्क़ा पाबंदी विधेयक पास किया। लेकिन फ़्रांस यूरोप की सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाला देश है।
फ़्रांस की लोकसभा एसेंबली नेत्सियोनाल ने बुर्क़ा पहनने पर पाबंदी लगाने वाला विधेयक भारी बहुमत के साथ पास कर दिया है। लगभग एक सप्ताह की बहस के बाद मंगलवार की शाम को हुए मतदान में एसेंबली नात्सियोनाल के कुल 557 सांसदों में से 335 ने इस विधेयक के पक्ष में और केवल एक सांसद ने विरोध में मत डाला। जैसी कि संभावना थी, विपक्षी समाजवादी पार्टी और ग्रीन पार्टी के सांसदों ने नारीवादियों के दबाव और फ़्रांस के जनमत के रुझान को देखते हुए मतदान का बहिष्कार किया।यह विधेयक फ़्रांस के सार्वजनिक स्थलों और सड़कों पर बुर्क़ा पहनने पर पाबंदी लगाता है। फ़्रांस की एसंबली नेत्सियोनाल में पारित हो जाने के बाद अब यह फ़्रांसीसी संसद के उच्च सदन सेनेट के पास भेजा जाएगा जहाँ इसका सितंबर तक अनुमोदन हो जाने की संभावना है। सेनेट से अनुमोदन मिलने के बाद इसे कानून का दर्जा मिल जाएगा। लेकिन इसे लागू करने से पहले छह महीने तक बुर्क़ा पहनने के ख़िलाफ़ एक जागरूकता अभियान चलाया जाएगा। इसलिए बुर्क़े पर वास्तविक पाबंदी अगले मार्च से पहले लागू नहीं हो सकेगी। बुर्क़ा पाबंदी कानून के लागू हो जाने के बाद सार्वजनिक स्थानों पर चेहरा ढाँपने वाला बुर्क़ा या नक़ाब पहनने वाली महिला पर लगभग दस हज़ार रुपए का जुर्माना किया जा सकेगा। यही नहीं, किसी महिला या लड़की को बुर्क़ा पहनने पर मजबूर करने वाले व्यक्ति को एक साल तक की जेल की सज़ा और बीस लाख रुपए तक का जुर्माना भुगतना पड़ेगा।यूरोप के देशों में इन दिनों बुर्क़े के विरोध की लहर सी चल रही है। अप्रेल में फ़्रांस के पड़ोसी बेल्जियम की संसद ने भारी बहुमत के साथ बुर्क़े पर इसी तरह की पाबंदी लगाने वाला विधेयक पास किया था। उसके बाद जून में स्पेन की सेनेट ने बुर्क़ा पाबंदी विधेयक पास किया। लेकिन फ़्रांस यूरोप की सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाला देश है। फ़्रांस में बसने वाले लगभग पचास लाख मुसलमान उसके अल्जीरिया और मोरोक्को जैसे उपनिवेशों से आए हैं और कई पीढ़ियों से फ़्रांस में हैं। इनमें कट्टरपंथियों की संख्या बहुत कम रही है इसलिए बुर्क़ा पहनने वाली महिलाओं की संख्या पिछले साल तक कुछ सौ से अधिक नहीं थी। लेकिन विडंबना की बात यह है कि पिछले कुछ महीनों के दौरान उनकी संख्या बढ़कर दो हज़ार के लगभग हो गई है जो कट्टरपंथ की लहर होने की बजाए बुर्क़े के ख़िलाफ़ शुरू हुए अभियान की प्रतिक्रिया अधिक लगती है।इसलिए फ़्रांस का मुस्लिम समाज बुर्क़े पर पाबंदी लगाने वाले विधेयक का विरोध कर रहा है। फ़्रांस की मुस्लिम परिषद के अध्यक्ष मोहम्मद मुसावी ने कहा है, “हमारे विचार में बुर्क़े पर इस तरह की आम पाबंदी लगाना कोई समाधान नहीं है।” एमनेस्टी इंटरनेशनल ने यूरोप के सांसदों से बुर्क़े पर पाबंदी लगाने वाले कानूनों का विरोध करने की अपील की है। एमनेस्टी का कहना है कि ये कानून बुर्क़ा पहनने वाली महिलाओं के अधिकारों का हनन करते हैं और उनको समाज से और अलग-थलग करेंगे।मानवाधिकारों के मामले पर फ़्रांस के बुर्क़ा विरोधी कानून को यूरोपीय संघ की स्ट्रासबर्ग स्थित मानवाधिकार अदालत में चुनौती दी जा सकती है और अगर यूरोपीय अदालत इस कानून के ख़िलाफ़ फ़ैसला सुनाती है तो फ़्रांसीसी सरकार को उसे मानना होगा। लेकिन उस से पहले इस कानून पर फ़्रांस की ही सर्वोच्च वैधानिक संस्था राष्ट्रीय परिषद विचार करेगी। यह परिषद पहले ही इस कानून के ग़ैर-संवैधानिक होने की संभावना व्यक्त कर चुकी है।इन सारी संभावित अड़चनों के बावजूद भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से जूझ रही राष्ट्रपति निकला सार्कोज़ी की दक्षिणपंथी यूएमपी सरकार बुर्क़ा विरोधी कानून लागू करने पर तुली हुई है। विधेयक के एसेंबली नेत्सियोनाल में पारित होने के बाद फ़्रांस की कानून मंत्री मिशेल एलियट-मरी ने कहा, “यह उन फ़्रांसीसी मूल्यों की जीत है जो लोगों नीचा दिखाने वाले हर तरह के दमन से मुक्ति की और पुरुषों और महिलाओं के बीच बराबरी का पक्ष लेते हैं, जो असमानता और अन्याय को बढ़ावा देने वालों का विरोध करते हैं।” वैसे यह पहली बार नहीं है कि फ़्रांस में सार्वजिनक स्थलों पर धार्मिक वेषभूषा को लेकर विवाद उठा हो। फ़्रांस अपने धर्मनिरपेक्ष मूल्यों का किसी आधुनिक धर्म की तरह पालन करना चाहता है। इसलिए वहाँ के स्कूलों में धार्मिक आस्था का प्रतीक समझी जाने वाली वेषभूषा और प्रतीकों के पहनने पर रोक है। इसी के चलते 2005 में फ़्रांस के स्कूलों में सिख छात्रों की पगड़ी को लेकर विवाद छिड़ा था और एक अदालत के फ़ैसले के बाद पगड़ी पहनने वाले कई सिख छात्रों को स्कूलों से निकाल दिया गया था।
शुक्रवार, 2 जुलाई 2010
बैसाखी के सहारे कब तक
दोनों घटक दल अपने राजनीतिक नफा-नुकसान का हिसाब लगाने में जुट गये हैं, क्योंकि उन्हें एहसास है कि वर्तमान राजनीतिक हालात में गठबंधन को जारी रखना ही दोनों दलों के हित में है, इसलिए दोनों दलों के बीच जो कुछ भी हुआ वह प्याले में आये तूफान जैसा ही था। सवाल है कि भाजपा के साथ मिलकर सरकार चलाने वाले दल खुलकर उसकी बगलगीर बनने से क्यों कतराते हैं, भाजपा को इस सवाल पर गंभीरता से सोचना होगा।
अतीत बताता है कि गठबंधन की राजनीति के जरिये भाजपा सत्ता में जरूर रही, पर उसे इस धर्म को निभाने में नुकसान ही हुआ। 1967 में गैर कांग्रेसवाद के नाम पर चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में संघीय सरकार बनी थी। उस समय भी 99 सदस्यों वाले जनसंघ के कुल चार ही लोग मंत्री बने थे। चौधरी के सामने उसकी एक न चली थी। 1977 में भी मोरारजी देसाई के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनी थी, उस दौरान भी अन्य घटक दलों की तुलना में जनसंघ सदस्यों को सरकार और राज्यों में बनी प्रांतीय सरकारों में कम महत्व मिला था। उत्तर प्रदेश में 90 के दशक के बाद भाजपा-बसपा गठबंधन भी कई खट्टे-मीठे अनुभवों के बाद टूटा। एनडीए में उसका ममता की तृणमूल कांग्रेस से तो, उड़ीसा में बीजद से जिस तरह गठबंधन और अलगाव हुआ, उससे यही निष्कर्ष निकलता है कि सभी मध्यमार्गी दल मुस्लिमों के डर से चुनाव के दौरान उससे पल्ला झाड़ लेना चाहते हैं। इन दलों को भी चुनावों में कांग्रेस और कम्युनिस्टों की तरह उसका सांप्रदायिक चेहरा दिखने लगता है। राष्ट्रीय-प्रांतीय राजनीति में अचानक रातोंरात वह ‘अछूत’ हो जाती है। भाजपा के समक्ष आज सबसे जटिल चुनौती यही है कि उसके रणनीतिकार मध्यमार्गी दलों के इस रवैये के प्रति कैसे अपनी दीर्घकालीन रणनीति बनाएं?
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अभी जो कुछ भी किया, वह कोई अप्रत्याशित नहीं है। जिस तरह गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ उनकी तस्वीर आयी, उससे राजनीतिक तूफान अवश्यम्भावी था, क्योंकि उन्हें भाजपा के बगलगीर रहने के कारण मुस्लिम मतों के खिसकने का भय सता रहा है। इसीलिए भाजपा के साथ पांच साल तक सरकार चलाने वाले नीतीश ने उसे सार्वजनिक रूप से अपमानित करने का मौका नहीं गंवाया, लेकिन नीतीश से भी यह सवाल किया जाना चाहिए कि फिर पांच साल से वह भाजपा को बगलगीर क्यों बनाए हुए है? भाजपा भी इस तरह का अपमान सहकर भी सरकार से चिपकी है। ऐसी ही भूल वह तीन बार उत्तर प्रदेश में कर चुकी है। मायावती ने उसका बैसाखी की तरह उपयोग किया और धीरे-धीरे अपनी ताकत बढ़ाकर उसका वोट-बैंक भी चट कर लिया। आज भाजपा उत्तर प्रदेश में काफी कमजोर स्थिति में है। झारखंड में भी उसने यही भूल की। जिस शिबू सोरेन के भ्रष्टाचार को उजागर करने के लिए उसने कई दिनों तक संसद की कार्यवाही नहीं चलने दी, उसके लिए ही वह सत्ता की सीढ़ी बनी। सोरेन ने क्या किया, सरेआम है। भाजपा के अनुरोध को दरकिनार कर संसद में संप्रग के पक्ष में मतदान किया। राजनीतिक नफा-नुकसान का जोड़-घटाव कर बिहार में दोनों दल फिलहाल चुप हैं। संभावना है कि दोनों दलों के बीच कड़वाहट टिकट वितरण के समय नया गुल खिला सकती है।
यह सच है कि नीतीश के आभामंडल के चलते भाजपा अपनी कोई खास प्रभावी छवि नहीं बना सकी है। उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी पर इसी कमजोरी को लेकर पार्टी के अंदर उंगलियां उठती रही हैं। आज अगड़ी जातियां मुख्यमंत्री से नाराज हैं। इसकी मुखर अभिव्यक्ति भी वे कर चुके हैं, किंतु भाजपा इस वोट बैंक पर अपनी मजबूत पकड़ नहीं बना पा रही है, क्योंकि अगड़ों के सवालों को लेकर वह मुख्यमंत्री के समक्ष चुनौती खड़ा नहीं कर पा रही है। इसलिए राजपूत, भूमिहार, ब्राह्मण और कायस्थ आसन्न विधानसभा चुनाव में रणनीतिक तौर पर मतदान करने की योजना बना रहे हंै। उनके समक्ष बिहार में नीतीश के नेतृत्व में अतिपिछड़ा और महादलित गठबंधन को चुनौती देने की है, ताकि उन्हें उनकी (अगड़ी जातियों) ताकत का एहसास हो सके। इसीलिए इनका झुकाव भाजपा की तरफ है, किंतु अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि के चलते भाजपा के खिलाफ नीतीश ने जो तेवर दिखाये, भाजपा उसे उतनी तेजी से अपने पक्ष में भुना नहीं सकी। गठबंधन चलाने के लिए उसकी लाचारी झारखंड जैसी ही दिखी, जिसके चलते अगड़ी जातियों का उससे भी मोहभंग होता दिख रहा है। उसे यह समझना चाहिए कि परिसीमन के बाद जो नये राजनीतिक समीकरण बने हैं, उसमें अकेले चुनाव लड़कर सफलता पाना नीतीश के लिए आसान नहीं होगा क्योंकि चतुष्कोणीय संघर्ष में सत्ता हासिल कर पाना अकेले किसी के लिए दूर की कौड़ी ही है। ऐसे में, भाजपा को जद-यू के समक्ष अपनी दब्बू छवि को तोड़ना होगा। साथ ही, अपने पक्ष में शीघ्र डैमेज कंट्रोल की रणनीति बनानी होगी, ताकि अगड़ी जातियों का विश्वास उनसे न डिगे। यघपि लालू प्रसाद और रामविलास पासवान भी इस पहलू को भांप चुके हैं और उन्हें रिझाने की कोशिश में कूटनीतिक चालें चलनी शुरू कर दी हैं, किंतु अगड़ी जातियां लालू-राबड़ी राज के पंद्रह साल को अभी भूली नहीं हैं। कांग्रेस के प्रति भी इन जातियों का आकर्षण है, किंतु इस पार्टी में इतनी गुटबंदी है कि वहां हर कोई एक दूसरे को कमजोर करने में लगा है। निचले स्तर तक पार्टी का मजबूत संगठन न होने का भी लाभ इस चुनाव में भाजपा को मिल सकता है। शायद यही लोभ उसे जद-यू से भी जोड़े रखे।
दरअसल, भाजपा को स्वतंत्र ढंग से अपनी ताकत को समझना होगा। स्थापना के तीस साल के भीतर वह तीन बार देश की सत्ता में रही है। अटल-आडवाणी के नेतृत्व में उसने भारतीय राजनीति में गठबंधन राजनीति को नया आधार दिया, पर आज वही भाजपा अपनी ताकत को नहीं पहचान पा रही है। उत्तर प्रदेश, झारखंड और उड़ीसा में गलबहियां कर सरकार चलाने वाली पार्टियां ऐन चुनाव के वक्त सांप्रदायिकता का आरोप लगाकर उससे अलग हो जाती हैं या फिर ऐसी स्थिति पैदा करती हैं कि उसे खुद ही अलग होना पड़ता है, लेकिन सहयोगी दलों को कटघरे में खड़ा करने से पहले खुद भाजपा को भी सोचना होगा कि उसकी दोयम दर्जे की स्थिति क्यों बन जाती है। यूपी- उड़ीसा हो या बिहार-झारखंड, सभी जगह उसने गठबंधन इसीलिए किये कि इन राज्यों में वह स्वतंत्र ढंग से मजबूत नहीं हो सकती थी।
ऐसे में, उसे अपने ही खोल में झांकना होगा कि इसके लिए क्या उसकी नीतियां जिम्मेदार नहीं है? अपने विभिन्न निहित स्वार्थों के लिए ही वह भी मध्यमार्गी दलों से हाथ मिलाती रही है। सत्ता-सुख के स्वाद में उलझती हुई धीरे-धीरे वह अपना स्वतंत्र अस्तित्व खोने लगती है। ऐसी स्थिति में वह विपक्ष की भी आवाज नहीं बन पाती। राज्य में उसके नेता सत्ता लाभ में आकंठ डूब जाते हैं और इसका फायदा गठबंधन का मुख्य दल उठाता है। ऐसे में, इन राज्यों में उसे भी इस नए ढंग से सोचना होगा कि वह कैसे इन राज्यों में एक मजबूत संगठन बने। शायद इसी सोच के साथ ही वह खुद को मुख्यधारा में रख सकेगी। रक्षात्मक कदम उसे यूपी की ही राह पर ले जाएगा।
यह लेख रणविजय सिंह जी ने सहारा समय पर २८ जून को लिखा था । हम इसे कॉपी कर साभार प्रकाशित कर रहे है । ............................... बिग हिन्दू
सोमवार, 21 जून 2010
पोस्टर गलत, पर सवाल सही
रविवार, 20 जून 2010
घटियापन की सीमा लाँघ चुके नितीश

क्या था मामला
ज्ञात हो कि पिछले दिनों पटना में भाजपा कार्यसमिति की बैठक के दौरान स्थानीय अखबारों में एक विज्ञापन छपा था जिसमें नीतीश कुमार और मोदी की तस्वीर एक साथ छपी थी। एक अन्य विज्ञापन में इस बात का जिक्र था कि वर्ष 2008 में कोसी बाढ़ आपदा के समय गुजरात ने बिहार को पांच करोड़ रुपये की मदद की थी।उसी दिन नीतीश ने गुजरात को पैसा लौटाने की धमकी दी थी। विज्ञापन से नाराज नीतीश ने भाजपा नेताओं को दिया जाने वाला रात्रिभोज तक रद्द कर दिया था।
अब सुने नेताओ की
एलजेपी प्रमुख रामविलास पासवान ने नीतीश कुमार के बाढ़ राहत के पांच करोड़ रुपए लौटाने को महज नौटंकी करार दिया है।पासवान ने कहा कि नीतीश इन मुद्दों को बिहार में होनेवाले विधानसभा चुनाव में आजमाना चाहते है।उन्होंने कहा कि नीतीश कुमार ऐसा कर धर्मनिरपेक्ष छवि बनाना चाहते है और सत्ता पर दोबारा काबिज होने की मंशा रखते है।पासवान ने कहा कि नीतीश को ये मालूम नहीं है कि बिहार की जनता इतनी बेवकूफ नहीं है और वो सबकुछ समझती है।
बिहार के सहकारिता मंत्री गिरिराज सिंह ने रविवार को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को 'एहसानफरामोश' करार देते हुए उन पर गठबंधन धर्म का पालन न करने का आरोप लगाया। सिंह ने कहा कि नीतीश ने पिछले साढ़े चार साल के दौरान एक भी सरकारी फैसले में भाजपा नेताओं से राय नहीं मांगी। अब पानी सिर से ऊपर आ गया है।"पहली बार बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यसमिति के दौरान जब यह विवाद पैदा हुआ था तब भी गिरिराज सिंह ने नीतीश को आड़े हाथों लिया था। उन्होंने कहा था, "नीतीश पिछले डेढ़ दशक से हमारे साथ हैं लेकिन अब उन्हें नरेंद्र मोदी से क्यों परहेज होने लगा। न नीतीश हमारी मजबूरी है और न ही सत्ता। हमारी मजबूरी प्रदेश की नौ करोड़ जनता है, जिन्हें हमने लालू प्रसाद के कुशासन से मुक्ति दिलाई थी।"
जनता दल (युनाइटेड) के प्रवक्ता शिवानंद तिवारी ने भी एक समाचार चैनल से बातचीत में इस बात की पुष्टि की। उन्होंने कहा, "एक एजेंडे के तहत हमारा नुकसान किया गया है। हमारी वजह से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को मुस्लिम मत मिले। बिहार में हमारी वजह से ही भाजपा है।"
भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और राज्यसभा सदस्य पुरुषोत्तम रूपाला ने अहमदाबाद में कहा कि नीतीश जो चाहें करें हम उनके कहने पर नहीं चलने वाले हैं। कोसी बाढ़ आपदा के दौरान मैं खुद दो ट्रेन राहत व खाद्य सामग्री लेकर बिहार गया था। क्या नीतीश उसे भी वापस लौटाएंगे। भाजपा बिहार में नीतीश के पीछे नहीं चलने वाली है। हमने गठबंधन धर्म निभाया है और आगे भी निभाते रहेंगे। उनकी जो इच्छा हो वह करें।
बिहार के उप-मुख्यमंत्री सुशील मोदी ने भी नीतीश कुमार के रवैए के प्रति कड़ी नाराजगी जताई है। गुजरात सरकार को कोसी राहत का पैसा लौटाए जाने के बाद सुशील मोदी ने बिहार के मुख्यमंत्री के साथ अपने एक चुनवी कार्यक्रम को रद्द कर दिया।इसके बाद राज्य में दोनों दलों के गठबंधन पर सवाल खड़े हो गए हैं।
अब आप ही फैसला करे की नितीश क्या है .....
बुधवार, 9 जून 2010
कॉमन मैन की कार्रवाई
यह मेरी अप्रकाशित रचना है जो कुछ कारणों से अखबार या किसी पत्रिका में प्रकाशित नहीं हो सकी).....रोहित
गुरुवार, 27 मई 2010
इंडिया ग्रेट , बिहार उससे भी ग्रेट
दलाई लामा ने किया बुद्धk स्मृति पार्क का उदघाटन
पटना. तिब्बती धर्म गुरु दलाई लामा ने गुरुवार को पटना के बुद्ध स्मृति पार्क का उदघाटन किया। इस मौके पर उनके साथ बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी मौजूद थे। उदघाटन समारोह के मौके पर कई देशों के बौद्ध धर्म गुरू भी शामिल हुए। जानकारी के अनुसार, 22 एकड़ क्षेत्र में फैले इस पार्क को बनाने में डेढ़ साल लगे हैं। इस पार्क में 200 फीट उंची शांति स्तूप का निर्माण करया गया है। स्तूप के भीतरी भाग में एक बूलेटप्रूफ कमरे में विभिन्न देशों से लाए गए बौद्ध अवशेष रखे गए हैं। वहीं बुद्ध स्तूप के बायीं ओर मेडिटेशन सेंटर भी बनाया गया है। जिसमें कुल 5 ब्लॉकों में 60 कमरों का निर्माण कराया गया है। इन कमरों के सामने के हिस्से में शीशे लगाए गए हैं ताकि बौद्ध श्रद्धालु सामने में स्थित स्तूप को देखते हुए ध्यान लगा सकें
खबर यह है
बुद्ध पार्क का बिहार में निर्माण हुआ । यहाँ की जनता, सरकार ने इसमें हर संभव सहयोग किया . यह पार्क जिस जमीन पर बना वो सरकारी थी , उस पर जेल बना हुआ था । संयोग से उसमे एक शिव मंदिर भी था , जिसे पार्क बनाने के दौरान हटा दिया गया । पूरा निर्माण सरकारी पैसो से हुआ । करोड़ में पैसा सर कार के द्वारा लगाया गया ।
बुधवार, 26 मई 2010
कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है
संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरूकी दया याचिका वाली फाइल 43 महीने तक दिल्ली सरकार की मेज पर रखी रही। इस दौरान दो ही मुख्य सचिव रहे हैं। फाइल नवंबर 2006 में दिल्ली सरकार के पास केंद्रीय गृह मंत्रालय से भेजी गई थी। उस वक्त नारायण स्वामी मुख्य सचिव थे। वर्तमान में नारायण स्वामी कामनवेल्थ गेम्स में दिल्ली सरकार के सलाहकार हैं। पिछले करीब ढाई वर्षो से राकेश मेहता मुख्य सचिव के पद को सुशोभित कर रहे हैं। मेहता 1975 बैच के आईएएस हैं। कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे हैं। डीटीसी में सीएनजी की शुरुआत का श्रेय उन्हीं को जाता है। उनके पूर्ववर्ती नारायण स्वामी के खाते में कई उपलब्धियां दर्ज हैं।
तो क्या इन दोनों नौकरशाहों के कारण ही अफजल की फाइल केंद्र को लौटाने में दिल्ली सरकार को विलंब हुआ? सवाल उठता है कि अपने समय में फाइल की स्टडी करने के बाद जब एक मुख्य सचिव ने रिपोर्ट दे दी तो दूसरे मुख्य सचिव की राय लेने के लिए फाइल को रोकना क्यों जरूरी था? क्या मुख्य सचिव स्तर के अधिकारियों को किसी भी फाइल की स्टडी करने में करीब साढ़े तीन साल का समय लग जाता है? क्या दिल्ली की शीला सरकार का असर अपने अधिकारियों पर नहीं है, जिनके कारण फाइल के विलंब होने की बात मुख्यमंत्री की तरफ से कही गई है। ऐसे प्रश्नों का उत्तर दिल्ली सरकार के किसी भी वरिष्ठ अधिकारी के पास नहीं है। ..और न ही मुख्यमंत्री की तरफ से कोई जानकारी दी गई।
अधिकारियों की लॉबी का कहना है कि सरकार के वरिष्ठ अधिकारी हमेशा सरकार की नीति पर चलते है। मुख्य सचिव तो सरकार की आंख और कान होता है। सरकार से अलग लाइन लेने का मतलब उसका तबादला लगभग निश्चित है। वैसे भी कोई सरकार किसी भी फाइल की स्टडी के लिए किसी अधिकारी को साढ़े तीन वर्ष का समय क्यों दे?
दिल्ली सरकार की तरफ से मामले को संवेदनशील कहा गया है। कोई भी फैसला लेने की स्थिति में कानून व्यवस्था को ध्यान में रखने को कहा जा रहा है। इंदिरा गांधी हत्याकांड के मुख्य अभियुक्त सतवंत सिंह और केहर सिंह को फांसी देने के समय कानून व्यवस्था का सवाल क्यों नहीं सामने आया था। या उस वक्त कानून व्यवस्था का पैमाना कोई दूसरा था?
सवाल ये भी है कि अगर दिल्ली में कांग्रेस की सरकार न होती तो क्या अफजल की फाइल को लेकर केंद्र सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती। कहने को केंद्र की तरफ से अफजल की फाइल को लेकर 16 रिमाइंडर भेजे गए। बावजूद इसके दिल्ली सरकार की तरफ से फाइल न भेजने पर केंद्र सरकार की तरफ से क्या कार्रवाई की गई?
दैनिक जागरण से साभार
बुधवार, 5 मई 2010
बुधवार, 28 अप्रैल 2010
आदिवासी क्यों बन रहे हैं माओवादी
अब तक चली विकास नीति से उपेक्षित कुछ आदिवासी बंदूकें उठा रहे हैंप्रशांत भूषन ।
संसद में नक्सल ‘संकट’ के, जैसा कि गृह मंत्री ने इसे परिभाषित किया है, समाधान पर अपने वक्तव्य का समापन करते हुए पी। चिदंबरम ने कहा कि हमारी नीति ‘विकास’ और ‘सुरक्षा’ के दोहरे स्तंभों पर आधारित होनी चाहिए। ‘विकास’ का स्तंभ दरअसल इस बात की स्वीकारोक्ति थी कि खुद शासन के भीतर असहमति के स्वर बढ़ रहे हैं, जो यह कह रहे हैं कि नक्सल समस्या का हल सिर्फ बड़ी सैन्य कार्रवाइयों की बदौलत संभव नहीं है। लेकिन तब चिदंबरम यह कहते हैं कि नक्सली अपने नियंत्रण वाले इलाकों में सरकार को विकास का कोई काम करने ही नहीं देते। इसलिए जब तक हम नक्सलियों के नियंत्रण से आदिवासी इलाके खाली नहीं करा लेते, तब तक हम उन इलाकों के आदिवासियों तक विकास के लाभ नहीं पहुंचा सकते। और यही कारण है कि उन्होंने कहा कि ‘हमें उस रास्ते पर बने रहना चाहिए, जिसे नक्सलियों से निपटने के लिए काफी सावधानीपूर्वक तैयार किया गया है।’ जाहिर है, वह रास्ता है ऑपरेशन ग्रीनहंट का या नक्सलियों के दमन के लिए बड़े पैमाने पर सशस्त्र बलों के इस्तेमाल का। इस तर्क में दो बुनियादी समस्याएं निहित हैं। पहली, भारी संख्या में सशस्त्र बलों के इस्तेमाल से कथित ‘लाल गलियारे’ में रहने वाले आदिवासियों को रिहाइश के साथ-साथ अन्य कई तरह का नुकसान उठाना पड़ रहा है। वास्तव में, ऑपरेशन ग्रीनहंट के कारण विपत्ति में पड़े आदिवासियों में से ही अनेक लोग बंदूकें उठा रहे हैं और माओवादियों की टीम में शामिल हो रहे हैं। पिछले करीब छह महीनों में ही छत्तीसगढ़ के जिन इलाकों में ऑपरेशन ग्रीनहंट और सलवा जुड़ूम की मुहिम चल रही है, वहां सशस्त्र माओवादियों की संख्या लगभग दोगुनी हो गई है। दूसरी समस्या यह है कि आदिवासियों के विकास की जो परिकल्पना सरकार कर रही है, वह मुख्यतः खनन, स्टील, एल्युमिनियम और लौह उद्योगों के रूप में आकार लेती है। और इनके लिए उसे भूमि एवं उन जंगलों की दरकार होगी, जिन पर आदिवासियों का पूरा अस्तित्व निर्भर है। सरकारों ने इन उद्योगों के लिए निजी कंपनियों को लाखों एकड़ जमीन देने के सैकड़ों सहमति पत्र पर दस्तख्त किए हैं। इस कृत्य के पीछे तर्क यह दिया जाता है कि ये उद्योग विकास दर को तो गति देंगे ही, आदिवासियों को नौकरियां भी मिलेंगी। सचाई यह है कि अत्यधिक प्रदूषण फैलाने वाली इन कंपनियों की नौकरियां इनमें काम करने वालों की सेहत के लिए बेहद घातक हैं। फिर जितनी संख्या में ये आदिवासियों को नौकरियां देती हैं, वह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से विस्थापित होने वालों का बेहद मामूली प्रतिशत है। ये कंपनियां जितना विशाल भूभाग सीधे-सीधे अधिगृहीत करती हैं, उससे कई गुना अधिक धरती इनके प्रदूषण के कारण बंजर हो रही है। इनके आस-पास के जिन जल स्रोतों का इस्तेमाल आदिवासी करते हैं, वे इतने प्रदूषित हो चुके हैं, उनका जल पीने योग्य नहीं है। इस कारण स्थानीय आदिवासियों में स्वास्थ्य संबंधी गंभीर समस्याएं पैदा हो रही हैं। वायु प्रदूषण का आलम यह है कि स्पंज आयरन प्लांट के इर्द-गिर्द के पेड़ों की पत्तियां आपको विषैली कालिख से लदी दिख जाएंगी। यानी जिस तरह के विकास की बात सरकार कर रही है, वह वास्तव में वही है, जिसने आदिवासियों को जीवन के हाशिये पर धकेल दिया है। यह विध्वंसकारी विकास और ऑपरेशन ग्रीनहंट आदिवासियों के लिए क्या कर रहा है, इसकी गाथा हाल ही में छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल से आए अनेक आदिवासियों ने छह नामचीन शख्सियतों की एक जूरी को सुनाया। इस निर्णायक समिति में सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति पी।बी। सावंत, मुंबई उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति एच. सुरेश, शिक्षाशास्त्री यशपाल, नॉलेज कमिशन के पूर्व उपाध्यक्ष डॉ.पी.एम. भार्गव, महिला अयोग की पूर्व अध्यक्ष मोहिनी गिरी और पूर्व डीजीपी डॉ.के.एस. सुब्रमण्यन शामिल थे। आदिवासियों के हृदय चीर देने वाले उदाहरणों को सुनकर समिति को यह कहना पड़ा- ‘उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण की नई आर्थिक नीतियों के रूप में विकास के जिस मॉडल को स्वीकार किया गया और तेजी से मूर्त रूप दिया जा रहा है, उसने हाल के वर्षों में जमीन और जंगलों को, जो आदिवासियों की आजीविका और अस्तित्व के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं, बड़े पैमाने पर कॉरपोरेट घरानों को सौंपने के लिए राज्य को प्रेरित किया है, ताकि ये उद्योग खनिज संसाधनों का दोहन कर सकें।...इन उद्योगों के पर्यावरणीय प्रभावों के मूल्यांकन के लिए जो प्रक्रिया अपनाई गई है, उससे पीईएसए ऐक्ट के तहत ग्राम सभा से संपर्क की अपेक्षा महज मजाक बनकर रह गई है। इसका नतीजा यह हुआ है कि आदिवासी कुपोषण और भुखमरी की स्थिति में पहुंचा दिए गए हैं।...अपने जबरन विस्थापन के खिलाफ आदिवासी समुदायों द्वारा शांतिपूर्ण आंदोलन को पुलिस और सुरक्षा बलों की मदद से हिंसक तरीके से कुचला गया है।’ समिति ने यह प्रस्तावित भी किया कि आदिवासियों के इस जातीय संहार को रोकने के लिए सरकार द्वारा तत्काल कुछ कदम उठाए जाने की जरूरत है। सबसे पहले वह ऑपरेशन ग्रीनहंट रोके और स्थानीय लोगों से बातचीत शुरू करे। वह तत्काल सभी तरह के कृषि एवं वन भूमि के अधिग्रहण और आदिवासियों के जबरन विस्थापन पर रोक लगाए। सरकार सभी सहमति पत्रों के विवरणों, वन इलाकों में प्रस्तावित तमाम औद्योगिक व ढांचागत परियोजनाओं को घोषित करे और खेती की जमीन के गैर कृषि उपयोग वाले समस्त सहमति पत्रों और पट्टेदारी को ठंडे बस्ते में डाले। और जिन आदिवासियों को जबरन विस्थापित किया गया है, उनका उनके वन क्षेत्र में पुर्नवास करे। साफ है, जिन इलाकों में माओवादियों का वर्चस्व है, वहां के आदिवासियों के बलात् विस्थापन पर सरकार रोक लगाए। यकीनन उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य और बिजली जैसी सुविधाएं चाहिए, लेकिन उन्हें इस तरह के उद्योग कतई नहीं चाहिए। यदि वह ऑपरेशन ग्रीनहंट जैसे तरीकों से जंगलों को माओवादी मुक्त करने की कोशिश करती रहेगी, तो वह आदिवासियों को माओवादियों की तरफ जाने को ही बाध्य करेगी। (लेखक सर्वोच्च न्यायालय में अधिवक्ता एवं सामाजिक कार्यकर्ता हैं) अमर उजाला से साभार
सोमवार, 26 अप्रैल 2010
आईएसआई ने भी रचा था विवादित ढांचा ढहाने का षडयंत्र
शुक्रवार को शासन बनाम लालकृष्ण आडवाणी आदि के मामले में सीबीआई ने बतौर गवाह तत्कालीन एएसपी व वर्तमान में डायरेक्टर कैबिनेट सचिवालय भारत सरकार अंजू गुप्ता को पेश किया। बचाव पक्ष के अधिवक्ता हरिदत्त शर्मा के प्रश्नों के उत्तर में उन्होंने कहा कि पांच दिसंबर 1992 को छह दिसंबर के प्रस्तावित कारसेवा के मद्देनजर पुलिस अफसरों की समीक्षा बैठक में तत्कालीन आईजी जोन एके सरन ने कहा था कि खुफिया एजेंसियों से जो सूचनाएं मिली हैं, उसमें विवादित ढांचे पर हमले और उसके साथ तोड़फोड़ की आशंका व्यक्त की गई है। पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई और इसके गुर्गो से भी खतरे की आशंका है। वैसे ज्यादा बड़ा खतरा स्थानीय स्तर पर कारसेवकों की ही तरफ से है। अंजू गुप्ता ने बताया कि खुफिया एजेंसियों से यह भी जानकारी दी थी कि शायद आईएसआई के गुर्गे अयोध्या पहुंच गये हैं और स्थानीय लोगों से मिल कर अथवा अन्य तरीके से वे विवादित ढांचे को क्षति पहुंचा सकते हैं, ताकि कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़े।
बयान में सुधार 'थे' की जगह 'थी'
साथ ही 26 मार्च को दिये बयान पर पूछे गये प्रश्न में सुधार करते हुए उन्होंने कहा कि उन्होंने पेज नंबर सात पर जो बयान दिया था उसमें 'थे' की जगह 'थी' कहा था। पिछली गवाही के दौरान दिये बयान में श्रीमती गुप्ता ने कहा था कि जब गुंबद गिर रहे थे, ढांचा टूट रहा था। उस समय मंच पर जो नेता बैठे थे, वह बहुत खुश लग रहे थे। वे एक दूसरे से गले मिल रहे थे। मिठाइयां बंट रही थीं, एक जश्न का माहौल था और कारसेवकों को प्रेरित किया जा रहा था। सुश्री उमा भारती व ऋतंभरा बहुत प्रसन्न थीं और वहां मौजूद आडवाणी समेत सभी नेताओं से गले मिल रहीं थीं। दोनों मंच से लगातार ढांचा गिराने के लिए प्रेरित कर रहे थे।
बचाव पक्ष को राहत न देते हुए अंजू गुप्ता ने कहा कि उन्होंने जो बयान मुख्य परीक्षण में दिये हैं, वही उन्होंने सीआईडी व मामले के जांच अधिकारी को भी दिये थे। वे किसी के दबाव में बयान नहीं दे रहीं हैं। बचाव पक्ष ने लगभग तीन घंटे की जिरह के दौरान अंजू से सीबीसीआईडी के सामने दिये गये उनके बयान और अदालत में दर्ज कराये उनके बयानों में अंतर होने के बारे में सवाल करते हुए कुछ खास बिंदुओं का उल्लेख किया और उन पर जिरह की।
बचाव पक्ष के इस सवाल पर कि क्या उन्होंने सीबीसीआईडी को दर्ज कराये अपने बयान में यह जानकारी नहीं दी थी कि गुम्बद पर चढ़े लोगों को गिरकर घायल होने से चिंतित आडवाणी लोगों को उतारने के लिए उनके पास जाना चाहते थे, जैसी कि जानकारी उन्होंने अदालत में दी, इस पर अंजू का कहना था कि उन्होंने सीबीसीआईडी के सामने अपने बयान में हर उस बात का उल्लेख किया है, जो अदालत के सामने दर्ज कराये अपने बयान में कही है। सीबीसीआईडी को धारा 161 के तहत दर्ज कराये अपने बयान में उन्होंने हर बात का उल्लेख किया है। इसी तरह उमा भारती और ऋतंभरा द्वारा छह दिसंबर को दिये गये भड़काऊ भाषणों के बारे में सीबीसीआईडी के दिये बयानों में उल्लेख न होने के बारे में बचाव पक्ष ने अंजू से सवाल किया। उस पर उन्होंने दोहराया कि उन्होंने सीबीसीआईडी को हर बात बतायी थी, जिसे विवेचनाधिकारी ने लिखा भी था और अब वह दर्ज कैसे नहीं है, यह तो जांच अधिकारी बता सकता है।
बचाव पक्ष के इस सवाल पर कि क्या उन्होंने इस अदालत में विचाराधीन मुकदमे 198/92 के बारे में सीबीआई को कोई बयान दिया था, अंजू ने कहा कि उन्होंने विवादित ढांचे के विध्वंस के बारे में सीबीआई को बयान दिया था मगर यह नहीं जानती कि सीबीआई ने उसका उपयोग किस मुकदमे में किया। 12 पेज की जिरह के बाद न्यायालय ने शेष जिरह के लिए 29 अप्रैल की तिथि नियत कर दी है।
रविवार, 25 अप्रैल 2010
हरिद्वार कुंभ को नोबेल पुरस्कार मिले

ल शांति पुरस्कार दिलाने के लिए जोरदार अभियान चलाए। दूसरी तरफ, कांग्रेस ने इस मांग को बेतुका बताते हुए खारिज कर दिया है। बीजेपी ने कहा, 'यह सिर्फ ऐतिहासिक नहीं है। इस मायने में अनूठा भी है कि दुनिया के कोने-कोने से लोग इस साल हरिद्वार पहुंचे। इसलिए हम महसूस करते हैं कि राष्ट्रीय त्योहार महाकुंभ को इस साल नोबेल शांति पुरस्कार दिया जाना चाहिए। इससे पहले राज्य के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने भी कहा था कि महाकुंभ को नोबेल मिलना चाहिए। उन्होंने कहा कि यह दुनया का सबसे बड़ा धार्मिक आयोजन है, जिसमें 140 देशों से करीब 5 करोड़ लोग पहुंचे।
रविवार, 18 अप्रैल 2010
नरेन्द्र मोदी और तोगड़िया देश के कौन
भारत क्यों न बने हिन्दू देश
शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010
गुजरात दंगे मामले में मास्टर स्ट्रोक
सुप्रीम कोर्ट में शुक्रवार को दाखिल अपने ताजा हलफनामे में राज्य सरकार ने एनजीओ कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ और अन्य लोगों के खिलाफ आपराधिक मुकदमे दर्ज करने की भी मांग की। राज्य सरकार ने कहा कि अपने राजनीतिक मकसद साधने के लिए ये लोग गवाहों को बरगला रहे हैं और एसआईटी पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं। राज्य सरकार का यह हलफनामा सुप्रीम कोर्ट द्वारा 6 अप्रैल को सीतलवाड़ व अन्य की याचिका स्वीकार करते हुए उसे जारी किए गए नोटिस पर आया है। इस याचिका में सीतलवाड़ व अन्य ने राज्य में हो रही दंगा मामलों की सुनवाई पर रोक लगाने और सभी मामले जांच के लिए सीबीआई को सौंपने की मांग की गई थी। उन्होंने एसआईटी पर भी पक्षपातपूर्ण तरीके से काम करने का आरोप लगाया था।
सोमवार, 12 अप्रैल 2010
मन्नू जी भारत आपका है, ओबामा का नहीं
मन्नू जी भारत आपका है, ओबामा का नहीं ; यह बात आपको बताने की जरुरत नहीं है । मुंबई पर हमला भारत ने झेला है । तो फिर अमेरिका कौन होता है हमारी पैरवी करनेवाला । मनमोहन जी हमारी सलाह है की पाकिस्तान का जो भी करना है , खुद करे । नहीं तो यही होते -होते पूरा भारत अमेरिकी फैसलों का गुलाम होता जायेगा । एक बात और आप अपने विदेश मंत्री को नगर निगम टाइप का मंत्रालय दे दे ।
रविवार, 11 अप्रैल 2010
मोदी लाओ, भाजपा बचाओ
संघ ने कहा है कि मोदी को देश के भावी प्रधानमंत्री के सशक्त उम्मीदवार के रूप में उभरता देख 'सोनिया मंडली' भयाक्रांत है। संघ के मुखपत्र 'पांचजन्य' में आरोप लगाया गया है कि सोनिया मंडली की मदद से राजनीति के इस चक्रव्यूह में मोदी को फंसाने में उनके 'सात महारथी' पिछले सात साल से जुटे हुए हैं। लेकिन इन महारथियों को असफलता के सिवा कुछ हासिल नहीं हुआ।
सात महारथी
तीस्ता सीतलवाड़, शबनम हाशमी, अहमद पटेल, फादर सड्रिक प्रकाश सामिल है , जिनका जन्म ही मोदी विरोध और कांग्रेस की तैल मालिश के लिए हुआ है ।
बिग हिन्दू की ओर से श्रीमान मोदी को इसके लिए सुभकामनाये
गुरुवार, 8 अप्रैल 2010
उमा-बीजेपी मिलन हिंदुत्व के लिए अच्छा

मंगलवार, 6 अप्रैल 2010
अडवाणी जी अब राम को माफ़ कर दे
मंदिर आंदोलन को नुकसान पंहुचाया आडवानी ने
भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी पर राम मंदिर आंदोलन को नुकसान पहुंचाने का आरोप लगाते हुए विश्व हिंदू परिषद ने आज कहा कि यदि उन्होंने 1989 में रथयात्रा नहीं निकाली होती तो अब तक अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण हो चुका होता। विहिप प्रमुख अशोक सिंघल ने यहां संवाददाताओं से कहा कि आडवाणी ने उस समय रथयात्रा निकाल कर एक गलत कदम उठाया था। यह रथयात्रा उन्होंने वोट बैंक की खातिर निकाली थी।
उन्होंने आरोप लगाया कि भाजपा ने केंद्र की तत्कालीन विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार से समर्थन वापस लेने का रास्ता तैयार करने के मकसद से रथयात्रा निकाली थी। सिंघल ने कहा कि आडवाणी यदि उस समय रथयात्रा नहीं निकालते तो सभी राजनीतिक दलों को बातचीत के जरिए इस मुद्दे पर मनाया जा सकता था। ऐसी स्थिति में अभी तक राम मंदिर का निर्माण हो गया होता।
भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी द्वारा अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए मुस्लिमों से सहयोग लेने के सुझाव के बारे में उन्होंने कहा कि गडकरी या भाजपा का इस मुद्दे से कोई लेना-देना नहीं है। भाजपा राम मंदिर के मुद्दे पर अपनी राजनीति नहीं करे। राम मंदिर आंदोलन साधु-संतों ने चलाया है और वही इस मामले में फैसला करेंगे।
शर्म, शर्म और शर्म
यह खबर बताती है की अब हमारे सेकुलर नेताओ के प्यारे पाकिस्तान और चीन को हमारे यहाँ केवल हथियार भेजने की जरुरत रह गई है, बाकी काम वो यही के गद्दारों से करवा रहे है । तारीफ है की मानवाधिकार वादी इस मुद्दे { ७२ जवानो की हत्या } पर कुछ बोलने के बजाय अपनी माँ की गोद में जाकर छिप गए है ।
बिग हिन्दू इस घटना की कड़े शब्दों में निंदा करता है और यह मांग करता है की नक्सल वाद के खिलाफ निर्णायक युद्ध जल्द शुरू किया जाये ।
शुक्रवार, 26 मार्च 2010
राम का नाम बेचनेवालो की शामत
शुक्रवार, 5 मार्च 2010
ऐसे बाबाओ से राम बचाए
नित्यानंद पर जालसाजी का मामला, इच्छाधारी बाबा को रिमांड
तमिलनाडु पुलिस ने खुद को धर्मगुरू बताने वाले स्वामी नित्यानंद के खिलाफ जालसाजी का मामला दर्ज किया है। दूसरी ओर, कर्नाटक सरकार ने स्वामी के विरुद्ध बेहद सख्त कार्रवाई का भरोसा दिलाया है। उधर, सेक्स रैकेट में फंसे इच्छाधारी बाबा शिवमूरत द्विवेदी को दिल्ली की कोर्ट ने पांच दिन की पुलिस हिरासत में भेज दिया है। एक तमिल टीवी चैनल द्वारा नित्यानंद की कथित अश्लील हरकतों वाले फुटेज के प्रसारण के बाद तमिलनाडु और कर्नाटक में बाबा के आश्रमों पर गुस्साए लोगों ने धावा बोल दिया था। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम करुणानिधि ने गुरुवार को कहा कि राज्य सरकार बाबा के ऐसे कृत्यों को कतई बर्दाश्त नहीं करेगी। बाबा के खिलाफ छह वकीलों ने धोखाधड़ी और अश्लीलता फैलाने की शिकायत की थी। इसी के आधार पर पुलिस ने जालसाजी का मामला दर्ज किया है। यह मामला कर्नाटक विधानसभा में भी उठा। राज्य के गृह मंत्री वीएस आचार्य ने कहा कि तमिलनाडु सरकार से जानकारी मिलने के बाद नित्यानंद के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी।
अब एक स्वामी के 'सेक्स विडियो' पर
इच्छाधारी संत के सेक्स रैकेट का मामला अभी शांत भी नहीं हुआ कि एक और स्वामी के कथित सेक्स विडियो को लेकर बवाल शुरू हो गया है। दक्षिण के जाने - माने संत स्वामी नित्यानंद का कथित सेक्स विडियो एक टीवी चैनल पर दिखाए जाने के बाद से यह मामला तूल पकड़ता जा रहा है। सड़कों पर विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए हैं। प्रदर्शनकारी इस मामले में केस दर्ज करने की मांग कर रहे हैं। हालांकि स्वामी नित्यानंद के आश्रम की तरफ से कहा गया है कि विडियो फर्जी है। मिली जानकारी के मुताबिक एक स्थानीय टीवी चैनल में एक सीडी दिखाया गयाहै जिसमें स्वामी नित्यानंद एक महिला के साथ अश्लील हरकतें करते दिख रहे हैं। चैनल ने उस महिला की पहचान नहीं बताई है , लेकिन कहा है कि वह दक्षिण की कोई हीरोइन है। इस विडियो के प्रसारण के बाद से सड़कों पर विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए हैं। स्वामी नित्यानंद के पुतले भी फूंके गए।